हम ही हटायेंगे कोहरा
......................................................
पुस्तक समीक्षा :
पुस्तक का नाम : हम ही हटायेंगे कोहरा
कवि : असंग घोष
प्रकाशक : सानिध्य बुक्स, एक्स/3282, गली नंबर चार, रघुबरपुरा नं – 2
गांधीनगर, नई दिल्ली
मूल्य : 150 रूपये मात्र
कुल पृष्ठ : 96
प्रकाशन वर्ष : 2016
असंग घोष उत्पीड़ित समुदायों के आत्म इतिहास में ऐसे विरल कवि हैं जो कविता का एक नया प्रदेश बनाते हैं. वे एक ऐसा जनपद बनाते हैं जहाँ उत्पीड़न न्यूनतम हो. उनकी कविता में रैदास के बेगमपुरा की संकल्पना आप सहज देख सकते हैं. कविता के भोंथरे पड़े प्रतिमानों से उनकी कविता का आस्वाद हो सकता है किसी आलोचक को कम भाये, हो सकता है कोई अलंकारवादी, रसवादी कविता को लेकर अपनी स्थापनाओं से कविताओं को नकार दे. हो सकता है कविता के नए प्रतिमानों में, दूसरी परम्परा के कैननों में उनकी कविता को फिट करना कठिन हो. पर उनकी कवितायें इन प्रतिमानों की सीमा रेखा से परे की कवितायें हैं.
वे एक नए सौंदर्यशास्त्र के साथ कविता के इतिहास में पिछले दो दशकों में टिके हुए हैं. आज कविता के वही प्रतिमान नहीं हैं जो कालिदास या बाणभट्ट की कविताओं के हुआ करते थे. कविता के वही कैनन नहीं है जिसमें आसुग ने बाहुबली रास, नरपति नाल्ह ने बीसलदेव रास, जायसी ने ‘पद्मावत’ लिखा था. कबीर की कविता के प्रतिमानों को आज हम हुबहू लागू नहीं कर पायेंगे. उनकी उलटबासियाँ आज के मनुष्य की समझ से बाहर हैं. आज गुरु और गोविन्द में से गुरु और गोबिंद किसी को नहीं चुनना है. सब अर्थ आधारित तंत्र ने हथिया लिया है. आज तो मान्यवर कांशीराम के शब्दों में ‘गुरुकिल्ली’ की जरुरत है. कविता में उसी गुरुकिल्ली का प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं असंग घोष.
बहुत आगे कहाँ जाएँ सत्तर के दशक की कविताओं और असंग घोष की कविताओं में अंतर है. कविता का पहनावा ओढ़ावा पहले जैसा नहीं है. बहुत सारे कैनन बने हैं, बहुत सारे मठ टूटे हैं, कई प्रतिमान भरभराकर गिर रहे हैं पर कविता शाश्वत है. उसकी अंतर्वस्तु में कोई बहुत अंतर नहीं पड़ा है. उपन्यास तो मध्यवर्ग तक आया पर कविता लम्बे कालखंड तक सामंती हाथों में रही. अभी उसका रूप संवर रहा है. कविता अब उन्हीं उत्पीड़ितों के हाथ में आयी है जिसमें लिखा गया था ‘लोहे का स्वाद लुहार से नहीं, उस घोड़े से पूछो जिसके मुँख में लगाम है’. आस्वाद की जगह आज स्वाद कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. अब कोई कविता काव्य है कला? कला है अथवा जीवन ? कविता क्या है ? से बहुत आगे निकल गई है. उसी आगे की धारा में निकले हुए कवि हैं असंग घोष.
हम और हमारा समाज भले ही तीसरी सदी में जी रहा हो, पर हम उत्तरआधुनिक होने को लालायित है. ऐसा लगता है बाजार की शक्तियां केवल भारत को लील रही हैं और कविता उसके आगे लाचार है. कविता लाचार हो सकती है, अब उत्पीड़ित लाचार नहीं हैं. वंचितों के मुख में आवाज आयी है. अब उन्हें उनके लिए किसी बोलने वाले की जरुरत नहीं है. वे लिख पढ़ और गा रहे हैं. कविता में वे गहन पीड़ा को अभिव्यक्त कर रहे हैं. कलावादियों को उन्होंने धकेल दिया है. आस्वाद को साधारणीकरण तक ले आये हैं. उनके अन्दर रसराज ‘श्रृंगार’ नहीं ‘जुगुप्सा’ ‘भय’ और ‘क्रोध’ अधिक है.
आज जब कविता ‘पोइट्री मैनेजमेंट’ की तरफ बढ़ रही है. दोपदिया सिघार और तोता बाला घोष के नाम से अनाम भाषा में लिखी जाने वाले कवितायें चर्चा में हैं. वहां एक ऐसे कवि के बारे में बात करना लाजिमी है जो सब मंदिर, मस्जिद, गढ़ तोड़कर मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होने का आग्रही है. वहां एक ऐसे विरल कवि के बारे में बात करना लाजिमी है जो कविता लिखता नहीं अपितु कविता जीता है. अपने दुःख से समाज को मिलाता है. जहाँ उसे लगता है ‘सर्वम दुक्खं’. वह सोचता है ऐसी कौन सी परिस्थियाँ रही होगीं जब तथागत के मुख से यही बात निकली होगी. क्या उनका समुदायवाद असंग का समुदायवाद है? क्या संबुद्ध की पीड़ा ही असंग की पीड़ा है? तब हमें सोचना होगा कि आखिर में कविता ने अब तक क्या किया है? क्या वह आजतक आस्वाद के सहारे रही. उसने दुःख दूर करने का कोई उपक्रम नहीं खोजा. क्या वह भी ‘सर्वम दुक्खं’ की हिमायती रही?
‘हम ही हटायेंगे कोहरा’ असंग घोष का पांचवां कविता संग्रह है. इस कविता संग्रह की कवितायें अपने रूप और आकार में पहले से ज्यादा चुस्त हैं. यहाँ कवि पहले की अपेक्षा थोड़ा और सॉफ्ट हुआ है. कविता बयान मात्र नहीं रह गई है बल्कि अब उसमें थोड़ा बांकपन आ गया है. कहन वही है पर कहने का तरीका अलग है. आक्रोश का स्वर थोड़ा धीमा पड़ा है. इस कविता संग्रह में बुद्ध की अपेक्षा करुना को अधिक जगह मिली है. लोकतंत्र में कवि की आस्था थोड़ी और दृढ़ हुई है. इन कविताओं में प्रजतान्त्रिका मूल्यों के क्षरण पर शोक और करुना मिश्रित संवाद अधिक हैं. इस संग्रह की पहली कविता ‘पक्षियों को बीजा दो’ पक्षियों से अधिक कहीं मनुष्य और मनुष्यता की कविता है. निरंतर खोते जाते मूल्यों और अस्मिताओं कि चिंता आखिर कौन कर रहा है? कवि की सत्ता जितनी भी है वह प्रतिरोध के साथ खड़ा है. इस कविता संग्रह की शुरआत उसी कविता से है.
उनकी कविता ‘आज की नारी’ में स्त्री के साथ होते आये छल को कवि सहज उद्घाटित कर देता है. कवि ‘स्त्रीशूद्रोनाधीयताम’ के शंखनाद को अपनी कविता में चुनौती देता है. वह विप्र कवि तुलसी के मुख को लाल कर देता है और पूछता है कि आखिर शूद्र, पशु और नारी तुम ब्राह्मणों की दृष्टि में ताड़न के अधिकारी क्यों हैं? क्या तुम्हारी विभेदकारी सृष्टि में स्त्री का कोई स्थान नहीं? असंग प्रश्न उठाते हैं कि तुलसी तक तो ठीक है पर उन्हीं के वंशज आचार्यरामचंद्र शुक्ल और तथाकथित मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा क्या सोचते हैं? क्या उनकी स्त्री तुलसी की स्त्री दृष्टि से कुछ अलग है. असंग मिथक को तोड़ते हैं:
इंद्र की दृष्टि से/तूने/ एक स्त्री को पथरा दिया/
ताकि वह डरी रहे हमेशा/ न करे विरोध तेरी कुटिलता और कुदृष्टियों का/
तू पाँव छूने से होने वाले/ उद्धार को गौरवान्वित मत कर/ स्त्री जान चुकी है /
ब्रह्मा, कृष्ण/ वायु/पराशर/ वृहस्पति/राजा दंड के /
मिथकों में किये अपहरण बलात्कार
(हम ही हटायेंगे कोहरा, पृष्ठ १३ )
असंग खोती हुई परम्पराओं को लेकर चिंतित हैं. बुरी परम्पराओं को तो मिट ही जाना चाहिए पर ऐसा कभी नहीं होता कि सब बुरा ही बुरा मिटे. कभी कभी सबसे अच्छा भी मिट जाता है. नई पीढियां उन अच्छाइयों को महसूसने से वंचित रह जाती हैं. उन्हें अपने पूर्वजों का उत्पीड़न भूल जाता है. पर यहाँ कवि आश्वस्त करता कि हमें चिंतित नहीं होना चाहिए. शायद ऐसा समय की जरुरत हो. वे अपनी ‘माँ और पिता’ नामक अपनी कविता में खुद के जीवन और फिर उसके बाद अपनी पीढ़ियों का जिक्र करते हुए लिखते हैं :
आजकल के बच्चे/ बरू के बारे में जानते ही कहाँ है
वे तो एक, दो, तीन, चार, पांच, दस, बीस/ पचीस-पचास
पैसों के सिक्कों के/ प्रचलन से वंचित ही रहे/ आगे की पीढ़ियाँ तो
इन्हें जान भी नहीं पायेगी/ वैसे भी मेरा बेटा/ रांपी चलाना नहीं जानता है
यह उसने सीखा ही नहीं/ और शायद/ अब जरुरत भी नहीं
(हम ही हटायेंगे कोहरा, पृष्ठ १५)
उत्पीड़ितों की कविता में अब यही परिवर्तन है. पारंपरिक पीढियां अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़ रहा है. आज वह उसकी मज़बूरी नहीं है. शायद कवि भी इसी परिवर्तन को इंगित करता है कि समय के साथ बहुत सारी गर्द को साफ़ होना ही चाहिए. पीढियों को गंदी और बुरी चीजें छोडनी ही होंगी.
उदय प्रकाश की एक प्रसिद्ध कविता है ‘सूअर’ और इसी सन्दर्भ को लेकर बाबा नागार्जुन की एक कविता है ‘बारह थनों वाली’ और इसी श्रृंखला में असंग की कविता है ‘राक्षस हो जाना चाहता हूँ’ जिसमें कवि खाते पीते शताब्दी के सूअरों की बात करता है. यहाँ कई सन्दर्भों में एक निरीह पशु है सूअर जो कभी मिथक में ‘बाराह’ की तरह जाना जाता था. यहाँ पहले असंग कि कविता देखें :
खदेड़ने कि भरसक कोशिश की मैंने/ बावजूद इसके घुस आया है
खेत में अपना थूथुन उठाये/ मेरी फसल को नेस्तनाबूद करते हुआ/
जंगली सूअर/ मेरी हर कोशिश बेकार हो गई/ इसके सामने तो अब तो मुझे
इन्तजार है अपने दांतों के / तीक्ष्ण होने का
सचमुच मैं तेते मिथकों का राक्षस हो जाना चाहता हूँ
(हम ही हटायेंगे कोहरा, पृष्ठ २० )
यहाँ देखें तो कविता के बिम्ब बदले हुए हैं. कोई सूअर जैसा निरीह और घृणित प्राणी क्यों होना चाहेगा? हर कोई शेर होना चाहता है. भाषा विभेद ने पशुओं को तो नहीं छोड़ा पर हाँ, दलित वंचित रचनाकार स्वयं को ऐसे अलंकरण से अपमानित नहीं करता अपितु उसके गुणों को ग्रहण करते हुए अपने दांत नुकीले करना चाहता है.
आज दलित वंचित निरीह और बेचारा नहीं है. संविधान के कारण उसने अपनी शक्ति को बढ़ाया है. उसने अपनी ताकत विकसित की है. आज वह करोडपति बिजनेश मैंन भी है. आज डिक्की जैसी संस्थाओं का वह सफलतापूर्वक संचालन भी कर रहा है. आज टीना डाबी जैसी उसकी बेटियां आईएएस जैसी कठिन परीक्षाओं में टॉप कर रही हैं. आज दीपा कर्माकर जैसी दलित बेटियां भारत का मान बढ़ा रही हैं. रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के कारण देश एक जुट हो रहा है. आज पंजाबी की युवा गायिका बाबा साहब आंबेडकर के गानों को दुनिया में फैलाकर उन्हें अमरता का पथ दे रही है. आज जाने कितने दलित ‘बंत सिंह’ हत्या और बलात्कार के बाद चुप नहीं है. आज दलित सामूहिक होकर अपनी आवाज उठा रहे हैं जो यह परिवर्तन साहित्य का भी अंग बना है. कवि असंग अपनी कविता ‘तेरा घोड़ा मेरे कब्जे में है’ में लिखते हैं :
मैं एकलव्य नहीं हूँ/ मेरा अंगूठा अपनी जगह कायम है/
न ही मैं कर्ण हूँ/ मेरा कवच/ चिरस्थायी हो चुका है
नहीं आने वाला तेरे झांसे में / तू आ लड़ मुझसे / तेरा घोड़ा मेरे कब्जे में है
(हम ही हटायेंगे कोहरा, पृष्ठ ३०)
उनकी कविता ‘बेजोड़ छल’ बने हुए मिथकों पर सीधा प्रहार करती है. सदियों से सत्ता अपने हित को साधने के लिए कैसे अपने प्रतिमान बनाती है और सत्ता की भागीदारी को सुनिश्चित करती है. कैसे वह अपनी पीढ़ियों और अपने बीजों में कुतर्क को स्थापित करती हुई शक्ति का संधान करती है. ‘हम ही हटायेंगे कोहरा’ दलित कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘ठाकुर का कुआँ’ की बरबस याद दिला जाती है.
उनकी कविता में एक अजीब तर्कवाद है जिसमें आक्रोश बड़ी सिद्दत के साथ आता है. मलखान सिंह की कविताओं की भाषा में कवि बोलता है ‘सुनो ब्राह्मण’:
तुम बामनपारा में / घुसते हो रोज / कभी सांझ ढले
कभी अल्लसुबह/ बगल में दबा निकलते हो
अपने पोथी पतरे को / लोगों को चूतिया बनाने
(हम ही हटायेंगे कोहरा, पृष्ठ ७०)
इसी तरह से उनकी कवितायें उन ब्राह्मणवादी मूल्यों को समूल ध्वस्त कर देना चाहती हैं जिसने देश की सत्तर प्रतिशत आबादी का जीना मुहाल कर रखा है. जिसने ऊंच-नीच का भेद भाव रचा है. जहाँ मनुष्य को मनुष्य नहीं समझा जा रहा है. कवि ऐसे मनु की संहिताओं को जलाने के पक्ष में है जो विभेदकारी हैं. जिनसे सभ्य मनुष्यों को खतरा है. ‘दीमकों चाटो’ नामक कविता में कवि की कामना है कि :
कहते हैं दीमकें चाट जाती हैं किताबें
पोथी पतरा और ग्रन्थ
फिर वे क्यों नहीं चट कर पायीं
वेद, पुराण, उपनिषद और मनुस्मृति ?
बताओ तो!
(हम ही हटायेंगे कोहरा, पृष्ठ ८३ )
इसी तरह से असंग घोष अपनी कविताओं में एक महा आख्यान रहते हैं. वे उत्पीड़न का दंश झेलते हुए उत्पीड़न को नेस्तनाबूद होने का सपना संजोते हैं. इसीलिए कहीं कहीं उनकी कविता में आक्रोश मुखर हो जाता है. करुना पीड़ा को कहते कहते कलात्मक नहीं रह जाती. उनकी कविता में मनुष्य के गुणों अवगुणों की अभिव्यक्ति हो जाती है. दलित चेतना में असंग की कवितायें एक अलग सुर और साधना की कवितायें हैं.
खामोश नहीं हूँ मैं
...........................................................................................................................................................
पुस्तक समीक्षा :
पुस्तक का नाम : खामोश नहीं हूँ मैं
कवि : असंगघोष
प्रकाशक : शिल्पायन, शाहदरा, नई दिल्ली
मूल्य : 125 रूपये
प्रकाशन वर्ष : 2011
कविता आदमी होने की तमीज है. यह तमीज लम्बे संघर्ष और यातना के साथ आती है. असंगघोष की कविताओं से वैसी ही गंध फूटती जान पड़ती है, जिनसे हम वर्षों मरहूम रहे हों. असंगघोष जनप्रिय कवि हैं. उनकी कवितायेँ सिद्ध करती हैं कि ‘भाषा’ जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल होता है’. ओमप्रकाश वाल्मीकि, नामदेव ढसाल, नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, और कबीर की परंपरा की उनकी कविताओं को देखकर लगता है कि इक्कीसवीं सदी की शैशवावस्था में जब साहित्य के कुलीन साधक यथार्थ की दुनिया से पलायन कर उत्तर-आधुनिकता का घोंसला गढ़ रहे हैं, तक एक कवि ऐसा भी है जो मनुष्यता की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष कर रहा है.
अपने अन्य संग्रहों ‘ समय को इतिहास लिखने दो’ ‘हम गवाही देंगे’ ‘मैं दूंगा माकूल जवाब’ के साथ ‘खामोश नहीं हूँ मैं’ उनका चौथा कविता संग्रह है. वे हमारे साथ जी रहे वैसे असंख्य लोगों के बारे में, कच्छे घर, चक्की, लालटेन, सिलबट्टे पर पीसी हुई मिर्च की चटनी, चूल्हे की आग जैसे कई चित्र उकेरते हैं जो समय की शिला पर कहीं फिसल गए हैं. उनकी कवितायेँ जमीन के गहरे जुड़ाव की कवितायेँ हैं. कवि अपनी कौम से सवाल करता है : समय/ मांगता है/ मुझसे हिसाब / पढ़े क्यों नहीं ! वे नई ‘हवा’ को सावधान करने वाले कवि हैं. वे साहित्य में कई मौलिक प्रश्नों के साथ एक विमर्श शुरू करते हैं.
विमर्श का यह बीज उनके दैनन्दिन जीवन से आता है. ये मूल स्वभाव में ‘बुरे वक्त’ से निपटते आदमी की कवितायेँ हैं. कुछ कवितायेँ मनुष्य की अपनी जातीय मार्मिकता की याद दिलाती हैं. ‘पूंजीवादी वर्चस्व’ के इस क्रूर समय में कवि अपना आभ्यन्तर खोल कर रख देता है. इस संग्रह की लगभग सभी कविताओं में ‘आक्रोश’ प्रकट हुआ है. कवितायेँ ‘उद्वेग’ की जगह तार्किक विवेक के साथ सामने आती हैं. इस संग्रह में ‘मोना तुम मरी क्यों’ ‘नदी सदियों से प्यासी है’ ‘समय और मैं’ ‘सुनो ब्राह्मण’ ‘तुम्हारी पवित्रता’ ‘मीठा कांदा’ गौरैया’ जैसी अनेक महत्वपूर्ण कवितायेँ हैं.
इस पर चलते हुए/ कब/मैं दलदल में/ भीतर तक उतर गया
पता ही नहीं चला/और/ जब मैंने महसूसा कि/ मैं धंसा जा रहा हूँ
तब/ मेरे पास केवल हाथ बचे थे/ जिन्हें जीने की चाहत में
भरसक कोशिशों की तरह/ मारता रहा इधर-उधर
उनकी कवितायेँ मनुष्यों के साथ, उनके षडविकारों से प्रेम की, पशुओं, कीड़ों, चीटियों और आजीविका के उस अंतिम पायदान पर खड़े मनुष्य की कवितायेँ हैं.
इसी संग्रह में उनकी एक बहुत छोटी कविता है ‘गणेश बताओ तो’. इस कविता में कवि भारत में फैले अंधविश्वास और बाजार दोनों को एक साथ बरत लेता है. इस विज्ञान सम्मत आधुनिक समय में जहाँ लोग आज भी मूर्तिपूजा, कर्मकांड, बाबाओं के चक्कर में पड़े हुए हैं वहीं पर कवि को दिखाई देता है कि आम आदमी इस संकट भरे समय में, हारते हुए समय, बाजार की जकड़न के बीच आखिर कौन सा रास्ता उसके लिए बचता है. उसके लिए एक तरफ कुआँ है तो दूसरी तरफ गहरी खाई दिखाई देती है. फासीवादी ताकतों से बचने का अब कौन सा उपाय बाकी है. कवि लिखता है कि :
गणेश!/ तुमने दूध क्या पिया
फासीवाद ने / मेरा दरवाजा खटखटाया, और
घर में घुस आया/ बताओ तो तुम अब क्या पीने जा रहे हो
(खामोश नहीं हूँ मैं, पेज 20)
वह इक्कीसवीं सदी में जब दुनिया विज्ञान के चरम पर है और सामाजिक रूप से मनुष्य विकास की ओर है तो एक बड़ा समाज है जो समाज के मैले को अपने सिर पर लादकर ढो रहा है, ऐसे ऐसे घृणित कर्म कर रहा है जो निंदनीय है, वह सदी हुई लाशें उठा रहा है. सड़े हुए जानवर का निस्तारण कर रहा है. खेती में अपने कुनबे को डुबा रहा है. कवि भारत के जातिविहीन होने की संकल्पना से भरा हुआ है. वह स्वयं जाति से पूछता है :
ओ जाति! तू जाती क्या
बेड़िया तोड़, बंधन मुक्त कर
तू जाती क्या, ओ जाति!!
(खामोश नहीं हूँ मैं, पेज 21)
जाति ने बहुत बड़े बहुजन तबके को लीला है. पिछड़ी जातियों को भी सामजिक धार्मिक स्तर पर निरंतर अपमान ही सहना पड़ा. ये जातियां निरंतर पिछड़ती ही गईं. इनका आर्थिक पतन हुआ. सदियों कि दासता, शोषण, दमन और उत्पीड़न के कारण हीन भावना से ग्रसित और सारे अत्याचारों के शिकार होने के लिए विवश एक अभिशप्त जाति समाज में कैसे सिर उठाकर चल सकती थी? यहाँ हर कोई यह मानता है कि गरीब अपनी गरीबी के लिए स्वयं जिम्मेदार है. इससे विकट स्थिति और क्या हो सकती है. देश में जातिवाद कि जड़े इतनी गहरी हैं कि बिना उसे कुचले हुए सामजिक परिवर्तन असंभव है. उसे बनाये रखने में बुद्धिजीवियों का बहुत बड़ा स्थान है. असंग उसी जातिवाद के बढ़ते वर्चस्व पर अपनी कलम चलाते हैं.
इसी संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता है ‘नदी सदियों से प्यासी है’. कवि लिखता है कि :
कल कल करती / अभिशप्त नदी
सागर तक जा पहुंची / अथाह जल देख फिर चिल्लाई
मैं प्यासी हूँ / सागर अशांत किनारों से
टकराकर शोर मचाता कहता / मैं तो सहस्त्राव्दियों से प्यासा हूँ
प्यासी नदी दौड़ी दौड़ी / सागर की प्यास बुझाने
सागर में समाहित हो जाती है
(खामोश नहीं हूँ मैं, पेज 27)
कवि यहाँ अपनी कलात्मता के उच्चतम शिखर का परिचय देता है. अजस्र बहने वाली नहीं का बिम्ब लेते हुए कवि यहाँ बताता है कि नदी जानती है कि वह बहुत प्यासी है. उसके दो किनारे कभी भी एक नहीं हो पाते. वे दिन रात छटपटाते रहते हैं. वेगवान नदी स्वयं को बाँधने का उपक्रम करती है. यहीं यह वंचित समुदाय से आने वाला कवि प्रकृति को अपने बहुत निकट पाता है. समाज और प्रकृति के नियम एक जैसे हैं. कवि अपनी व्यथा अपनी अंतिम कविता लिखता है :
मैं भी परिंदों की भांति/ अनंत मुक्ताकाश में
विचरण करना चाहता हूँ/ पर
जाति के बोझ से झुके कंधे/ मुझे उड़ने नहीं देते
इन्हें कैसे हल्का करूँ!
पेट भरते कि चिंता/ अर्थाभाव की बेड़ियों ने
मेरे पैरों को जकड़ा हुआ है/ निष्ठुर समाज ने
होश सँभालने से पहले / मेरे पर काट दिए हैं, किन्तु
मन के पैरों को फडफडाने से कैसे रोकूँ
छाहता हूँ उड़ना / कोई बताये कैसे उडूँ
(खामोश नहीं हूँ मैं, पेज 80)
समय को इतिहास लिखने दो
.....................................................................................................................................................
पुस्तक समीक्षा :
पुस्तक का नाम : समय को इतिहास लिखने दो
कवि : असंग घोष
प्रकाशक : शिल्पायन, वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य : 200 रूपये
कुल पृष्ठ : 120
कवितायें घुलकर लिखी जाती हैं, घुलकर पढ़ी जाती हैं और कुछ जिन्हें पाठक अपने जीवन का अंग बना लेता है, ऐसी ही रचनाओं के लिए शायद शब्द बना होगा ‘कालजयी’. कालजयी वस्तुतः और कुछ नहीं, काल का अतिक्रमण मात्र है. ऐसी कवितायें जो समाज के ताने-बाने में ‘मध्यममार्ग’ का अनुशरण करती हैं. जीवन का एक सूत्र देती हैं जहाँ सब शुभाशुभ ही नहीं जीवन जगत का फैलाव भी रहता है. समाज और सामाजिक विडम्बनाओं का समुच्चय. जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, सामंतवाद, मार्क्सवाद, राष्ट्रवाद, वाद वाद वाद और कहीं कहीं इनका संवाद. मूल विन्दु गायब ही रहता है. पर रहता तो यही है.
असंग कविता जगत के पुराने महारथी हैं और पिछले बीस सालों से यह अलख जगा रहे हैं. उनकी कवितायें प्रतिरोध की कविताएँ हैं जो जीवन के संघर्ष से अनुभव करके निकली हैं. यह भारत में स्थित उन सवर्ण मार्क्सवादियों का छद्म प्रतिरोध नहीं है जो समाज की वास्तविकता को समझे बगैर रटंत तोते का व्यवहार करता रहा है. जिसने कभी समाज को समझा ही नहीं और भारतीय वास्तविकता को पश्चिमी नजरिये से ही देखता रहा.
असंग घोष की शिल्पायन प्रकाशन नई, दिल्ली से किताब आई है ‘समय को इतिहास लिखने दो’. प्रस्तुत संग्रह में पचास से अधिक कवितायें संग्रहीत हैं. असंग अपने पुराने तीन कविता संग्रहों से इस संग्रह में अधिक मुखर हुए हैं. कविता संग्रह में आदिकवि, हिसाब लेकर ही रहूँगा, मैं ही तुम्हें छोड़ देता हूँ, आहुति, दीवारें कब गवाही देंगी?, यक्ष प्रश्न,मंघाराम, माँ है नदी, समुद्र: तीन कवितायेँ, लम्पट, वल्दी कोरी की दफाई, घर, तेरी कालिख, सीढियाँ, विद्रोह, हुनर, तेरी चुप्पी, ओ मृत्यु तुम चली आओ जैसी महत्वपूर्ण कवितायें इसी संग्रह में है. उनकी प्रसिद्ध कविता है ‘आदिकवि’ जो इसी तरह का प्रतिरोध रचती है.
सत्ता का वर्चस्ववादी धड़ा लम्बे समय तक सत्ता में आने के लिए मुख्यधारा बना बैठता है और जो मुख्यधारा होती है उसको कहीं हाशिये पर लाकर छोड़ देता है. कभी कभी यही अस्मिता की राजनीति के रूप में उभर कर आता है पर अपवंचित धारा का यह साहित्य केवल अस्मिता की राजनीति भर नहीं है. वह साहित्य, कला, संस्कृति, राजनीति आदि में अपनी सशक्त दावेदारी को सुनिश्चित करता है. ‘हिसाब लेकर ही रहूँगा’ नामक अपनी कविता में असंग लिखते हैं कि :
तूने/ अपनी इच्छानुसार/
सब पाया क्योंकि तू शातिर था/
जानता था छल विद्या/ और हमें छलता रहा/
करता रहा शोषण हमारा/
तुम्हारी कुटिलता/ और छल के आगे/ मेरी इच्च्यें ही पत्थर हो गई/
लेकिन मेरी संघर्ष यात्रा/ अब भी जारी है/ एक दिन/
देना ही होगा/ तुम्हें/ मेरे शोषण का हिसाब
(असंगघोष, समय को इतिहास लिखने दो, पेज १५)
विभेद साहित्य की जड़ों में है क्योंकि वहां एक खास मानसिकता काम करती रही है. इतिहास हमेशा की तरह विजेताओं के साथ खड़ा रहता है. उसी इतिहास के सामानांतर एक और इतिहास होता है जो अपने अस्तित्व की तलाश लगतार करता है. कवि लिखता है कि :
आदिकवि/तुम कवि थे/ कवित्त करते रहे/
तुम्हारी तरह बाद के कवि भी/ लिखते रहे/
अभिज्ञान शाकुंतलम/ तुम दूबे रहे प्रेम में/ भक्ति में / रस में/ छंद में/
आमोद में/ तुम्हारा ध्यान/ हासिये बसे /
लोगों तक कभी गया ही नहीं/ तुम्हें तो पता ही नहीं था/वे कौन थे?
(असंगघोष, समय को इतिहास लिखने दो, पेज १२)
उदारवाद-बाजारवाद के साथ जो जातिवाद का गठबंधन नब्बे के बाद उभरा है उसी का विशद आख्यान है असंग की कवितायें. बदला कुछ भी नहीं है. न ब्राह्मणवाद कम हुआ है न पूंजीवाद का प्रकोप. दिखाई तो यह दे रहा है कि जिसे हम देवता मान रहे हैं उसी के भीतर कोई रक्तबीज भी छुपा हुआ है. नवब्राह्मणवाद निरंतर बलवान हो रहा है. जातियों के संगठन बहुत मजबूत हुए हैं. यह जो अर्द्धशिक्षित समाज आया है जाति के मामले में वह अधिक कुंठित है. असंग यहाँ परम्परा से चली आ रही पीड़ा को इस कविता के माध्यम से हमारे सामने रखते हैं कि एक बड़ा वर्ग है जिसे श्रम के मूल्यहीन होने के कारण दुःख झेलना पड़ा है. बुद्धि के वर्चश्व में अकारण ही स्वयं को श्रेष्ठ स्थापित करके करोड़ों लोगों को नरक में जीने के लिए मजबूर कर दिया. असंग लिखते हैं :
तुम्हारी तरह कवित्त नहीं करते थे वे/ सिर्फ बुनते थे/
ताना बाना/ जिसे ओढ़ते रहे तुम/ कभी/ रामनामी/ कभी कृष्णनामी//तुम कवि थे/
तथकथित महान सभ्यता/ संस्कृति के वाहक?/
जिसमें बुनने वाला/ हमेशा की तरह नदारद था/ भूलकर उन्हें /
करते रहे स्तुतिगान/ तुम सचमुच थे महान
(असंगघोष, समय को इतिहास लिखने दो, पेज ११-१२)
संप्रभु वर्ग अपनी इसी श्रेष्ठता बोध के कारण सदियों से खुद को पूज्य बनाता रहा है. एक आम आदमी भले ही न समझता हो पर आदि कवि जिन्हें हंसों के जोड़े को देखकर करुना पूरित होकर ‘रामायण’ लिख दिया था वही अपने समाज के अन्त्यजों की पीड़ा को क्यों नहीं समझ पाया. क्या कला और साहित्य के नाम पर उसके पूर्वजों का ढोंग सदियों से नही चल रहा है. क्या वह लगातार एक बड़े समुदाय को अपने बनाये हुए मूल्यों के हिसाब से गढ़ता बनाता रहा है. ‘तू मौन क्यों है?’ नामक अपनी कविता में असंग लिखते हैं कि :
तुम्हारे/ तमाम तरह के हथियार/मेरे बैरी क्यों हैं?/
तुमने हमारे पुरुखों का ही वध क्यों किया/इक्कीस बार धरा से/
क्षत्रियों का नाश करने वाला/ वह तेरा ही पुरुखा क्यों था?
(असंगघोष, समय को इतिहास लिखने दो, पेज २८)
सत्ता राजनीति की शक्ति प्राप्त करने के लिए दलित कई स्तरों पर संघर्ष कर रहे हैं. मार्क्सवादी ब्राह्मणवाद को दलित शक्ति पछाड़ कर पीछे छोड़ रही है. उन्हें न सवर्ण सहानुभूति की जरुरत है न मार्क्सवादी मानववाद की. सच तो यह है की पश्चिम की दिमागी गुलामी से चिंतित होना तो दूर भारत जैसे तीसरी दुनिया के लोग भूमंडलीकरण और ‘प्रगति’ ‘विकास’ के नाम का जाप कर रहे हैं बस. गाँधी, लोहिया, अम्बेदकर उनके लिए मात्र मुखौटे रह गए है. यदि एक सन्दर्भ वित्तीय पूंजी के भूमंडलीकरण का है तो दूसरा आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण का है. तीसरा सन्दर्भ बाजारवाद, विश्वगाँव, रोजगारों पर हमला और हड़पवाद आदि का विकराल रूप दिखाई देता है. आज दलित-आदिवासी साहित्य के पास ऐसे सैकड़ो युवा चेहरे हैं जो नित नया कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं. जिनका ह्रदय विशाल हुआ है और उनके साहित्यिक प्रतिमान दलित साहित्य के प्रतिमानों पर बिलकुल खरे उतर रहे हैं. असंग की कवितायें इसी परिवेश के भीतर प्रतिरोध रचती कवितायें हैं. ‘आ मेरे साथ बैठ’ कविता में निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ की छाया दिखाई देती है. पर वहां श्रम अनुभवजन्य नहीं है वहां सहानुभूति की छाया लेकर रचनाकार कविता में उतरता है पर असंग घोष की कविता ‘आ मेरे साथ बैठ’ में कवि का अनुभव अपने जीवन का विदग्ध अनुभव है. यहाँ अनुभूति अपने भोगे की चरम पराकाष्ठा के रूप में उभरती है. कवि लिखता है कि :
तू/ आ मेरे साथ बैठ/ बीड़ी पी/फेफड़े जला/ घन उठा/
पत्थर तोड़/ पसीना बहा/ हथौड़ा छेनी पकड़/ पत्थर तराश/
बना खजुराहो की मैथुनरत मूर्तियाँ/ अथवा प्रेम का प्रतीक ताजमहल/ और अपने हाथ कटा
(असंगघोष, समय को इतिहास लिखने दो, पेज ३६ )
भारत स्वयं को सोने की चिड़िया बताता रहा है. वह देश जिसकी आम जनता हजारो सालों तक शिक्षा से वंचित रही हो वह देश सोने की चिड़िया कैसे हो सकता है. वह बहुजन जनता जिसे अपने जीवन के मूलभूत अधिकार ही नहीं मिले वह सोने की चिड़िया होने का ख्वाब ही देख सकता है.
‘लम्पट’ नामक अपनी कविता में लिखते हैं कि :
गलाफाड़ कर/तुम्हीं कहते रहे हो/ हमारे संस्कार/
हमें बनाते हैं महान/और इन संस्कारों से ही/
यह महादेश विश्वगुरु बना है /लेकिन/ जरा विस्तार से बताओगे/
तुम्हारा कौन सा संस्कार/ तुम्हें बनाता है विश्वगुरु/ लम्पट कहीं के........
(असंगघोष, समय को इतिहास लिखने दो, पेज ४८)
उनकी ‘घर’ कविता प्रकृति और उनके अन्य जीवों के साथ साहचर्य की कविता है जो दुनिया के बहुत सारे संसाधनों को जोड़कर अपना घर बनाती है. वह घर जो सबके सपने में आता है पर नसीब किसी किसी को होता है. यहाँ कवि ने गौरैया के जीवन संघर्ष का जो ताना बाना चुना है वह बहुत ही संवेदनशील धरातल पर उभरकर आता है. कवि लिखता है कि :
गौरैया ने घर बनाया था/ मेरे घर के बरामदे में/
जहाँ डायनिंग टेबल के/ ऊपर ट्यूबलाईट लगी है/
वहां आने जाने लगी बार-बार वह/ उसने थोड़े ही देर में रखे/
कुछ घास के तिनके/ ट्यूब लाईट की /
रॉड और चाक / दोनों के ऊपर बेतरतीब.
यहाँ कवि आधुनिक विकास के उन जगहों को पहचानता है जो अपने विकास के बड़प्पन पर इतराए घूमते हैं पर दुनिया के वे जीव को आधुनिक जीवन में स्वयं के लिए संघर्ष कर रहे हैं वे उसी तरह से घोसला बना लेते हैं जैसे महानगरों में रहने वाले दलित दमित वर्ग के लोग अपना जीवन यापन करते हैं. घर जीवन का अंतिम पायदान नहीं है. आदमी अपना बसेरा बसाता है और समय पूरा करके एक दूसरी दुनिया में प्रस्थान कर जाता है. कवि लिखता है :
कल से/ ट्यूबलाईट की/ रॉड और चाक/
दोनों के ऊपर/ बने इस घर में / कोई नहीं आया है/
न नर न मादा न नन्हा सुनाई नहीं देती अब/
चीची की आवाज
(असंगघोष, समय को इतिहास लिखने दो, पेज ६४)
समीक्षक :
डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय
चंदौती मोड़, विनोबा नगर, गया
बिहार – 823004
मो. +91-8092330929/8863093492/9430005835
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें