गुरुवार, 2 मार्च 2017
दलित अस्मिता की कवितायें
डॉ.
कर्मानंद आर्य की कवितायेँ
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डॉ. कर्मानंद आर्य
जन्मतिथि : 15/05/1984
पिता : श्री सहदेव राज, माता :
श्रीमती सुगना देवी
स्थाई पता : ग्राम-छपिया, पोस्ट-गोविन्दपारा,
जनपद-बस्ती, उत्तरप्रदेश-272131
शिक्षा : एम.ए-हिंदी, पी-एच.डी.
(हिंदी, गुरुकुल
कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार),
यूजीसी-नेट-जेआरएफ
सम्प्रति : दक्षिण बिहार केन्द्रीय
विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में
सहायक प्राध्यापक
विशेषज्ञता/अभिरुचि : भारतीय
काव्यशास्त्र,
समकालीन कविता, कथासाहित्य, दलित-स्त्री-आदिवासी लेखन, साहित्य की वैचारिकी, प्रयोजनमूलक हिंदी में गहरी अभिरुचि.
पत्र /पत्रिकाओं में प्रकाशन : शतदल, साहित्य
अमृत, आजकल, स्कैनर, दोआबा, दलित अस्मिता, वंचित जनता, कथाक्रम, निरुप्रह, परिचय, प्रभात
खबर, भास्कर, जनसंदेश टाइम्स, रेत पथ, तलाश, स्त्रीकाल, अंतिम जन, गुरुकुल
पत्रिका, निश्रेयस, सेतु, निःशब्द, शब्द सरिता, मिलिंद, शब्द सरोकार, स्वस्ति
पन्थाः आदि पत्रिकाओं में प्रकाशन, अपने हिंदी ब्लॉग www.uttalhawa.blogspot.com पर लेख, कविता का निरंतर प्रकाशन
शोध-पत्र : हिंदी भाषा और
साहित्य की बीस से अधिक पुस्तकों के लिए अध्याय लेखन, विभिन्न अस्मितामूलक संगोष्ठियों, सेमिनारों में विशेषज्ञ वक्ता के रूप में आमंत्रित
पुस्तक प्रकाशन : ‘अयोध्या और
मगहर के बीच’ कविता संग्रह, दीपक अरोड़ा पांडुलिपि प्रकाशन योजना के तहत प्रकाशित
संपर्क : +91-80923-30929/943000-5835/
88630-93492
काठमांडू का दिल
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लड़कियां जो सस्ता
सामान बेचकर
लोगों को लुभाती हैं
लड़कियां जो जहाजी
बेड़े पर चढ़ने से पहले
लड़कपन का शिकार हो
जाती हैं
उन्हीं को कहते हैं
काठमांडू का दिल
पहाड़ तो एक बहाना है
उससे भी कई गुना
शक्त है वहां की देह
उससे भी कहीं अधिक
सुन्दर हैं
देहों के पठार
और अबकी बार जब भी
जाना नेपाल
उसका बचपन जरुर देख आना
होटल में बर्तन धोते
किसी बच्चे से ज्यादा चमकदार हैं उनकी आँखें
नेपाल में आँखे
देखना
थाईलैंड नहीं
जो आवश्यकता से अधिक
गहरी और बेचैन हैं
फिर दिल्ली के एक
ऐसे इलाके में घूमने जाना
जिसे गौतम बुद्ध रोड
कहते हैं
जो कई हजार लोगों को
मुक्त करता है
उनके तनाव और बेचैनी
से
वहां ढूँढना वह लड़की
जो सस्ता सामान बेचकर
जहाज ले जाती है अपने
गाँव
मिलन
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पैरों
की धूल चढ़कर बैठ जाती है माथे पर
उसे
उतारता नहीं हूँ
तुमसे
प्यार है तो तुम्हारी धूल भी पसंद है मुझे
यानी
प्यार में सुखी होने के लिए
वह सब
करता हूँ जो पसंद भी नहीं
पुरुष
का अहंकार नहीं
यह
प्यार है
जिसमें
बन जाना होता है छोटा
झुक
जाना होता है जमीन तक
चलना
होता है लंगड़ाकर
गिरकर, और
गिरना होता है
यह
प्यार ही है
झुकता
हूँ, चलता हूँ, दौड़ता, हांफता हूँ
फिर गिर
पड़ता हूँ
गिरकर
होता हूँ सुखी
इसी
क्रम में चढ़ती है धूल, थकती हैं साँसें
कोई
पड़ाव नहीं आता
प्यार
के लिए
जाने
कितने बरस, जाने कितनी सदियाँ
बीत
चुकी हैं
दौड़ रहा
हूँ, भाग रहा हूँ
मिलन की
चाह है
अभी तक
आधा अधूरा है मिलन
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कविता की कचहरी में
हमारे लिखने से कई लोग
संदेह से भर गए हैं कि तुम लिखने कैसे लगे हो
कमजोर है तुम्हारी भाषा
मटमैले हैं तुम्हारे शब्द
अभी तो अक्षर ज्ञान लिया है तुमने
कैसे लिख सकते हो, तुम
सुनहरी सुबह, दशरथ मांझी के हौसले सी होती है
मौसम,
मेरी कॉम जैसा होता है
और मिज़ाज
फूलनदेवी सा
कैसे लिख सकते हो तुम कि तराई की औरतें
अपना देह बेचकर जहाज लाती हैं
भूख ईलाज है धनपशुओं के लिए
कैसे लिख सकते हो तुम
कैसे लिख सकते हो
सताए हुए लोग क्रांति का बीज बोते हैं
भूख से बिलखकर
कविता नहीं लिखी ग्वाले ने
जब बाजार में सजी कविता
वह नहीं था दूधिये का पैरोकार
कैसे लिख सकते हो तुम
परिंदे की उड़ान से बनी
लड़ते आदमी की देहें
बहुत घायल हैं
कैसे लिख सकते हो तुम
कविता हमारी पहचान है
इस इलाके में तुम कैसे ?
अनगढ़ है भाषा
टूटे हुए हैं शब्द
काँप रही है इनकी भंगिमा
माई बाप !
लिखने दीजिये हमें
अभी तो लिखनी है हमें अगली सदी की कविता
हम तैयार कर रहे हैं
संगीत की सुन्दरतम धुन
कला के मोहक रंग
कविता में चाहतों का इच्छित इतिहास
आदमी के आदमखोर होते जाने की पीड़ा
नगर से गाँवों की तरफ
लगातर बढ़ रही धुंध
हमें लिखने दीजिये पोथी
हमारी यही अनगढ़ता प्रतिमान बनेगी एक दिन
हमारी कविता में
(ये कवितायें पटना से प्रकाशित 'दोआबा' पत्रिका के अंक मार्च 2017 के अंक 21 में प्रकाशित हैं)
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