‘सफेद गुलाब और अन्य
कहानियाँ’ ‘सहज प्रकाशन’ मुजफ्फरनगर से प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार, कवि, आलोचक ‘हरपाल
सिंह अरुष’ की नई किताब है. हरपाल सिंह अरुष पिछले चार दशकों से सक्रिय साहित्य
सर्जना कर रहे हैं. ‘काले नंगे पाँव’ ‘धन्नो की चाची’ ‘जिन्दगी और रंग’ ‘कटघरे में
औरत’ ‘चंदन और थर्मोकोल’ के बाद यह उनका छठा कहानी संग्रह है. अभी तक
उनके पंद्रह से अधिक कविता संग्रह, आठ से अधिक उपन्यास और एक दर्जन से अधिक
संपादित और आलोचनात्मक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. साहित्यिक का यह विपुल लेखन
उनकी वैचारिकी का स्पष्ट प्रभाव पाठकों पर अब तक छोड़ चुका है.
प्रस्तुत कहानी
संग्रह में कुल आठ कहानियाँ संग्रहीत हैं. ये कहानियां है ‘और वह साधु बन गया, जॉन
ऑफ़ आर्क’ ‘आजकल चलता है’ ‘गाड़ी पर नाव ‘किरपाल सिंह की बैठक’ ‘सुमति जिन्दा है’
‘सूर्योदय की प्रतीक्षा’ और ‘सफेद गुलाब’. विषय की विविधता के आधार पर अगर हम
कहानियों के विश्लेष्ण करें तो पायेंगे कि सभी कहानियों का धरातल एक दूसरे से
भिन्नता लिए हुए है. अलग मुहावरे और अलग कहन की ये कहानियाँ भारतीय ग्रामीण जीवन
के यथार्थ को धरातल पर प्रस्तुत करती हैं. और हरपाल सिंह अरुष जिस जादुई भाषा का
इस्तेमाल अपनी कहानियों में करते हैं वह सहज ही उदयप्रकाश जैसे कहानीकार की याद
दिला देता है. हिंदी पर अभी तक पूर्वांचल के पण्डितों का प्रभाव दिखाई देता है.जहाँ
खड़ी बोली का उद्भव और विकास हुआ वहां के साहित्यकारों को समुचित जगह नहीं मिल पाई
है.
पश्चिमी लेखकों को
अँगुलियों पर सहज गिना जा सकता है पर जिस भाषा और कहन को लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकि
हिंदी में स्वीकृत हुए उसी कहन और भाषा के साथ अगर कोई कथाकार और दिखाई देता है तो
वह हैं हरपाल सिंह अरुष. बहुत छोटे-छोटे वाक्य विन्यास में जिस सहजता से वे लोक
जीवन और जनमन को प्रस्तुत करते हैं वह हिंदी साहित्य में दुर्लभ है. हिंदी में
रेणु ने जिस हिंदी के ठाठ को ‘तीसरी कसम’ ‘लालपान की बेगम’ ‘मैला आँचल’ में देशज
भाषा का रंग और कहन अगर देखना पढना हो तो हमें हरपाल सिंह अरुष तक जरुर आना चाहिए.
हरपाल सिंह अरुष
सामाजिक समरसता के रचनाकार हैं. वे कहीं भी उग्र नहीं होते पर चुपके से वह सब कह
जाते हैं जो उन्हें कहना होता है. वे पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के जिस भूभाग से आते
हैं वहां की भाषा को कुछ लोगों ने लट्ठमार भाषा का नाम दिया है पर भाषा का जो उदात्त
रूप हमें ‘सफ़ेद गुलाब और अन्य कहानियाँ, में दिखाई देता है वह हमें हिंदी की
समृद्धि को ही इंगित करता है. संग्रह में संकलित पहली ही कहानी ‘और वह साधु बन गया’
भारतीय परिवारों के छल, छद्म, संपत्ति की भूख, लालच और स्वार्थ परता को हमारे
सामने प्रस्तुत करती है. भारत की आत्मा गांवों में बसती है पर वही गाँव आज कितने
बदले हुए हैं उसकी एक मिशाल मात्र है यह कहानी. कहानी के पहले भाग में
सुरेन्द्रनाथ के बाबा बन जाने की कहानी को नाटकीय अंदाज में कहानीकार ने पाठकों के
सामने रखा है.
आज के बाबा जहाँ टीवी
पर बदनाम हो रहे हैं वहीं पर बाबा सुरेन्द्रनाथ का व्यक्तिव बताते हुए हरपाल अरुष
लिखते हैं कि ‘बाकी न आग, न तमाखू, न चिलम. न ऐसे सुलफैया यार कि दम लगाये खिसके.
न सट्टा बताना न दडा. समझो न कि गंगादास न जमनादास. न गोरखपंथी न कबीरपंथी. भीख
माँगना. सुखी रहना’. (और वह साधु बन गया, पेज 10) चार भाइयों में सबसे छोटा अनुज. यह
कहानी सुरेन्द्रपाल के सुरेन्द्रनाथ में रूपांतरण की कहानी है. जरुरी नहीं है जो
आपको रँगे हुए कपड़े में दिख रहा हो साधुई बचपन से उसके भीतर कुंलाचे मारती हो.
संभव है वह परिस्थितियों की नदी में गोता लगाता हुआ यहाँ तक पहुँचा हो. जमीन के
बँटवारे में भाई के हिस्से की जमीन हड़पने के लिए लुगाइयाँ क्या-क्या पैंतरे फेकती
हैं अगर समाज की इस विडंबना को देखना हो तो इस कहानी को जरुर पढ़ा जाना चाहिए.
हरपाल सिंह लिखते हैं – “किसानों के संयुक्त परिवार की विशेषता. पिता को अपदस्थ
किया जाता है. भाइयों में से शक्तिशाली या चालाक या फिर दोनों गुणों से संपन्न
सारी व्यवस्था अपने हाथ में ले लेता है. पिता शाह आलम की तरह’. (और वह साधु बन
गया, पेज 10)
लड़कियों की घटती दर
को कहानीकार ने गाँव बड़ी सावधानी से सबके सामने रखता है. सुरेन्द्रनाथ का फौजी भाई
जब पीढ़ियों से कमाई इज्जत की नाक पर आरी फिराकर जब पहाड़ी औरत लाता है तो चारो तरफ
हंगामा पसर जाता है. हालाँकि कहानीकार लिखता है कि ऐसा तो तब, जब दस पन्द्रह औरतें
तो बंगाल, बिहार, उड़ीसा से लाई हुई हैं. कैसा है हमारे समाज में लड़कियों की घटती
दरों पर कोई कुछ बोलता नहीं है. यह शादियाँ अपेक्षाकृत कम खर्चीली हैं. पर वही
बेटियां जो बाहर से ब्याहकर आती हैं कैसे घर परिवार को जीवन का अंग बना लेती हैं
कहानी इसके बारे में विस्तार से बताती है. फौज की जिन्दगी और उससे जुड़े हुए खतरे
भी कहानी को प्रासंगिक बनाते हैं. कहानी का अंत सुरेन्द्र के घर छोड़ देने से होता
है जहाँ उसे लगता है कि सब मायाचार है और अगर इस मायाचार से पार उतरना है तो एकाकी
होना अधिक अच्छा रहेगा. कहानीकार सहज ही लिखता है- ‘जीवन-संघर्ष से डरा हुआ आदमी
संघर्षहीन जीवन खोजता है.
संकलन की दूसरी कहानी ‘जॉन ऑफ़ आर्क’ भारतीय समाज
की पितृसत्ता और सामंतवाद के बहाने कई मुद्दों को एक साथ उकेरने वाली कहानी है. यह
कहानी सुलेखा और चंद्रप्रकाश के बहाने भारतीय समाज में स्त्रियों के लिए कठिन होते
अवसर और उनकी कार्यक्षमता को प्रभावित करके वाले कारको, समाज का जातीय ढ़ांचा और
प्रतिरोध में समाज के सभी तबकों के साथ को दर्शाने वाली कहानी है. स्त्री मात्र
देह नहीं है अपितु वह एक जिजीविषा का नाम है. सुलेखा का घर देर से पहुंचना, उससे
भी अधिक दो पराये मर्दों के साथ घर वापसी पति को संदेह से भर देता है. स्त्री को
बाहर और भीतर दोनों ही पितृसत्ताओं से समान रूप से लड़ना है. जिस तरह के काम आज
कामकाजी शिक्षकों पर लाद दिए जाते हैं उनके निपटान में होने वाली दिक्कतों की तरफ
इसारा करती है यह कहानी. अरुष जी की अन्य कहानियों की तरह इस कहानी के भीतर एक और
कहानी है जो सुलेखा को ईमानदार पिता की मृत्यु के बाद विरासत में मिलने की संभावना
है. भ्रष्टाचार से समझौता न करने वाले परिवार को अंततः अधिकारियों और कर्मचारियों
को रिश्वत खिलानी पड़ती है उस पर भी तुर्रा कि नौकरी के बाद भी भेड़िये उसका पीछा
नहीं छोड़ते हैं. इस कहानी के माध्यम से हरपाल सिंह अरुष दलित साहित्य लेखन में आये
दोहरेपन को सुलेखा के शब्दों में इस तरह से रेखांकित करते हैं –
‘जिस दलित आन्दोलन
से जुड़े हो, वह सही दिशा में नहीं जा रहा. मानती हूँ, आप कवितायें लिखने का शौक रखते
हो, लिखो. अध्ययन करते हो करो, पत्नी और भेड़िया जैसी पुस्तक को बिलकुल मत छुओं.
उसका लेखक सनक गया लगता है’. (जॉन ऑफ़ आर्क, पेज 31). कहानी समाज में कामकाजी
स्त्री के कार्य पर उत्पीड़न जैसी पितृसत्ता, सामंतवाद, भ्रष्टाचार आदि समस्याओं पर
भी प्रकाश डालती है.
‘आजकल सब चलता’
कहानी में दलितों के आर्थिक उभार को कहानीकार ने उभारा है. झोपड़पट्टी से उभरने
वाली यह कहानी रतनदीप, जोगेन्दर, और राजलक्ष्मी के बहाने अपराध कथा, मर्डर,
ठेकेदारी और आत्मीयता को प्रमुखता देने वाली कहानी है. धन के साथ कैसे सुन्दर
स्त्री भी हाथ आ जाती है यह वृतांत है यह कहानी. कहानी झोपड़पट्टी में रहने वाले
लोगों का एक खाका खींचती है कि कैसे किसी व्यक्ति का निर्माण संभव हो पाता है.
प्रेम, शादी और धोखा की मिस्ट्री है यह कहानी.
‘गाड़ी पर नाव’ बदलते
जमाने की कहानी है. जबसे दलितों वंचितों में लोग अधिकारी होने लग गए हैं तभी से
अड़ियल गाँव के सामंत भी उनको अदब ठोंकने के साथ साथ उनसे रिश्ता बनाने में लग गए
हैं. हालाँकि यह रिश्ता व्यक्तिगत स्वार्थों पर जाकर खत्म हो जाता है. दलित हरिया
और रमेसरी के यहाँ ठाकुर रघुराज का आकर अपने छोटे बेटे के लिए नौकरी की शिफारिश
करवाना बदलते समाज का आइना है. उसके लिए वह कुछ भी कर जाने को तैयार है. भोले भाले
दलितों का सहारा लेकर वे पद और प्रतिष्ठा तक पहुँच रहे हैं. जो रघुराज जनम-जनम
शिकारी रहा वह आज किस लालच में भीगी बिल्ली बना हुआ है. जो सवर्ण कभी दलितों का
छुआ हुआ खाना नहीं खाते थे वे आज अपने स्वार्थ में कितना बदल गए हैं. कुलदीप का
दिआईजी होना और उसका सवर्णों द्वारा फायदा उठाना ही कहानीकार का ध्येय नहीं अपितु
सामाजिक संरचना के बदलाओं को दिखाना कहानीकार का उद्देश्य है.
‘सुमति जिन्दा है’
इस संकलन की अपेक्षाकृत कमजोर कहानी है. यह पाठकों के समक्ष एक यूटोपिया को आदर्श
बनाकर एक लड़की ‘सुमति’ के लौट आने की कहानी है. कहानीकार ने सुमति की अनमेल शादी,
उसका घर से भागकर अपने पसंद के लड़के के साथ दस वर्ष तक ‘सहजीवन’ दहेज़ उत्पीड़न और
लड़की के झूठे मुकदमें समेत कहानीकार ने अंततः प्रेमचंद युगीन कहानियों के ह्रदय
परिवर्तन को इस कहानी में जगह दी है. सुमति अंततः अपने पूर्व पति और उसके कुनबे को
जेल और फांसी से बचाना और फिर सामंती समाज द्वारा उसे स्वीकार कर लेने की कथा को
आज के युग की कहानी कहना मुश्किल होगा. यह कहानी ‘बाबा भारती’ के ‘हार की जीत’ से
प्रभावित दिखाई देती है.
इस संग्रह की अंतिम
कहानी ‘सफेद गुलाब’ बड़े फलक की कहानी है. इसका कथानक 1942 के दूसरे विश्वयुद्ध के
बीच नरसंहारों और जर्मनी पर फ्रांस के बढ़ते शिकंजे को दर्शाती है. दिन ब दिन
जर्मनी विश्वविजेता बनता जा रहा है. कहानीकार लिखता है कि यहूदियों को ख़त्म करके
हिटलर चंगेज खां को पीछे छोड़ देगा. अस्मिता और वर्चस्व के बीच एक फूल उगाने वाले
किसान के खेत में एक सफ़ेद गुलाब उगता है जिसे वह ऊँचे दाम पर बेचनाचाहता है. अंततः
वह फूल सेना का एक जनरल खरीदता है जो फ्युहरार के आदेश को मानने से इनकार कर देता
है और दुनिया को सफेद गुलाब के माध्यम से शान्ति का सन्देश देता है. विदेशी
पृष्ठभूमि पर यह एक व्यापक धरातल की कहानी है.
पुस्तक का नाम : सफेद गुलाब और अन्य कहानियाँ
प्रकाशक : सहज प्रकाशन, गांधी कालोनी, मुजफ्फरनगर
पृष्ठ संख्या : 136
मूल्य : 250 रूपये
*डॉ.
कर्मानंद आर्य
सहायक
प्राध्यापक, भारतीय भाषा केंद्र
दक्षिण
बिहार केन्द्रीय विवि, गया
बिहार -
823001
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