सोमवार, 21 मई 2018

अस्मिता, अस्तित्व, सेक्स और थर्ड जेंडर की कहानियाँ / डॉ. कर्मानंद आर्य


जब महिलाओं ने अपनी सामाजिक भूमिका को लेकर सोचना-विचारना आरंभ कियावहीं से स्त्री आंदोलन, स्त्री विमर्श और स्त्री अस्मिता जैसे संदर्भों पर बहस शुरु हुई. यही हाल दलित और आदिवासी आन्दोलन का भी रहा. स्त्री आंदोलन में जहाँ एक ओर स्त्रियों की भूमिका को सामने लाने का प्रयास हुआ और उनकी सामाजिक, राजनैतिक भागीदारी को स्वीकार किया तो वहीं स्त्री विमर्श ने स्त्री को बहस के केंद्र में लाने का प्रयास किया. विमर्श का यह सिलसिला हर वर्ग और समुदाय से उठा. जिसमें एक ओर समाज में उसकी दोयम दर्जे की स्थिति को बताया तो दूसरी ओर उससे जुड़े मुद्दों को बहस के जरिए केंद्र में रखा गया. दलित-आदिवासी-स्त्री विमर्श के इस बिंदु को अगर हम प्रस्थान बिंदु मान लें तो इस विमर्श के आगे जो कुछ घटित हुआ वह काफी रोचक है. किसी एक विमर्श के खड़े होने में उसके समानांतर दूसरे विमर्श का होना उसके बढ़ने के लिए खाद-पानी का काम करता है.
एक बड़ा विमर्श उभरता है जेंडर का, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और अस्मिता जैसे प्रश्नों को उठाया जाता है. जेंडर का प्रश्न अस्मिता के प्रश्न के भीतर से ही उभरता है. हमारे समाज में सदियों से जेंडर शब्द का संबंध भाषा में लिंग अर्थात स्त्रीलिंग व पुल्लिंग से रहा है. अन्य भाषाओं में जेंडर विभाजन की इस प्रक्रिया के तीन रूप स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और न्यूट्रल जेंडर का प्रयोग मिलता है, तो हिंदी में स्त्रीलिंग व पुल्लिंग केवल दो रूपों का प्रयोग मिलता है वहीं वैदिक संस्कृत में देखते हैं तो एक तीसरा लिंग नपुंसकलिंग का प्रयोग भी भाषा में देखा जा सकता है. भाषा का यही प्रयोग मनुष्य के विभाजन का भी सहायक हुआ. पहचान की राजनीति के साथ इसने अब विमर्श का रूप ले लिया है. हिंदी में भी इस प्रकार के साहित्य की अब कोई कमी नहीं है. थर्ड जेंडर को लेकर अब लोग खुलकर बात करने लगे हैं.
जेंडर स्त्री और पुरुष की सामाजिक संरचना पर सवाल खड़ा कर समाज में बहस की मांग करता है. जेंडर का संबंध एक ओर पहचान से है तो दूसरी ओर सामाजिक विकास की प्रक्रिया के तहत स्त्री-पुरुष की भूमिका से. जहाँ मनुष्य और मनुष्य के बीच अंतर किया जाता है और एक स्त्री और दूसरे को पुरुष कहा जाता है वहीं कहीं पर जेंडर का प्रश्न भी हमारे सामने उभरता है. इन स्त्री और पुरुषों के साथ साथ एक तीसरी सत्ता भी मौजूद है जो न तो पूरी तरह पुरुष है और न ही पूरी तरह से स्त्री. इन दिनों इनके लिए थर्ड जेंडर या अपूर्ण लिंगी या हिजड़ा शब्द का प्रयोग प्रचलन में है.
थर्ड जेंडर अभी तक साहित्य और समाज में कहीं भी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं था. वह मांगकर, नाच-गाकर या कहीं कुछ काम करके अपना जीवन यापन करता रहा है. आज भी उसको सामान्य नागरिक के अधिकार नहीं मिल पाए हैं. वह आज भी समाज में अनचीन्हा है. उनके जीवन और साहित्य को फलक तक लाने में कई सुधी विद्वानों का बड़ा हाथ है जिसमें एक नाम डॉ. फिरोज अहमद का उभरता है. अपनी पत्रिका और सामाजिक सन्दर्भों में वे थर्ड जेंडर से जुड़े हुए मुद्दे ठीक से उठा रहे हैं. हम यहाँ उनकी संपादित पुस्तक –थर्ड जेंडर: हिंदी कहानियाँ में से कुछ चुनिन्दा कहानियों पर यहाँ बात करेंगे.
थर्ड जेंडर का सम्बन्ध कुछ लोग अवैध यौन शोषण से जोड़ते रहे हैं. ब्रह्मचर्य और सेक्स को निषेधात्म मानने वाले इस देश में सबसे ज्यादा अगर कोई चीज बिकती है तो वह है यौनिकता. हिंदी की हर बड़ी पत्रिका साल में अपने एक दो अंक इस तरह के कंटेंट के लिए अवश्य रखती हैं. सॉफ्ट पोर्न परोसने वाली साइटों और ब्लागों की तो आज भरमार है. यह यौनिकता अगर स्त्री के लिए हो तो पुरुष किसी भी हद तक जा सकता है. जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों की समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गई है. शरीर का स्वरूप जितना प्रकृतिसे निर्धारित हुआ है उतना ही संस्कृतिसे भी. थर्ड जेंडर भी इसी सोच का शिकार है. इस प्रकार उसकी अधीनता, जैविक असमानता से नहीं पैदा होती है बल्कि यह ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की देन है. पुरुष थर्ड जेंडर में स्त्री के उन्हीं गुणों को खोजने का भरसक प्रयास करता है.  
उसने इसी उद्देश्य के लिए बाकायदा बड़े-बड़े बाजारों का गठन किया जो देह मंडी के रूप में देश के भिन्न हिस्सों में आज भी मौजूद हैं. उसने इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यौन दासियों का निर्माण किया और उन्हें भोग्या बनाकर छोड़ दिया. स्त्री-तो स्त्री है स्त्री की तरह दिखने वाली हिजड़ा स्त्रियों को पुरुषों ने इसी मंडी का हिस्सा बना डाला. वह उससे भी वही सब अपेक्षा करने लगा जो वह एक स्त्री से करता रहा है. उसने एक स्त्री की ही तरह थर्ड जेंडर को ऑब्जेक्ट का रूप दे दिया. मजबूरन उन्हें भी यौन दासी और अनाचार का हिस्सा जाने अनजाने बन जाना पड़ा. कई सर्वे रिपोर्ट कहती हैं कि अभी तक बहुत बड़ा तृतीय लिंगी समुदाय मुख्यधारा से कटा हुआ नाच-गाने और यौन कर्म से जुडा हुआ है. उनका जीवन नरक बना हुआ है.
डॉ. एम. फिरोज खान के सम्पादन में निकली ‘थर्ड जेंडर: हिंदी कहानियाँ’ में संग्रहीत कालजयी कहानीकार शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘बिंदा महाराज’ नई कहानी के दौर की बहुपठित कहानी है. यह महज एक कहानी नहीं अपितु एक ऐसा आख्यान है जो हमारी आँखों के रास्ते ह्रदय में उतरता चला जाता है. यह कहानी जैविक संरचनाओं से अगल मनुष्य होने की ऐसी कहानी है जो समाज में मनुष्य होने की शर्तों के साथ जीना पसंद करता है. यह कैसा समाज है जो अपने ही समाज के एक अभिन्न हिस्से हो सदियों से नकारता रहा है और उसके लिए इतनी घिन और असम्मान की बातें समाज में है. बिंदा महाराज महज एक चरित्र नहीं है जो सदियों की एक ऐसी जटिल संवेदना है जो न्याय और समानता की मांग के साथ हमारे बीच में है. उसके चारो तरफ एक रुग्णता का माहौल भर है. कहानी का पहला ही हिस्सा एक हिजड़े के जीवन की त्रासद कथा को हमारे सामने लाकर पटक देता है- ‘मच्छरों से भरे, भीगी-भीगी दीवार वाले घर में चारपाई पर लेटे-लेटे बिंदा महराज का दिल डूबने लगा था, बतख की तरह उजली धूप देखकर उसे बड़ी राहत मिली. उसने हाथ से धूप छुआ, सिर को छूकर सोचा कि आज बेगानी लगने वाली यह देह उसी की है[1]’. यह भारत में अधेड़ होते किसी भी हिजड़े का आख्यान हो सकता है. शिव प्रसाद सिंह उसके जीवन के इन्हीं विडम्बनाओं की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि – बिंदा महराज टाट का एक टुकड़ा बिछाकर जब अपने मकान के सामने चबूतरे पर बैठा तो एक पहर दिन चढ़ आया था’.[2]
वृद्धावस्था की यह पीड़ा केवल बिंदा महराज की नहीं है. जवानी के दिनों में उसे पूछने वाले बहुत लोग मिलते हैं. जवानी के दिनों की ‘बिन्दोरानी’ आज जीवन के इस उत्तर अवस्था में इतना हताश और निराश क्यों है? जो सजना-संवरना किसी जमाने में उसका शौक हुआ करता था आज जब उसी तरह से सज कर आया तो उसे खुद पर ही हंसी आ गई. आज उसका अपना कोई नहीं है. वह अगर सामान्य स्त्री या पुरुष होता तो उसका अपना भी घर परिवार होता. जीवन का यह उत्तरार्ध उसके लिए निराशा भरा है. माँ बाप तो प्राणहीन जन्माकर कब के चले गए थे. मर्द होता तो पुरुषत्व का शासन होता, पत्नी और परिवार सहारे के रूप में उसके साथ होते. पर वह तो सृष्टि का अतृप्त कण ही रह गया.
अधूरे लिंग वितान के कारण उसे उसके चचेरे भाई ने भी छोड़ दिया. उसके जीवन से दीपू मिसिर का ढाई साल का बालक भी जाता रहा और आखिर तक विपत्तियों ने बिंदा महराज का साथ नहीं छोड़ा. बिंदा महराज को अपशकुन तक मान लिया गया. शरीर एक ऑब्जेक्टहै जिसे समाज, राजनीति व सत्ता अपने अनुसार बनाती व प्रशिक्षित करती है. जैसे पुरुष हमेशा से समाज में अपने लिए अधिक स्पेसचाहता है वहीं स्त्री थोड़े से ही में खुद को संतुष्ट पाती है क्योंकि उसे ऐसी सामाजिक निर्मिती दी जाती है की वह बड़ा न सोच सके. बिंदा महराज की सोच भी सामाजिक दायरे में यहीं आकर टिक जाती है.
सामाजिक विडम्बनाओं की एक बड़ी झलक इसी कहानी के ‘घुरविनवा’ नामक पात्र में दिखाई देती है. घुरविनवा बिंदा महराज को प्यार करता है. दोनों की उम्र में काफी अंतर है. जीवन के ऐसे पड़ाव में उस प्रेम का क्या महत्व? कहानी का पात्र बिंदा महराज घुरविनवा की बात सुनकर हंस पड़ता है-अरे वाह रे छोकरे, तू मुझसे प्रेम करता है, हीं, हीं, हीं,हीं,...... हालाँकि घुरविनवा एक दलित पात्र है जिससे समाज का अन्त्यज बिंदा महराज भी तिरस्कृत शब्द का प्रयोग इस कहानी में करता है. बिंदा महराज जोर से चिल्लाता है. इसका दीदा न देखो. दुनिया भर का रोंघट पोतकर देह में सटा आता है. हालाँकि यह घुरविनवा उन्हें अंत में भी सहारा देना चाहता है पर दूध का जला ‘बिंदा महराज’ अंततः उस अन्त्यज रौंघट को भी दुत्कार देता है.
उसके जीवन में चुहल का रंग भरने वाले दीपू मिसिर का प्रभाव भी उसके जीवन से जाता रहा है.[3] वंचित संवेदना के पात्र ‘बिंदा महराज’ की पूरी कोशिश रहती है कि वे उस सम्पूर्ण मनुष्य की तरह प्यार पायें. पर हाय रे विडंबना. प्रेम जैसे स्वाभाविक गुण के लिए, ममत्व के लिए उन्हें डायन जैसे शब्द से नवाजा जाता है. वे भले ही समाज की नजर में न एक सम्पूर्ण पिता दिखाई देते हों न ही ममत्व भरी माँ, पर बचपन की किलकारियों को संबोधित करने का मन आखिर किस मनुष्य का नहीं होता?सामाजिक विडम्बनाओं की अपनी नियति है. तब क्या उससे आदमियत भी छीन ली जायेगी? एक अधूरे जीवन में प्रेम की एक लहर को तरसने वाले बिंदा महराज को हर जगह निराशा के ही दर्शन होते हैं. यह निराशा केवल बिंदा महराज की नहीं है अपितु ऐसे लाखों लोग हैं जिनका जीवन खोखला बांस हो चुका है. मनुष्य हैं इसलिए इच्छायें बाँझ नहीं है. उनके भीतर भी जीवन की आदिम आकांक्षा और जीवन राग है.   
समाज में श्रम विभाजन का आधार सेक्स है. जिसमें घर की जिम्मेदारी स्त्री की मानी गई तो बाहर पुरुष की. भले उसके पीछे के कारण उनकी शारीरिक व मानसिक स्थितियों को दिया गया. सच तो यही है की यह विभाजन जेंडर व सेक्स आधारित है. कहानी दीपू मिसिर के हवाले से लखनऊ के अंतिम नबाब वाजिद अली शाह द्वारा फिरंगियों से लड़ने की एक कथा का जिक्र भी है –एक बार वाजिद अली शाह के मंत्री ने सलाह दी-हुजूर, एक हिजड़ों की पलटन तैयार की जाए और फिरंगी से भिड़ा दिया जाए. मजा आ जाएगा. कितने मजबूत होते होंगे ये लोग, न औरत न मर्द, लड़का पैदा करना होता नहीं, देह कसी की कसी रह जाती है.’ वस्तुतः यहाँ इस कहानी  में कहानीकार द्वारा एक और कहानी की सर्जना यह बताती है कि हिजड़े कहीं से भी शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है. लेकिन समाज में उन्हें उनके जनखा रूप के लिए ही जाना जाता रहा है. बिंदा महराज का यह कथन उसके जीवन में जेंडर के प्रश्नों को कितनी सार्थकता से उठाता है- दुनिया के सारे रिश्ते और नाते केवल स्त्री और पुरुष से ही हैं....विपरीत लिंगों का आकर्षण, एक के दायरे की तमाम वस्तुएं दूसरे से ठीक उसी प्रकार सम्बद्ध. बिंदा महराज का दुनिया में कोई रिश्ता नहीं. हो भी कैसे, न तो वह मर्द है न औरत. व्रत-उपवास कथा पुराण के उत्सवों में नाच-गान से उपजी कमाई को राख बनाकर उसे क्या मिलता, पीड़ा-जलन. प्रसाद लेने तक भी तो वगी आते हैं हैं जिन्हें जिन्दगी में मीठी चीजें नसीब न होती.[4]’’
इसी संग्रह की दूसरी कहानी ‘खलीक अहमद बुआ’ जिसके कहानीकार राही मासूम रजा है, एक नितांत ही चरित्र प्रधान कहानी है. कहानीकार ने इस कहानी में दिखाया है कि प्रेम और सृजन अधिकार की मांग करते हैं और जब इन अधिकारों में जरा भी बिचलन होता है वह किसी की जान पर भी बन आती है. हालाँकि यह समाज के पुरुष और सामंतवादी प्रवृत्ति से ग्रसित एक ऐसी कहानी है जो अधिकार को प्रेम से ऊपर देखने की दृष्टि देती है. खलीक अहमद बुआ वैसे तो तीसरी सत्ता के प्रतिनिधि हैं और रुस्तम से जीजान से प्यार करते हैं. वे अपने प्रेम में किसी प्रकार की बाधा और रुकावट की आहट से भी घबरा जाते हैं. उनके भीतर अधिकार की ऐसी चेतना है जो अंततः उनके प्रेम की बलि तक लेकर चली जाती है. हालाँकि खलीक और रुस्तम में उम्र के अंतर का एक बड़ा चौराहा है जिसे वे जानते हुए स्वीकार करते हैं. खलीक और रुस्तम के बीच विपरीत लिंग का आकर्षण नहीं फिर भी वे पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे के साथ रहते हैं. बुआ हाजी बदरूलहक के यहाँ खाना बनाने की नौकर हैं. उनके चरित्र से पता चलता है कि वे –‘खलीक अहमद बुआ थे तो जनाने, पर क्या मर्दाना गालियाँ बका करते थे.....बड़ी वफादार बीवी थे थे खलीक अहमद बुआ’.[5]
      खलीक अहमद बुआ को अपने पति रुस्तम का रंडी पुखराज के घर जाना बहुत ही अखरता है. उनके भीतर का पत्नी भाव जगता है जो उन्हें अधिकार और कुंठा की हद तक ले जाता है. सामाजिक विडम्बनाओं में जब लोगों ने उनसे कहा कि –रुस्तम खां तो पुखराज के हो गए हैं. अब यहाँ क्यों पड़ी हो बुआ. उनकी याद सताती रहेगी. कहीं और चली जाओ.’ (पेज ३२). यही विडंबना उनके जीवन की फांस बन गया. उन्होंने चाकू से अंततः क्यों गोद दिया था इसका जबाब तो पुलिस भी नहीं दे पायी थी. खलीक अहमद बुआ की तो फांसी हो गई थी पर कहानीकार कहता है कि उसे शहर के बच्चों ने याद किया. और जैसा कि नियति होती है धीरे-धीरे करके लोग खलीक अहमद बुआ को भूलते गए...वस्तुतः यह कहानी प्रेम की पराकाष्ठा और अधिकार बोध के साथ कुंठित पराभव तक जाने वाली कहानी है. उसे रुस्तम खां पर भरोसा था. लेकिन जैसा ही वह उसका भरोसा तोड़ता है वे उसकी जान ले लेते हैं.
      इसी संग्रह में एसआर हरनोट की प्रसिद्ध कहानी ‘किन्नर’ नाम से है जो एक मिथक को तोड़ने वाली कहानी है. वह हिमाचल के उस किन्नर समुदाय की बात करता है जो हिंदी पट्टी में अभी के थर्ड जेंडर लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है. यह कहानी वहां के आदिवासी समुदाय के माध्यम से बताती है कि घोटुल जैसी प्रथाएं अपने समय की कितनी कारगार संस्थाएं थीं. आज के समाज में मुख्यधारा उसे संदेह की दृष्टि से देखता है. वस्तुतः किन्नौर का अपना पौराणिक और सामाजिक महत्व है. वह हमारी सामासिक संस्कृति का हिस्सा है. पुरानों में वर्णित गन्धर्व, किन्नर आदि देव संस्कृति के प्रतीक थे जिनका अपसंस्कृतिकरण करके किन्नर शब्द को हिजड़े के लिए रूढ़ कर दिया गया है. कहानी में कहानीकार यही मुख्य बात बताना चाहते हैं कि किसी ऐसे शब्द का प्रयोग प्रतिबंधित होना चाहिए जो किसी संस्कृति या समाज को अपमानित करता हो. कहानीकार एक ऐसी मानसिकता का विरोध करता है जो उसके समाज को एक गलत अर्थ-सन्दर्भ देती है. हम इस कहानी को थर्ड जेंडर की आंशिक कहानी कह सकते हैं पर इसके सन्दर्भ बहुत दूसरे हैं.
      कई मामलों में सलाम बिन रजाक की कहानी ‘बीच के लोग’ एक व्यंग्य प्रधान कहानी है जो कई अर्थ सन्दर्भों को जन्म देती है और जिसका फलक बहुत व्यापक है. सामान्य कहानक पर रची गई यह कहानी जहाँ दुनिया के सभी हिदों को एक होने के संकल्प की याद दिलाती है वहीं पर वह दुनिया को नरक बनाने वाली उन सत्ताओं के लिए भी प्रयोग की गई जो दुनिया को पीछे ले जाने और नपुंसकता के शिकार हैं. कहानी हिजड़ों के एक जुलुस से शुरू होती है जिसमें सब हिजड़े नारा लगा रहे हैं: सारी दुनिया के हिजड़े एक हैं!. कल संसार हिजड़ों का होगा. हमसे जो टकरायेगा, हम जैसा हो जाएगा.’[6]
इस कहानी में कमर में काठ की तलवारें लटकाए हुए लोग ऐसी भोंथरी मानसिकता के पात्र है जिनका जीवन हिजड़ों का जीवन है. जो कोई क्रांति नहीं कर सकते. एक पात्र कहता है- बड़ा बुरा युग है यार! लोग अपनी नपुंसकता को भुनाने की कला भी जान गए हैं[7]. यह कहानी समाज की अकर्मण्यता को दर्शाने वाली कहानी है. कथाकार यहाँ हिजड़ों का प्रयोग प्रतीक के रूप में करता है. जब यही हिजड़े संगठित होकर प्रयास करते हैं तो पुलिस, अधिकारी और अन्य गणमान्य लोग भी इनके सामने’ हिजड़ा’ नजर आते हैं. कहानीकार का मानना है कि अगर लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं हुआ तो वह दिन दूर नही जब सत्ता के सभी प्रतिष्ठानों में हिजड़ों का एक छत्र साम्राज्य होगा. समाज के हिजडेपन और नपुंसकता के कारण बहुत सारी विकृतियों का जन्म हो रहा है.
कहानीकार ने एक बड़ी बात का इशारा इस कहानी में किया है जो थर्ड जेंडर के प्रति हमें जागरूक भी करता है और संवेदनशील भी बनाता है. कहानी में पुलिस हिजड़ों को यह कहकर गिरफ्तार करने से मना कर देती है कि वे न हो पुरुष हैं और न ही स्त्रियाँ. पुलिस मन्युअल के अनुसार स्त्री लो स्त्री और पुरुष को पुरुष ही गिरफ्तार कर सकता है. पुलिस हिजड़ों को गिरफ्तार करने से मना कर देती है. यह तथ्य इशारा करता है कि हमें थर्ड जेंडर के प्रति संवेदनशील होने की अधिक जरूरत है. यह कहानी व्यंग्यात्मक लहजे में कामयाब कहानी है. यह कहानी हिजड़ा समुदाय की बहुत सारी गुत्थियों को सुलझाने वाली कहानी है और एक बात उनकी राजनितिक चेतना को लेकर भी है कि जब अस्मिताकामी लोग संगठित होकर प्रयास करते हैं तो बड़े से बड़ा काम का रास्ता निकलता है.
‘संझा’ कहानी किरण सिंह की एक माइल्सटोन कहानी है. यह एक ऐसे समाज का मनोंविज्ञान है जिसमें किसी बच्चे का हिजड़ा होना समाज स्वीकार नहीं कर पाता. एक परिवार के लिए यह सबसे बड़ी त्रासदी होती है कि उसके घर में उसकी संतान सामान्य नहीं अपितु विशेष के रूप में आई है. यह कहानी समाज के उस मनोवैज्ञानिक सोच को अंततः उघाड़कर रख देती है जिसमें किसी के नैसर्गिक गुण को छुपाने की कोशिश की जाती है. कहानीकार कहानी में कहता है कि ‘इस धरती के बासिंदों ने तुम्हारी जाति के लिए नरक की व्यवस्था की है. उस नरक के लोग पहाड़ी पर तुम्हारे जन्म के सात साल बाद आकर बस गए हैं. वे लोग कपड़ा उठाकर नाचते हैं और भीख मांगते हैं. लोग उन्हें गालियाँ देते हैं और थूकते हैं, उनके मुंह पर दरवाजा बंद कर लेते हैं, उन्हें घेरकर मारते हैं. ....तुम्हारे बारे में पता लग गया तो वे लोग तुम्हें भी छीनने आ जायेंगे’.[8]
इस कहानी का विस्तार बहुत व्यापक है और फलक बहुत विस्तृत. किन्नर के रूप में जन्म लेने के कारण भारतीय परिवेश में जिस तरह का सामाजिक लांछन और नारकीय जीवन जीना पड़ता है उसी की कथा-व्यथा है यह कहानी. यह चौगांव के एक ऐसे वैद्य की कहानी है जो दुनिया को ठीक करता आ रहा है और जीवन के उत्तरार्ध में जाने कितने नपुंसकों को पुंसवान बना चुका है. अपनी मृत्यु के बाद उसका पूरा ध्यान अपनी संतान के लिए रहता है कि कैसे उसे मुख्यधारा का हिस्सा बनाया जाय. यही चिंता उसे दिन रात खाए जाती है. संझा सोचती है ‘-कहीं ठीक होकर, कनाई उसी पर मर्दानगी दिखाने को उतावला हुआ तो!तो?वह अपने को बचाने के लिए उसे ऐसे ही छोड़ दे’[9] उसका स्वयं का अपूर्ण लिंग होना उसे हमेशा एक भय में रखता है.
कहानी में कानाई का पिता ललिता महराज बदले की भावना में भरकर कहता है – ऐसा चिग्घाड़ रही है जैसे मेरे घर में रेतने ले जाई जा रही हो. आवाज देखो इसकी मर्दाना.....[10]
फिर बूढा ललिता एक बार फिर सोचता है : ‘आज मैंने बूढ़े वैद्य के हाथ से संझा को छीन लिया. आज वह अकेली है. आज मेरे खेल का चरम है. आज कनाई संझा के वस्त्र उतारेगा. फिर उसे कपड़े पहनने का मुका नहीं देगा. संझा गिदगिड़ाएगी, बाप की इज्जत की भीख मांगेगी. उसी हालत में बालों से खींचता, कूटता लतियाता हुआ, दाहिनी पहाड़ी से उन लोगों की ओर धकेल देगा. जिस औरत का रोंया-रोंया रो रहा हो उस औरत का नृत्य देखा है कभी, एक अलग मजा मिलता है. कोठे हर शहर में होते हैं, बीवियां होती हैं, प्रेमिकाएं होती हैं फिर भी बलात्कार होते हैं, इसी मजे के लिए’[11]
इस कहानी का नामकरण ‘संझा’ बहुत प्रतीकात्मक है. यह वही संधि-बेला है जहाँ पर दिन और रात का मिलन होता है. दो विपरीत ध्रुव यहीं आकर आत्मसात होते हैं. कहानी में केवल एक पिता की चिंतायें नहीं है अपितु उनके पास सामाजिक विकलांगता और अपयश का जो लक्षन है उसे कैसे छिपाया जाय इसकी भी चिंता भी है. शादी के आठ बरस बाद किसी संतान का मुंह देखना किसी भी दंपत्ति के लिए सुखद होगा. पर वह संतान बहुत सारी सामाजिक विडम्बनाओं का अम्बार ले आये तो माँ-बाप क्या करें. हालाँकि वे अपनी बच्चे की परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ते पर वे उसकी प्राकृतिक कमियों को दूर भी नहीं कर पाते.
कहानी की पात्र संझा अपूर्ण लिंग को पूर्ण लिंग में बदलने के चक्कर में लहुलुहान हो जाती है जिससे उसकी जान पर बन आती है. पर इस तरह की मानसिक स्थिति में कोई भी इस तरह के कदम उठाने पर मजबूर ह्जो सकता है. विवाह का सुख कौन नहीं देखना चाहता. संझा के जीवन में विवाह भी दुःख ही लेकर आता है. वैद्य जी की हकीमी जाती रहती है पर अंततः उन्हें जीवनदान मिलता है. संझा अंततः कहती है : न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ. न मैं तुम्हारे जैसी औरत. मैं वो हूँ जिसमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन. तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते.’’ सबसे अंत में कहानी कहती है ( मैं अब तक भाग्य था लेकिन किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल से दुबका हुआ मैं, सबसे बड़ा हिजड़ा हूँ) – पेज 79 .  कहानी भारतीय समाज की कई केन्द्रीय समस्याओं को एक साथ उभार कर सामने लाता है. अपने गलत कामों, हत्याओं, बलात्कारों और अवैध को समाज कैसे ठिकाने लगाता है वह वैद्य जी से ज्यादा कौन जानता है. बासुकि का बलात्कार उसके चचेरे भाई ने किया था. बासुकि का परिवार जब उसपर लांछन लगा देता है तो संझा को इसका जबाब देना पड़ता है और स्त्री और पुरुष के संयुक्त भाव से पैदा संझा की पोल भी इसी के साथ समाज में खुल चुकी होती है. इस कहानी में तृतीय लिंगी के लिए समाज के मनोविज्ञान को भली तरह से समझा जा सकता है.
जहाँ सामाजिक कलंक के नाते लोग स्वयं को हिजड़ा कहलाना पसंद नहीं करते हैं वहीं पर कादम्बरी मेहरा की कहानी ‘हिजड़ा’ में कहानी की पात्र हिजड़ा जीवन को एन्जॉय करती है. वस्तुतः यह भी एक मनोरंजक कहानी है जो यह बताती है कि जरुरी नहीं है कि कोई जन से ही हिजड़ा हो, कई लोग मज़बूरी में इसे अपने पेशे के रूप में अपना लेते हैं और इनकी जीविका इसी से चलती है. हालाँकि आज इसने अपराध का रूप ले लिया है और कई मासूमों को बचपन में ही नामर्द करके इस पेशे में प्रशिक्षित कर लिया जाता है और इसने अब इंडस्ट्री का रूप ले लिया है. इसी कहानी को ही लें तो विपरीत जीवन की परिस्थितियों में उसकी नायिका इस जद्दोजहद वाली जिन्दगी अपनाती है.
रागिनी राहुल की मौसी की सहपाठिन है. गायन वादन में सिद्धहस्त है. उसका रंग काला है और चेहरे पर चेचक के दाग भी हैं. भाई और माँ की चेचक में हुई मृत्यु के दौरान उसे जिन्दगी के यथार्थ से सामना होता है. उसके पिता दूसरा विवाह कर लेते हैं और उसे उसकी बड़ी बहन के घर यानी जीजा के यहाँ छोड़ देते हैं जहाँ उसका जीजा उसका यौन शोषण करता है. कुल मिलाकर यह मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है. स्त्री की मज़बूरी का फायदा पुरुष अर्थात उसके जीजा उठाते हैं. इस कहानी में रागिनी पढ़ी लिखी पात्र है जो अमूमन हिजड़े समुदाय में दुर्लभ होता है. कहानी में रागिनी कहती है कि : उसे बताया ही नहीं यह सब. कोई बदले में लिए बिना तुम पर क्यों खर्चेगा? जीजा की काली करतूत तुम्हें बता दूँ तो बेचारी जहर खाकर मर जाएगी’[12].
कई दृष्टियों से ‘इज्जत के रहबर’ बड़े संदर्भ की बड़ी कहानी है. यह कहानी वस्तुतः हिज्दोंके जीवन के एकान्तिक पलों का जहाँ निदर्शन कराती है वही पर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के साथ बलात्कार और जघन्य अपराधों से समाज को मुक्त कराने का काम भी करती है. मनुष्य होने के नाते प्रेम और आकांक्षा की जो आदिम चाहत मनुष्य के भीतर होती है वह हिजड़ा जीवन में भी पायी जाती है यानी कि वहां पर भी यौन कुंठाओं का आलम उसके आंतरिक खांचे में जाकर ही पता लगाया जा सकता है. पद्मा शर्मा की यह कहानी सोफिया के माध्यम से जहाँ हिजड़ों के आंतरिक समुदाय के बारे में बताती है वही पर यह कहानी कई और तथ्यों को भी उघाडती है. अनाथ किशोर होता बल्लू उन्हीं के बीच पला बढ़ा है. अभी तो ठीक से उसे रेख भी नहीं आई है. पर राज को हिजड़े उसके साथ यौन क्रिया करते हैं और यह तब और घटक हो जाता है जब वह बालक रात भर एक के बाद दूसरे की कुंठा का शिकार होता है. कहानी में डिटेल्स बहुत अधिक हैं.
कहानी का पात्र श्रीलाल जब सोफिया से प्रशन करता है कि –सब लोगों को शक है कि तुम लोग अपनी आबादी बढाने के लिए लोगों के अंग-भंग कर रही हो’ तो शोफिया का जबाब काबिले गौर है- सोफिया बड़े ऊँचे स्वर में बोली-नहीं लाल जी हमारी संख्या तो ईश्वर बढाता है. खुदा न करे वह और अधिक संख्या बढाए. [13]हमें कितना कष्ट है इस योनि में होने का, ये तो हमही जानती हैं. कहानी बताती है कि हिजड़ों को कार्यक्रम की सूचना कैसे मिलती है. हिजड़ों का समुदाय कैसे बच्चों को हिजड़ा बनाकर अपने ग्रुप में  शामिल करता है. इस कहानी में सोफिया प्रतिभा नामक एक लड़की के साथ हुए बलात्कार के लिए अपनी जान की बाजी लगाकर न्याय का प्रयास करती है जो हिज्दोंके संवेदनशील नागरिक होने की पुष्टि करती है. भारतीय समाज में लड़कियों को आगे बढाने की बात तो सब करते हैं पर अपनी गंदी हरकतों के माध्यम से उसका रास्ता भी रोकने का प्रयास भी साथ-साथ समाज में चलता रहता है.
हिजड़ों पर लिखी गई कहानियों में डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह की कहानी ‘संकल्प’ एक अलग ढंग की कहानी है. यह हिजड़ा जीवन की विसंगतियों खासकर बुचरा हिजड़ों के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी देती है वहीं पर इक्कीसवीं सदी में मेडिकल साइंस और प्लास्टिक सर्जरी से होने वाले उपचारों के बारे में यह कहानी एक अलग ही रास्ता दिखाती है. इस कहानी की मुख्य पात्र माधुरी है. उपेक्षा और अपमान का घूँट पीने वाले इस समुदाय में भी अस्मिता और अस्तित्व की पहचान का संकट नहीं रह गया है. इनके लिए जाने कितने कानून आये और चले गए पर इनकी स्थिति जस कि तस है. चिकित्सा सम्बन्धी जागरूकता के कारण बहुत सारी आंतरिक बीमारियों का शिकार यह समुदाय होता रहा है. एक स्वस्थ्य यौनकर्मी के रूप में जीवन यापन के लिए या स्वयं में एक स्त्री या पुरुष के रूप में परिवर्तन की राह खोलती यह कहानी स्वयं में बहुत अनूठी है. अविकसित जननांग के कारण इनके मन में बहुत सारी विकृतियाँ और कुंठाएं घर कर जाती हैं. निर्धनता किसी के लिए भी अभिशाप हो सकती है पर समय रहते अगर आपके पास संसाधन आ जाते हैं तो आप उसका बेहतर उपयोग भी कर सकते हैं. विजय तो वही पाते है जो अपनी राह पर दते रहते हैं. कहानीकार ने इस कहानी में हिजड़ों के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराइ हैं जो अभी तक बहुत सारे पाठकों को मालुम नहीं थी. शारीरिक गुत्थी सुलझने से बहुत सारी मानसिक गुत्थियों का इलाज संभव है यही कहती है डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह की कहानी संकल्प.

*सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र,
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
बिहार-823004



[1] बिंदा महराज, शिवप्रसाद सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, पेज 21
[2] बिंदा महराज, शिवप्रसाद सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, पेज 22
[3] बिंदा महराज, शिवप्रसाद सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, पेज 25
[4] बिंदा महराज, शिवप्रसाद सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, पेज 23
[5] खलीक अहमद बुआ, राही मासूम रजा, थर्ड जेंडर: हिंदी कहानियां, पेज 31
[6] बीच के लोग, सलाम बिन रज़ाक, थर्ड जेंडर:हिंदी कहानियां, पेज 34
[7] बीच के लोग, सलाम बिन रज़ाक, थर्ड जेंडर:हिंदी कहानियां, पेज 34
[8] संझा, किरण सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, पेज 65
[9] संझा, किरण सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, पेज 73
[10] संझा, किरण सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, पेज 69
[11] संझा, किरण सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, पेज 69
[12] हिजड़ा, कादम्बरी मेहरा, पेज 85
[13] इज्जत के रहबर, डॉ. पद्मा शर्मा,  पेज 95

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