शनिवार, 19 मई 2018

महिषासुर : मिथक और परम्परायें/ कर्मानंद आर्य

पुस्तक समीक्षा

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‘महिषासुर एक जननायक’ की अपार सफलता के बाद ‘फारवर्ड बुक्स’ एवं ‘दी मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन’ ने अपनी दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘महिषासुर मिथक व परम्परायें’ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत की है. बहुजन तबकों खासकर आदिवासियों, पिछड़ों और दलितों के सांस्कृतिक प्रतिरोध के निर्माण में इस पुस्तक को मील का पत्थर माना जाना चाहिए. यह पुस्तक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि देवों और असुरों की लड़ाई में यह असुरों की तरफ से प्रस्तुत साक्ष्यों और उसकी परम्पराओं को तथ्यों और तर्कों के आधार पर पुष्ट करती है. यह हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या महिषासुर ही अनार्यों के पूर्वज हैं? बिहार-झारखण्ड, बंगाल और उड़ीसा का जनमानस इन प्रश्नों के बारे में क्या सोचता है? क्या महिषासुर और उनकी परम्पराओं को किसी और संस्कृति, सभ्यता और जीवन पद्धति के रूप में स्वीकारा जाय?  क्या महिषासुर और दुर्गा की लड़ाई साहित्य की कल्पना मात्र है या उसका कोई साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक सन्दर्भ भी है? प्रस्तुत पुस्तक इन बहुत सारे प्रश्नों का नृवंशशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करती है. यह लांछित एवं अपमानित किये गए असुर, राक्षस, दैत्यों की उस गौरवशाली परम्परा को रेखांकित करने वाली पुस्तक है जिसे सांस्कृतिक वर्चस्व के कारण ब्राह्मणवादी ताकतों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था. जिस संस्कृति की क्षीण या स्फुट परम्परायें ही दिखाई पड़ती हैं.
दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में जिन चार महाक्रान्तियों का जिक्र किया है उनके मूल में कहीं न कहीं युद्ध हैं. तो क्या युद्धों की संस्कृति या विजेताओं की संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति मान लिया जाय? क्या किसी संस्कृति के कोई दूसरे पहलू भी हुआ करते हैं? क्या हम अभी तक युद्धों से नियंत्रित होते रहे हैं. क्या युद्धविहीन संस्कृतियाँ हमारी संस्कृति नहीं है? यह पुस्तक इसी सांस्कृतिक अध्ययन के बहुजन पक्ष का पुनराख्यान प्रस्तुत करती है. पुराणों के वाग्जाल में फँसी हुई असुरों की महान परम्परा और प्रतिरोध का जीवंत दस्तावेज है यह पुस्तक. यह पुस्तक बताती है कि असुर, नाग, यक्ष, द्रविड़, आर्य आदि अनेक प्रजातियों वाले इस देश में सांस्कृतिक विविधतायें एक नहीं हैं अपितु उनमें कई ऐसे मोड़ हैं जहाँ वे एक दूसरे के साथ मिलती हुई मुटभेड भी करती दिखाई देती हैं. समूह के एक ऐसे छोटे वर्ग ‘द्विज’ या ‘अभिजन’ ने अद्विज या बहुजन तबकों को को नकार कर कैसी सामाजिक श्रेणियों की निर्मिति की है यह पुस्तक इस विडंबना को समझने की महत्वपूर्ण सामग्री से भरी हुई है.

360 पृष्ठों की यह पुस्तक छह खण्डों में विभाजित है. ‘यात्रा वृतांत’ नामक अपने पहले खंड में सम्पादक ने यात्राओं के बहाने उपशीर्षक ‘महोबा में महिषासुर’ ‘छोटानागपुर में असुर’ ‘राजस्थान से कर्नाटक वाया महाराष्ट्र-तलाश महिषासुर की’ के अवशेषों और मान्युमेन्ट को यात्रावृतांत के रूप में रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है. पुस्तक बताती है कि कैसे बहुजन-श्रमण संस्कृति को नष्ट करते हुए ‘मार्कंडेय पुराण’ जैसे कपोल-कल्पित ग्रन्थ रचे गए. कैसे असुरों की संस्कृति विश्वदृष्टि संपन्न और श्रम से परिपूर्ण होकर ब्राह्मण-द्विज परम्पराओं से सर्वथा भिन्न है. कैसे आजादी के बाद भी सांस्कृतिक-सामाजिक गुलामी का शिकंजा लगातार कसता जा रहा है? दलितों आदिवासियों की कला संस्कृति, साहित्य भाषा और परम्परा को क्यों हीनताबोध के साथ देखने की परम्परा का निर्माण होता रहा है? कैसे हमारे समय के निर्माता उसे राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करते हुए गोटी सेंक पाने में सक्षम हो रहे हैं. पुस्तक इन प्रश्नों का एक सार्थक जबाब है.
जैसे-जैसे बहुजन संस्कृति का निर्माण हो रहा है वैसे-वैसे वैकल्पिक शक्तियाँ अपनी पुरजोर ताकत लगा रही हैं कि इन आन्दोलनों को कैसे क्षीण किया जाय. छद्म हिन्दू इसे महिषासुर और महिषासुरमर्दिनी के बीच हुए युद्ध के निहितार्थ से परे इसे धार्मिक चश्मे से देखकर परेशान हैं. अपरोक्ष रूप से साहित्यिक पत्रिकाओं पर रोक के उदाहरण भी हमारे सामने आये हैं. इसलिए यह पुस्तक और महत्वपूर्ण हो जाती है कि यह गोंडी पुनेम दर्शन, दुर्गासप्तसती का असुरपाठ, महिषासुर-एक खोज, बिहार में असुर परम्परायें और डॉ. आंबेडकर और असुर नामक अपने पाठों में पाठकों के मध्य ऐतहासिक और सांस्कृतिक सामग्री को विस्तार से प्रस्तुत करती है. पुस्तक तीसरा खंड, महिषासुर आन्दोलन किसका और किसके लिए जैसे उपशीर्षकों में विभाजित है. इस खंड के मूल में महिषासुर आन्दोलन की सैद्धांतिकी को अलग-अलग कोणों से देखा गया है. खंड चार को ‘असुर : संस्कृति व समकाल’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है. असुरों का जीवन उत्सव, शापित असुर: शोषण का राजनैतिक अर्थशास्त्र, कौन हैं वेदों के असुर? आदि उपशीर्षकों के अंतर्गत तथ्यों की पड़ताल की गई है. खंड पांच में महिषासुर आन्दोलन को साहित्यिक नजरिये से देखा गया है और परिशिष्ट में महिषासुर आन्दोलन की झलकियों को जीवन्तता के साथ प्रस्तुत किया गया है.
झारखण्ड के गुमला जिले के अमतीपानी नामक एक गाँव के असुर बहुत इलाके की बात करते हुए पुस्तक बताती है कि कैसे असुर समुदाय के लोग खनन मजदूर बनने को बाध्य हो चुके हैं. रेडियेशन और विकिरण कैसे उनके अन्धकार भरे जीवन में और अन्धकार घोल रहे हैं. समकालीन विमर्श ने अपनी लोकप्रियता के जो प्रतिमान गढ़े हैं उन्हीं प्रतिमानों को यह पुस्तक वर्चस्ववादी ताकतों के सामने धमक के साथ प्रस्तुत कर रही है. कुल मिलाकर एक पठनीय किताब पाठकों के सम्मुख है.

पुस्तक का नाम : महिषासुर मिथक व परम्परायें
सम्पादक : प्रमोद रंजन
प्रकाशक :  ‘फारवर्ड बुक्स’ एवं ‘दी मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन’ दिल्ली, वर्धा
कुल पृष्ठ : 360
मूल्य : 850 रूपये (हार्ड बाउंड)

समीक्षक : डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक, भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी

दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया

जब-जब लोहिया बोलता है / डॉ. कर्मानंद आर्य



‘सारा देश टूटा हुआ है. देश की आत्मा टूट गई है. मैं जानना चाहता हूँ कि क्या इतिहास में कोई और भी देश ऐसा रहा है जो इतना टूटा है जितना हिन्दुस्तान?’
-    राममनोहर लोहिया

डॉ. राममनोहर लोहिया भारतीय राजनीति के ऐसा पुरोधा थे जिन्होंने महज कुछ सालों में ही भारतीय राजनीति और समाज को झकझोर कर रख दिया था. अपने समय के दिग्गजों पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक से उन्होंने जिस तरह के तीखे सवाल पूछे वह भारतीय राजनीति की उनकी जिजीविषा को दर्शाता है. उन्होंने तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस को उखाड़ फेकने का उद्बोधन देते हुए युवाओं से कहा था कि जिन्दा कौमें पांच साल तक इन्तजार नहीं करती. उत्तर भारत में आज भी आप राजनीतिक रुझान रखने वाले किसी युवा से बात करें तो वो इस नारे का जिक्र ज़रूर करेगा- 'जब जब लोहिया बोलता है, दिल्ली का तख़्ता डोलता है.
डॉ. राममनोहर लोहिया ने बिहार की राजनीति को बहुत गहरे रूप में प्रभावित किया था. जयप्रकाश नारायण और लोहिया ही ऐसे व्यक्तित्व थे जिनसे प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मीरा कुमार आदि की राजनीति पर गहरा प्रभाव था. उत्तरप्रदेश की समाजवादी राजनीति में मुलायमसिंह यादव लोहिया को अपना आदर्श घोषित करते हैं. लोहिया जनसामान्य के नेता ही नहीं जननायक थे. उन्होंने ही श्री मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन की शुरुआत कराई थी. सच कहें तो वे भारतीय दलितों और पिछड़े हुए लोगों के नेता थे. वे दलितों और पिछड़ों की भागीदारी के लिए संघर्ष करते हुए अक्सर कहते थे कि योग्यता न होने पर ऐसे वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए. प्रतिनिधत्व से उनमें योग्यता आ जायेगी. कुछ विवादों को छोड़ दें तो बिहार में लोहिया की विरासत को लालूप्रसाद यादव ने संभाला.
मार्क्सवाद और समाजवाद के बीच की एक मुकम्मल कड़ी थे लोहिया. वे महान व्यक्तित्व का विराट ह्रदय लेकर पैदा हुआ थे. जेल की सलाखों ने उनके जीवन की रही सही कमी को भी पूरा कर दिया था. यातना के दिनों में निर्माण की जो भावभूमि उनके भीतर पनपी थी वह सीलन भरी कोठरियों में कभी नहीं खत्म हो पायी. कष्टों ने उनकी इच्छाओं को और बलवती ही किया. अपनी निजी स्वार्थों को तिलांजली देते हुए आजीवन उन्होंने कोई वैचारिक समझौता नहीं किया. उपनिवेशी शासन से तो वे लगातार लड़ते रहे पर राजनीतिक आजादी के बाद भी उनकी लड़ाई सत्ता से कभी कम नहीं हुई. वे आजाद भारत में भी लगातार संघर्ष करते रहे. उन्हें उन्हीं दरों की बार-बार सांकल बजानी पड़ी जिसे वे अपनी हदों तक नापसंद करते रहे. आम आदमी के जुड़े हुए सरोकारों के लिए न जाने कितनी बार झेलों की मर्मान्तक पीड़ा और वेदना में डूबते उतराते रहे. गांधी, आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण आदि का घालमेल से एक व्यक्तिव जो उभरता है वह है लोहिया.  
लोहिया वैचारिक रूप से न मार्क्सवादी थे और न ही मार्क्सविरोधी. इसी तरह से वे न गांधीवादी थे और न ही गांधी से अलग होकर कुछ सोच पाए. उनका जन्म उपनिवेश की जमीन पर हुआ था और मार्क्स जिस पृष्ठभूमि से आते थे वह शोषकों की जमात थी पर लोहिया उनसे विमुख भी नहीं हो पाए. मार्क्स का सारा दर्शन मूल्य, शोषण, लाभ, अतिरिक्त मूल्य, उत्पादन और उत्पादन की शक्तियों को एक ख़ास भौतिकवादी दर्शन के आधार पर देखने का था पर लोहिया जानते थे कि मार्क्स की सर्वांग दृष्टि को भारतीय समुदायों पर लागू नहीं किया जा सकता. कल मार्क्स ने जिस भौतिकवादी दृष्टि से इतिहास की व्याख्या की है उस दृष्टि को लोहिया अधूरी और अपूर्ण मानते थे.

मार्क्स व डॉ. लोहिया में अंतर यह है कि जहाँ मार्क्स वर्ग संघर्ष के आधार को अंतिम सत्य मान लेता है वहीं डॉ. लोहिया वर्ग संघर्ष के आधार पर जाति, भाषा, संपत्ति आदि की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं. जाति और धर्म के अंतर पर डॉ. लोहिया ने बहुत गंभीरता से विचार किया है. उन्होंने ‘इतिहास चक्र’ में स्पष्ट किया है कि कैसे जाति का रूपांतरण वर्ग और वर्ग का रूपांतरण जाति में होता है. केवल समाज के भीतर ही वर्ग संघर्ष सीमित नहीं है यह दो समाजों दो राष्ट्रों के बीच भी काम करता है. डॉ. लोहिया मानते हैं कि मार्क्स ने अर्थ को प्रधानता देकर इतिहास और मनुष्य की जो व्याख्या की है वह एकांगी है. आर्थिक तुष्टि सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक आकांक्षाओं की प्रतिपूर्ति नहीं कर सकता. इसीलिए भारतीय समाज को वे गांधीवादी नजरिये से देखने के पक्षधर दिखाई देते हैं.
       डॉ. लोहिया विज्ञानवादी थे. धर्म का सम्बन्ध ईश्वर, पूजा पाठ, नैतिकता, आस्था, विश्वास आदि के साथ होता है. लोहिया यद्यपि नास्तिक थे, ईश्वरवादी नहीं थे, मंदिर में उनकी आस्था नहीं थी पर वे आस्तिकों से कहीं अधिक श्रेष्ठ थे. हालाँकि पौराणिक मिथकों से वे कई बार प्रेरित भी होते थे. वे धर्म-कर्म से बहुत ऊपर थे पर मार्क्स की तरह वे धर्म को अफीम नहीं मानते थे. वे जानते थे कि राम की अयोध्या सरयू के किनारे थी. कुरु, मौर्य और गुप साम्राज्य गंगा के किनारे पनपे तथा मुग़ल व सौरसेनी नगर व राजधानियां यमुना के किनारे बसीं.
              (ओंकार शरद, लोहिया के विचार, पेज संख्या 244)
डॉ. लोहिया ने कहा था – लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरे मरने के बाद, लेकिन किसी दिन सुनेंगे जरुर. आज नए नेतृत्व और लोगों में नई खूबियों की जरुरत है. बहुत आराधना हो चुकी, फूल चढ़ाना उर यशोगान भी हो चुका........नेता रहेंगे, अनेक नेता रहेंगे, एक नेतृत्व भी रहेगा. वह असली नेता लोगों पर अधिक जादू कर सकेगा.....लेकिन नया नेतृत्व और नए लोग राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर के नहीं, गाँव के स्तर के होंगे- राममनोहर लोहिया. लोहिया कहते थे कि एक ऐसी दुनिया की संकल्पना हमारा उद्देश्य है जहाँ कोई दासता न हो, कोई जातिवाद न हो और अनावाश्यक भेदभाव न हो. समाज की विषमता और गैर बराबरी ख़त्म हो जाए. समाज में नैतिक व्यवस्था का पालन हो, संवैधानिक उपायों को अपनाया जाय, राजनीतिक जनतंत्र की जगह सामाजिक जनतंत्र की बात हो.
डॉ. लोहिया ने एक बात बार-बार कही कि वह केवल एक ही व्यक्ति से प्रभावित रहे और वह व्यक्तित्व गांधी हैं. आधा आदमी जिससे वे प्रभावित हुए वे थे नेहरु, वह नेहरु जिसे वे आजादी के पहले कर्मठ रूप में जानते थे. गांधी के प्रति लोहिया का आकर्षण स्वाभाविक था क्योंकि गांधीजी केवल जीवन के व्याख्याता नहीं थे वे दर्शन के साथ कर को जोड़कर भी देखते थे. स्पष्ट है गांधी का दर्शन केवल किताबी नहीं था. वह कर्म से निसृत था और कर्मशील होने की प्रेरणा देता था. कर्म प्रधान होने के नाते वह मूलतः आचरण की कसौटी पर किसी भी सिद्धांत की परख करता था. दोनों सामाजिक ढाँचे में बनिया वर्ग से आते थे, विदेश में शिक्षित थे, दोनों ने साथ मिलकर आजादी के लिए संघर्ष किया था पर वे गांधी से जितने पास थे उतने ही दूर भी थे. दोनों के विचार और मौलिक चिंतन में काफी फर्क भी है. भाषा के मामले में दोनों का चिंतन समान था. वे गांधी जी कि तरह ही हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान करना चाहते थे. उन्होंने कहा था अंग्रेजी डेढ़ मिनट में नहीं, बल्कि एक सेकेण्ड में जायेगी. झटके में ये सब चीजे हुआ करती हैं, धीरे-धीरे नहीं हुआ करती. (लोहिया : एक प्रमाणिक जीवनी, ओंकार शरद, पेज 160)
गांधी जी वर्ण व्यवस्था को प्राकृतिक व्यवस्था मानते थे अतः वे इसे स्वीकार करते थे लेकिन जातिवाद का समर्थन नहीं करते थे. जबकि डॉ. लोहिया वर्ण और जाति प्रथा दोनों को अस्वीकार करते थे. वे वर्ण और जाति को एक मानकर चलते थे. डॉ.लोहिया मानते थे कि वर्ण और वर्ग का एक साथ खात्मा होना चाहिए तभी मनुष्य की मुक्ति है. वे जानते थे कि अस्पृश्यता सामाजिक विषमता का मूल कारण है. लोहिया कानून द्वारा इस महापाप और अन्याय को दूर करने की हिमायत आजीवन करते रहे. वे पूंजी के वितरण को लेकर डॉ. आंबेडकर के पास अधिक दिखाई देते हैं. सामाजिक न्याय की दृष्टि में गांधी के विचार लोहिया के विचारों से बहुत पीछे रह जाते हैं. डॉ. लोहिया दलितों और पिछड़ों की कम से कम साठ फीसदी भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं. डॉ. आंबेडकर, डॉ. लोहिया और गांधी सामाजिक धरातल पर एक जगह काम कर रहे थे पर तीनों की वैचारिकता में अपना मेटाफर यूज करते हैं. डॉ. आंबेडकर का जीवनदर्शन जिसका अन्वेषण जीते-जागते समाज में शोषण व उत्पीड़न के मध्य स्थित उस आदमी के लिए किया गया है जो स्वयं चैतन्य नहीं है पर लोहिया का जीवन धरातल कहीं और व्यापक मनुष्यता के लिए है. हालाँकि दोनों का सामाजिक दर्शन यथार्थवादी और पूर्ण मानवतावादी है. व्यावहारिक और लौकिक है. दोनों इस सिद्धांत पर कायम हैं कि मनुष्य को न्याय, स्वतंत्रता, समता और भ्रातित्व के लिए संघर्ष की जरूरत है.
       डॉ. लोहिया प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के अंतर्गत मजबूत आर्थिक ढांचा चाहते थे. उसके लिए उन्होंने विकेंद्रीकरण की नीति को प्रोत्साहन दिया. वे चाहते थे कि उत्पादन के साधनों और स्रोतों पर वितरण के माध्यमों  और साधनों पर बुनियादी इकाइयों का स्वामित्व और अधिकार बना रहे. वे गांवों की पारंपरिक संरचना में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के हिमायती थे. वे गांवों में छोटी मशीनों के लगाये जाने के हिमायती तो थे ही. डॉ. लोहिया मानते थे कि जाति व्यवस्था में आर्थिक सामाजिक ढांचा पर विजयी वर्ग ने पराजित वर्ग को नष्ट करके उनके अधिकारों को सीमित कर दिया है. विजयी वर्ग आमदनी पर अपना नियंत्रण साधे हुए है. इसीलिए वे चाहते हैं कि पूंजी के विकेंद्रीकरण के बिना इस भारत भूभाग का भला नहीं हो सकता है. उन्होंने अपने समय में शासक वर्ग, मध्यवर्ग और सर्वहारा वर्ग की जो परिभाषा हमारे सामने प्रस्तुत की है वह हमारे मनुष्य के हमेशा पठनीय रहेगा. डॉ. लोहिया जाति को संगठित धूर्तों का गिरोह मानते थे. उन्होंने अपने समय में सामूहिक सहभोज और अंतरजातीय विवाह आदि को काफी बढ़ावा दिया. डॉ. लोहिया ने वास्तव में एक ऐसे आर्थिक, सामाजिक पर्यावरण के निर्माण की बात की है जिसमें समाज के विशेषाधिकार प्राप्त एवं शोषित वर्ग का अंत संभव है. उनका मानना है कि इससे वर्गभेद की दीवार समाप्त हो सकती है, जातिवाद जर्जर हो सकता है और भूमिहीनों को भूमि प्राप्त हो सकती है जिससे गरीबों की हीनभावना कम होगी. आय पर नियंत्रण से संपत्ति का बड़ा भाग गरीबों और पिछड़े लोगों तक आएगा ऐसा उनका मानना था. वे आजीवन गरीबी, भुखमरी और असमानता के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते रहे. इसीलिए डॉ. लोहिया ने राज्य समाजवाद की अवधारणा पर बल दिया.  
भारतीय समाज की कुरीतियों के बारे में बात करते हुए डॉ. लोहिया हमेशा खीझ, गुस्से और दुःख से भर जाते थे. दर्शन, कला, चिंतन, उदारता, आस्था आदि में श्रेष्ठ होते हुए भी भारतीय समाज की दुर्दशा वे भारतीय समाज की कृत्रिमता को मानते थे. वे मानते थे कि भारतीय समाज में सब कुछ है पर कुछ विघटित ही नहीं सब असंगठित भी है. धर्म की उंचाई इतनी है जिसकी कोई थाह नहीं, कर्म की ढिलाई भी इतनी है कि जिसके बारे में कुछ कहा भी न जाए, वैचारिक उंचाई के बावजूद वह लक्ष्यभेद नहीं कर पाता. इसीलिए डॉ. लोहिया ने वर्णव्यवस्था पर करार चोट किया. वे ‘’अस्थिर वर्ण को वर्ग’’ कहते थे. वे मानते थे कि हर सभ्यता और समाज में वर्ग वर्ण में और वर्ण वर्ग में बदलते हैं. यही कारण था कि डॉ. लोहिया ने देश में सर्वोच्च पद पर बैठे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा वाराणसी में 200 ब्राह्मणों के पाँव ढोने की घटना की खुले शब्दों में निंदा की थी. और इसे वर्ण व्यवस्था की कुरीति को कायम करने वाला कृत्य बताया था.
       डॉ. लोहिया का स्त्रियों के लिए योगदान भी कम चिंतन पूर्ण नहीं था. उनकी सात क्रांतियों में से क्रांति नर-नारी में समता स्थापित करना था. डॉ. लोहिया का मानना था कि भारत में चातुर्वर्ण ही नहीं, वरन एक पांचवां वर्ण नारी का भी है जो हजारो वर्षों से शोषित और उत्पीड़ित होती रही है. ‘मार्क्स गांधी एण्ड सोसियलिज्म’ नामक ग्रन्थ में डॉ. लोहिया ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि ‘संसार में जितने भी प्रकार के अन्याय इस पृथ्वी को विषाक्त कर रहे हैं, उसमें सबसे बड़ा अन्याय नर और नारी के भेद का है. संसार की विशाल मानवता किसी न किसी रूप में नारी स्वतंत्रता में बाधक रही है. इसीलिए डॉ. लोहिया ने नारी भेद और जाति भेद को सबसे ज्यादा खतरनाक बताया. डॉ. लोहिया के शब्दों में –
       ‘समाजवादी आन्दोलन में यदि स्त्रियाँ भाग नहीं लेती है, या उनको भाग लेने का अवसर नहीं दिया जाता है, तो यह सारा आन्दोलन बिना वधू के विवाह-उत्सव जैसा लगेगा’
                           (गांधी, मार्क्स एण्ड सोशलिज्म, पेज संख्या 350)
डॉ. लोहिया में जन्म से ही दीन-दुखियों, दलितों, पीड़ितों, अपाहिजों आदि के प्रति करुणा संकुल सहानुभूति थी. ‘इतिहास-चक्र’ उनके अभिनव चिंतन का प्रमाण है. वे स्वतंत्रता, समानता और एकता की त्रिशक्ति के समन्वय के पक्षधर थे. पद-दलित वर्ग तथा निम्न जातियों के प्रति डॉ. लोहिया में एक जबरदस्त क्रांतिकारी पीड़ा थी. वे उनमें ‘अधिकार बोध’ जगाना चाहते थे. वे उनका स्वाभिमान उन्हें फिर लौटाना चाहते थे. उनका तर्क था कि उनके लिए फिलहाल कर्तव्य की बात गौण है. वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करें, उसी से उनका पिछड़ापन दूर होगा और वे इसी से सुसंस्कृत होंगे. वे अपने अधिकारों का प्रयोग करना जाने. न केवल वे उच्च पदों पर आसीन हो जायें, बल्कि पदाधिकार का बोध उनमें स्वाभिमान की चेतना को जगा सके, यह निहायत जरुरी है.


डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी

दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यलय, गया बिहार 

(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की पत्रिका साक्ष्य में प्रकाशित)

हिंदुत्व मुक्त भारत का सपना और डॉ. आंबेडकर / डॉ. कर्मानंद आर्य




डॉ. आंबेडकर भारतीय इतिहास के उन कुछ विशिष्ट नायकों में शामिल हैं जिनके विचार, दर्शन और कर्म का बहुजन समुदाय पर व्यापक असर पडा है. दलित/ आदिवासी जो भारतीय जनसँख्या का लगभग एक चौथाई हैं आंबेडकर को महामानव की तरह से देखती है. अपने नायक के सम्मान का कारण है कि डॉ. आंबेडकर ने उनके जीवन को आखिर बदल कर रख दिया. ‘शिक्षित बनों, संगठित रहो, और संघर्ष करो’ जैसे बीज वाक्य ने दलितों वंचितों के विकास काका रास्ता खोलकर रख दिया. मीडिया के द्वारा किये गए राष्ट्रीय सर्वेषण में डॉ. आंबेडकर ने महात्मा गांधी के बाद दूसरा सबसे बड़ा स्थान पाया. मशहूर अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ. अमरत्यसेन ने तो आंबेडकर को अपने अर्थशास्त्र का पिता तक कहना शुरू कर दिया. वहीं २००४ में अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने डॉ. आंबेडकर को दुनिया का महानतम व्यक्तित्व घोषित किया. अगर विमर्श के इस युग में डॉ. आंबेडकर की बात करें तो एक चौकाने वाला तथ्य हमारे सामने आता है कि इन दिनों सबसे अधिक शोध पत्र/ आलेख/ शोधलेख आदि डॉ. आंबेडकर को केन्द्रित करके लिखे जा रहे हैं.  

भारतीय समाज की विडंबना को कौन नहीं जानता? शोषण, दमन, अत्याचार, अनाचार से जूझकर जब एक दलित, आदिवासी, पिछड़े समुदाय से आने वाला व्यक्ति जीवन की जीवन्तता में आता है तब भी परेशानियाँ उसका साथ नहीं छोडती हैं. जन्म से लेकर मृत्यु तक एक कलंक उसके माथे पर चिपका रहता है. कई बार तो यह कलंक उसकी मृत्यु के बाद तक श्मशान या कब्र तक उसका पीछा नहीं छोड़ता है. वह तमाम संसाधनों के बाद भी अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर रहता है. क्या वह इस अभिशप्तता का वरण खुद करता है या उसे यह सब विरासत में अनायास प्राप्त हो जाया करता है? सदियों से जाति संस्कृति, अंधविश्वास, शोषण के हाथों पिसते हुए उसे हर दोराहे पर चुनौतियों से सामना करना पड़ता है. बेशक उनके लिए कोई टिकाऊ आन्दोलन न हुए हों पर विचारधारा के रूप में शोषण और दमन की चीड़फाड़ लगातार होती रही है. प्रतिरोध की आवाज के कारण लाखों लोगों को जिन्दा जला दिया गया है, लाखों लोगों को पशुवत क्रूरता का सामना करना पड़ा है, लाखो लोगों को अपना घर-परिवार छोड़कर निर्वासन में जिन्दगी जीने को मजबूर होना पड़ा है तब भी आवाज कहीं मंद या क्षीण नहीं पड़ी. जैसे-जैसे शोषण और दमन चला, आवाजें और बुलंद हुई. हिन्दू धार्मिक संस्थाओं द्वारा दलित बहुजन जातियों के ऊपर आध्यात्मिक, आर्थिक और शैक्षिक वंचना का परिणाम यह हुआ कि दलित बहुजन जातियां गोलबंद हुई और अपने शोषण और दमन के खिलाफ एक मुखर आवाज से वाकिफ हुई. अब स्थितियां काफी बदल चुकी हैं पर यह बदलाव ढ़ाक के तीन पात जैसा ही है.
दलित-बहुजन चिन्तक और प्रसिद्ध समाज विज्ञानी प्रो. कांचा इलैया की अभी हाल ही में ‘सेज’ अन्तराष्ट्रीय प्रकाशन से एक महत्वपूर्ण किताब छपकर आयी है- नाम है ‘हिंदुत्व-मुक्त भारत’. कांचा पिछले कई वर्षों से सामाजिक कार्यकर्त्ता और प्रोफेसर की हैसियत से दलितों-वंचितों के जीवन का अध्ययन करते रहे हैं और स्वयं इन्हीं समुदायों से सम्बंधित हैं. अभी फिलहाल उन्हें जेल में डाल दिया गया है. उनके ऊपर अघोषित कर्फ्यू लगा हुआ है. अगर हम कारणों की पहचान करें तो पायेंगे कि उनका पीछा लगतार कुछ मानसिक विकलांगता से ग्रसित लोग कर रहे हैं जिनका देश की आर्थिक संसाधनों पर 90 प्रतिशत से अधिक का कब्ज़ा है और सामाजिक रूप से जाति का हथियार उनके हाथ में है. दलितों-बहुजनों के उभार से उनमें एक अजीब खलबली मच चुकी है और वे लगातर शोषण और दमन को हत्या से सुलझाने के लिए प्रयासरत हैं. कांचा ने आशंका व्यक्त की है कि इस कारण से संभव है उनकी हत्या कर दी जाय. कांचा इलैया कोई अकेले व्यक्ति नहीं है अपितु कई दलित-बहुजन चिंतकों को इसी तरह से लगातर परेशान किया जा रहा है.   
‘आत्मघात की राह पर हिंदुत्व’ नामक अपनी भूमिका में कांचा लिखते हैं कि भारतीय राष्ट-राज्य गृहयुद्ध की तरफ जा रहा है जो हिंदुत्व द्वारा पाले-पोसे जाति आधारित संस्कृति के भीतर, एक भावधारा के रूप में सदियों से सीझता रहा है. अब आकर हिन्दू सांस्कृतिक व्यवस्था अपने आत्मघाती अंतर्विरोधों को धीरे-धीरे उद्घाटित कर रही है जिससे जाति आधारित समाज के हर स्तर पर तनाव पैदा हो रहे हैं. वे लिखते हैं कि हिंदुत्व ने जहाँ उत्पादन और विज्ञान विरोधी नैतिकता को अपनाया वहीं बहुजन समाज ने वैज्ञानिक, तकनीकि और उत्पादक ज्ञान तंत्र का मार्ग चुना जिसे दलित-बहुजन लम्बे समय से आगे बढ़ाते और पालते पोसते रहे हैं. एक तरफ ऐतिहासिक रूप से वंचित जातियों और समुदायों की अध्यात्मिक और राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं उभार पर हैं जो उन्हें ज्यादा लोकतान्त्रिक धर्मों, जैसे कि ईसाइयत, बौद्ध और इस्लाम की तरफ ले जा रही है. और अंत में वे लिखते हैं कि हिन्दू धर्म जो दुनिया के प्रमुख धर्मों में से एक है अपनी जातिवादी कमियों के कारण लगातर अंत की राह पर है.     
       भूमिका में ही कांचा इलैया लिखते हैं कि दुनिया के चार बड़े धर्मों में हिन्दू धर्म सबसे छोटा है और सबसे गरीब भी, जिसके पास रूपान्तरकारी शक्ति का कोई आध्यात्मिक आधार नहीं है. वे तमाम व्याख्याएं जो अपने आप को आधुनिक बनाती हैं और हिन्दू धर्म को महान धर्म घोषित करती हैं, दरसल इसने अल्प विकसित मष्तिष्क का ही ढिंढोरा पीटती है. आदि शंकराचार्य से लेकर सर्वपल्ली राधाकृष्णन तक हिंदुत्व के सभी व्याख्याकार ब्राह्मणवादी रुढ़िवादी और जाति संस्कृति की नकारात्मकता के समर्थक रहे हैं. उनके लिए नकारवाद ही धर्म है. उन्हें कभी यहं नहीं सुझा कि देश में जाति और छुआछूत के अस्तित्व जिसकी रचना भी इनके धर्म द्वारा की गई थी, उसका दुनिया के सकारात्मक धर्मों से आध्यात्मिक न्याय का कुछ लेना देना नहीं है. इस धर्म की अपेक्षा गरीबों के लिए अन्य धर्म अधिक सहिष्णु दिखाई देते हैं. ईसाइयत, बौद्ध और इस्लाम इसके ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने हैं.
       भारत के इतिहास में बुद्ध के बाद एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना घटित हुई जब बी.आर. आंबेडकर ने सं 1956 ई. में नवयान बौद्धधर्म की स्थापना की. अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के इस्लामीकरण के बाद, केरे के ईसाईकरण और आंबेडकर के बौद्ध हो जाने के बाद भी, जो बड़ी संख्या अभी हिन्दू धर्म के चंगुल में फँसी हुई थी वह शूद्रों और अन्य पिछड़े तबकों की थी. वे पिछड़े हुए थे क्योंकि वे किसी और लोकतांत्रिक धर्म के साथ नहीं गए. जब दुनिया भूमंडलीकरण की तरफ बढ़ रही थी तब भारत का दलित-बहुजन समाज धार्मिक प्रतियोगिता के एक चौराहे पर खड़ा हुआ था. वह जाति के छोटे कुएं में मेढकों की तरह था. डॉ. आंबेडकर की आधुनिकतावादी नवयान बौद्धधर्म की स्थापना के बाद वे अस्पृश्यजन जिन्हें कांचा इलैया सबाल्टर्न वैज्ञानिक और उत्पादन के सैनिक कहते हैं, आंबेडकर के रूप में बुद्ध के एक मुक्तिकारी अवतार के संपर्क में आये. जो शूद्र पिछले तीन हजार वर्षों से हिंदुत्व की ब्राह्मणवादी आध्यात्मिक तानाशाही को झेल रहे थे उन्हें अब थोड़ी राहत थी. आंबेडकर जिन्होंने मानव जीवन से छुआछूत के कलंक को धोने का अथक प्रयास किया, धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से दुनिया के मुक्तिकारी मसीहाओं की श्रेणी में शामिल होते जा रहे हैं. उन्होंने बिना कोई समझौता किये भारत के पाखंडियों (ब्राह्मणवादियों) का मुकाबला अहिंसा के उसी हथियार से किया जिसका प्रयोग ईसा ने किया था.
       आंबेडकर के नवयान बौद्धधर्म ने स्वयं बौद्ध धर्म के नए व्यवस्थाकार और हिन्दू जाति व्यवस्था और स्वयं हिन्दू धर्म के विनाशक, दोनों की भूमिका निभाई. उन्होंने भारत के दलितों को पहली बार तर्कशील होना सिखाया. उन्हें हिन्दू धर्म की कुटिलताओं से परिचय कराया ताकि वे धीरे-धीरे हिन्दू धर्म की क्षुद्रताओं को पहचान सकें. डॉ. आंबेडकर ने अंग्रेजी में लिखकर दलितों को यह सन्देश दिया कि मराठी या दूसरी भारतीय भाषाओं में लिखकर से सम्पूर्ण दुनिया के साथ अपना संवाद नहीं कर पायेंगे. वे जानते थे कि दलित भारत का उद्धार अंग्रेजी के द्वारा किया जा सकता है. धर्म विज्ञान का वाहक भी हुआ करता है पर भारत के रुढ़िवादी समाज में हिन्दू धर्म के कारण कोई वैज्ञानिक खोज नहीं कर पाए. हिन्दू आध्यात्मिकता ने लोगों को अंधविश्वासों से डरा कर रखा हुआ है. इनके लगभग सभी धर्मग्रन्थ जैसे ऋग्वेद, रामायण, भगवद्गीता आदि में किसी एक ऐसी किसी व्याख्या की गुंजाइश नहीं रखी गई है जो जाति व्यवस्था और अंध-विश्वासों का सम्यक निराकरण कर सके. यह सच है कि विज्ञान विरोधी हिन्दू व्यवस्था ही मुख्यतौर पर वैज्ञानिक विकास के रास्ते में जाति का अडंगा लगाने के लिए जिम्मेदार है.
       मुख्यधारा का हिन्दू दलितों के आगे बढ़ने से किस कदर त्रस्त हो रखा है कि बाबा साहब आंबेडकर द्वारा बनाये गए दलित अत्याचार निरोधक अधिनियम को निष्प्रभावी बनाने पर तुला हुआ है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई उन दलीलों को कि अनुसूचित जातियों/ जनजातियों के लिए बनाये गए कानूनों का दुरुप्रयोग हो रहा है इसके कारण उसपर बिना जांच के कार्यवाही न की जाय, समाज के सवर्ण तबकों की अतिसक्रियता को दिखाता है. क्या भारत का सुप्रीमकोर्ट दहेजलोभियों के लिए बनाये गए कानून के दुरुपयोग होने की स्थिति में ऐसे कानून को ख़ारिज करने की बात करेगा. नहीं, शायद कभी नहीं. क्योंकि उस कानून से सवर्ण हितों को डायरेक्ट कोई नुकशान नहीं हो रहा है. दलितों का आगे बढ़ना उन्हें किसी रूप में रास नहीं आ रहा है. डॉ. आंबेडकर का मानना था कि राजनीतिक क्रांतियाँ हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांतियों के बाद हुई हैं. संभवतः इसी कारणउनका जोर सामाजिक सांस्कृतिक सुधार के माध्यम से राजनीतिक क्रांति करना था जिसमें हिन्दू धर्म मुख्यतः बाधा बन रहा था. हिन्दू धर्म की जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ डॉ. आंबेडकर महाड में एक व्यापक आन्दोलन चला चुके थे. हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म था जो जानवरों को पानी पीने की हिमायत करता था पर वहां कोई अछूत पानी पी ले तो सारा तालाब अशुद्ध हो जाता था. डॉ. आंबेडकर ने मरते हुए इस हिन्दू धर्म की लाश को अंतिम तौर पर लात मारकर मानवतावादी बौद्धधर्म को अपनाया.  यह अपने समय की सबसे बड़ी सम्पूर्ण क्रांति थी. मनुस्मृति दहन इसी हिन्दू धर्म के प्रतिकार का और बड़ा नमूना था.
       ‘आंबेडकर की घर वापसी’ नामक अपने आलेख में पंकज चौधरी (डॉ. आंबेडकर का इतिहास दर्शन, पृष्ठ 9) में लिखते हैं कि ‘ इतिहास गवाह है कि हिन्दू जाति व्यवस्था को चुनौती देने वाली जितनी भी संस्थाएं बनी या उनके नायक उभरे हिन्दू जातिव्यवस्था के नियंताओं और एजेंटों ने उसके अन्दर घुसकर उसकी जान ले ली या उनके वजूद को ही ख़त्म कर दिया. संघ परिवार ने इसकी कोशिश शुरू कर दी है. आंबेडकर की तुलना वे इन दिनों डॉ, हेडगवार से करने लगे हैं. हेडगेवार घोषित तौर पर मुस्लिम विरोधी थे जबकि आंबेडकर के ‘पाकिस्तान और पार्टीशन आफ इण्डिया’ किताब लिखने का उद्देश्य राष्ट्र की अखंडता और एकता को हरेक कीमत पर अक्षुण रखने का था. आंबेडकर को पढने पर यह अनान्यास ज्ञात होता है कि वे भारत या देश को सर्वोपरि स्थान देते हैं. इसीलिए वे कभी दलित हितों से समझौता नहीं करते हैं.  
 यह सच है कि अगर डॉ. आंबेडकर इतने शिक्षित न होते तो उन्हें इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने कब का हजम कर लिया होता. जैसे वे कबीर को नहीं पचा पाए उसी तरह वे डॉ. आंबेडकर को भी नहीं पचा पाए. रही बात यह कि तथाकथित ब्राह्मणों ने ने कबीर को इस जन्म का नहीं अपितु पिछले जन्म का ब्राह्मण सिद्ध करने की नाकाम कोशिश की लेकिन वे डॉ. आंबेडकर को कभी ब्राह्मण नहीं घोषित कर पाए. हाँ, संघ अपने हिडन एजेंडे के तहत जरुर डॉ. आंबेडकर की छवि का इस्तेमाल अपनी राजनितिक रोटियों कोसेंकने के लिए कर रहा है. एक तरह वह आरक्षण को ख़त्म करने के एजेंडे पर है तो दूसरी तरह वह दलित बस्तियों में अपने पाँव पसार रहा है और अबोध दलितों के द्वारा दंगे, आतंक आदि को फैलाने का काम कर रहा है. पर वह नहीं जानता कि उसकी हर मूर्खता का तगड़ा जबाब हैं डॉ. आंबेडकर. डॉ. आंबेडकर के रास्ते पर चलकर एक दिन भारत का दलित वंचित समाज हिन्दू धर्म की दासता से स्वयं को मुक्त कर लेगा.


डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय, विवि, गया
मो. 9430005835  

       

सफेद गुलाब और अन्य कहानियाँ /डॉ. कर्मानंद आर्य



‘सफेद गुलाब और अन्य कहानियाँ’ ‘सहज प्रकाशन’ मुजफ्फरनगर से प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार, कवि, आलोचक ‘हरपाल सिंह अरुष’ की नई किताब है. हरपाल सिंह अरुष पिछले चार दशकों से सक्रिय साहित्य सर्जना कर रहे हैं. ‘काले नंगे पाँव’ ‘धन्नो की चाची’ ‘जिन्दगी और रंग’ ‘कटघरे में औरत’ ‘चंदन और थर्मोकोल’ के बाद यह उनका छठा कहानी संग्रह है. अभी तक उनके पंद्रह से अधिक कविता संग्रह, आठ से अधिक उपन्यास और एक दर्जन से अधिक संपादित और आलोचनात्मक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. साहित्यिक का यह विपुल लेखन उनकी वैचारिकी का स्पष्ट प्रभाव पाठकों पर अब तक छोड़ चुका है.
प्रस्तुत कहानी संग्रह में कुल आठ कहानियाँ संग्रहीत हैं. ये कहानियां है ‘और वह साधु बन गया, जॉन ऑफ़ आर्क’ ‘आजकल चलता है’ ‘गाड़ी पर नाव ‘किरपाल सिंह की बैठक’ ‘सुमति जिन्दा है’ ‘सूर्योदय की प्रतीक्षा’ और ‘सफेद गुलाब’. विषय की विविधता के आधार पर अगर हम कहानियों के विश्लेष्ण करें तो पायेंगे कि सभी कहानियों का धरातल एक दूसरे से भिन्नता लिए हुए है. अलग मुहावरे और अलग कहन की ये कहानियाँ भारतीय ग्रामीण जीवन के यथार्थ को धरातल पर प्रस्तुत करती हैं. और हरपाल सिंह अरुष जिस जादुई भाषा का इस्तेमाल अपनी कहानियों में करते हैं वह सहज ही उदयप्रकाश जैसे कहानीकार की याद दिला देता है. हिंदी पर अभी तक पूर्वांचल के पण्डितों का प्रभाव दिखाई देता है.जहाँ खड़ी बोली का उद्भव और विकास हुआ वहां के साहित्यकारों को समुचित जगह नहीं मिल पाई है.
पश्चिमी लेखकों को अँगुलियों पर सहज गिना जा सकता है पर जिस भाषा और कहन को लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदी में स्वीकृत हुए उसी कहन और भाषा के साथ अगर कोई कथाकार और दिखाई देता है तो वह हैं हरपाल सिंह अरुष. बहुत छोटे-छोटे वाक्य विन्यास में जिस सहजता से वे लोक जीवन और जनमन को प्रस्तुत करते हैं वह हिंदी साहित्य में दुर्लभ है. हिंदी में रेणु ने जिस हिंदी के ठाठ को ‘तीसरी कसम’ ‘लालपान की बेगम’ ‘मैला आँचल’ में देशज भाषा का रंग और कहन अगर देखना पढना हो तो हमें हरपाल सिंह अरुष तक जरुर आना चाहिए.
हरपाल सिंह अरुष सामाजिक समरसता के रचनाकार हैं. वे कहीं भी उग्र नहीं होते पर चुपके से वह सब कह जाते हैं जो उन्हें कहना होता है. वे पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के जिस भूभाग से आते हैं वहां की भाषा को कुछ लोगों ने लट्ठमार भाषा का नाम दिया है पर भाषा का जो उदात्त रूप हमें ‘सफ़ेद गुलाब और अन्य कहानियाँ, में दिखाई देता है वह हमें हिंदी की समृद्धि को ही इंगित करता है. संग्रह में संकलित पहली ही कहानी ‘और वह साधु बन गया’ भारतीय परिवारों के छल, छद्म, संपत्ति की भूख, लालच और स्वार्थ परता को हमारे सामने प्रस्तुत करती है. भारत की आत्मा गांवों में बसती है पर वही गाँव आज कितने बदले हुए हैं उसकी एक मिशाल मात्र है यह कहानी. कहानी के पहले भाग में सुरेन्द्रनाथ के बाबा बन जाने की कहानी को नाटकीय अंदाज में कहानीकार ने पाठकों के सामने रखा है.

आज के बाबा जहाँ टीवी पर बदनाम हो रहे हैं वहीं पर बाबा सुरेन्द्रनाथ का व्यक्तिव बताते हुए हरपाल अरुष लिखते हैं कि ‘बाकी न आग, न तमाखू, न चिलम. न ऐसे सुलफैया यार कि दम लगाये खिसके. न सट्टा बताना न दडा. समझो न कि गंगादास न जमनादास. न गोरखपंथी न कबीरपंथी. भीख माँगना. सुखी रहना’. (और वह साधु बन गया, पेज 10) चार भाइयों में सबसे छोटा अनुज. यह कहानी सुरेन्द्रपाल के सुरेन्द्रनाथ में रूपांतरण की कहानी है. जरुरी नहीं है जो आपको रँगे हुए कपड़े में दिख रहा हो साधुई बचपन से उसके भीतर कुंलाचे मारती हो. संभव है वह परिस्थितियों की नदी में गोता लगाता हुआ यहाँ तक पहुँचा हो. जमीन के बँटवारे में भाई के हिस्से की जमीन हड़पने के लिए लुगाइयाँ क्या-क्या पैंतरे फेकती हैं अगर समाज की इस विडंबना को देखना हो तो इस कहानी को जरुर पढ़ा जाना चाहिए. हरपाल सिंह लिखते हैं – “किसानों के संयुक्त परिवार की विशेषता. पिता को अपदस्थ किया जाता है. भाइयों में से शक्तिशाली या चालाक या फिर दोनों गुणों से संपन्न सारी व्यवस्था अपने हाथ में ले लेता है. पिता शाह आलम की तरह’. (और वह साधु बन गया, पेज 10)
लड़कियों की घटती दर को कहानीकार ने गाँव बड़ी सावधानी से सबके सामने रखता है. सुरेन्द्रनाथ का फौजी भाई जब पीढ़ियों से कमाई इज्जत की नाक पर आरी फिराकर जब पहाड़ी औरत लाता है तो चारो तरफ हंगामा पसर जाता है. हालाँकि कहानीकार लिखता है कि ऐसा तो तब, जब दस पन्द्रह औरतें तो बंगाल, बिहार, उड़ीसा से लाई हुई हैं. कैसा है हमारे समाज में लड़कियों की घटती दरों पर कोई कुछ बोलता नहीं है. यह शादियाँ अपेक्षाकृत कम खर्चीली हैं. पर वही बेटियां जो बाहर से ब्याहकर आती हैं कैसे घर परिवार को जीवन का अंग बना लेती हैं कहानी इसके बारे में विस्तार से बताती है. फौज की जिन्दगी और उससे जुड़े हुए खतरे भी कहानी को प्रासंगिक बनाते हैं. कहानी का अंत सुरेन्द्र के घर छोड़ देने से होता है जहाँ उसे लगता है कि सब मायाचार है और अगर इस मायाचार से पार उतरना है तो एकाकी होना अधिक अच्छा रहेगा. कहानीकार सहज ही लिखता है- ‘जीवन-संघर्ष से डरा हुआ आदमी संघर्षहीन जीवन खोजता है.
   संकलन की दूसरी कहानी ‘जॉन ऑफ़ आर्क’ भारतीय समाज की पितृसत्ता और सामंतवाद के बहाने कई मुद्दों को एक साथ उकेरने वाली कहानी है. यह कहानी सुलेखा और चंद्रप्रकाश के बहाने भारतीय समाज में स्त्रियों के लिए कठिन होते अवसर और उनकी कार्यक्षमता को प्रभावित करके वाले कारको, समाज का जातीय ढ़ांचा और प्रतिरोध में समाज के सभी तबकों के साथ को दर्शाने वाली कहानी है. स्त्री मात्र देह नहीं है अपितु वह एक जिजीविषा का नाम है. सुलेखा का घर देर से पहुंचना, उससे भी अधिक दो पराये मर्दों के साथ घर वापसी पति को संदेह से भर देता है. स्त्री को बाहर और भीतर दोनों ही पितृसत्ताओं से समान रूप से लड़ना है. जिस तरह के काम आज कामकाजी शिक्षकों पर लाद दिए जाते हैं उनके निपटान में होने वाली दिक्कतों की तरफ इसारा करती है यह कहानी. अरुष जी की अन्य कहानियों की तरह इस कहानी के भीतर एक और कहानी है जो सुलेखा को ईमानदार पिता की मृत्यु के बाद विरासत में मिलने की संभावना है. भ्रष्टाचार से समझौता न करने वाले परिवार को अंततः अधिकारियों और कर्मचारियों को रिश्वत खिलानी पड़ती है उस पर भी तुर्रा कि नौकरी के बाद भी भेड़िये उसका पीछा नहीं छोड़ते हैं. इस कहानी के माध्यम से हरपाल सिंह अरुष दलित साहित्य लेखन में आये दोहरेपन को सुलेखा के शब्दों में इस तरह से रेखांकित करते हैं –
‘जिस दलित आन्दोलन से जुड़े हो, वह सही दिशा में नहीं जा रहा. मानती हूँ, आप कवितायें लिखने का शौक रखते हो, लिखो. अध्ययन करते हो करो, पत्नी और भेड़िया जैसी पुस्तक को बिलकुल मत छुओं. उसका लेखक सनक गया लगता है’. (जॉन ऑफ़ आर्क, पेज 31). कहानी समाज में कामकाजी स्त्री के कार्य पर उत्पीड़न जैसी पितृसत्ता, सामंतवाद, भ्रष्टाचार आदि समस्याओं पर भी प्रकाश डालती है.

‘आजकल सब चलता’ कहानी में दलितों के आर्थिक उभार को कहानीकार ने उभारा है. झोपड़पट्टी से उभरने वाली यह कहानी रतनदीप, जोगेन्दर, और राजलक्ष्मी के बहाने अपराध कथा, मर्डर, ठेकेदारी और आत्मीयता को प्रमुखता देने वाली कहानी है. धन के साथ कैसे सुन्दर स्त्री भी हाथ आ जाती है यह वृतांत है यह कहानी. कहानी झोपड़पट्टी में रहने वाले लोगों का एक खाका खींचती है कि कैसे किसी व्यक्ति का निर्माण संभव हो पाता है. प्रेम, शादी और धोखा की मिस्ट्री है यह कहानी.
‘गाड़ी पर नाव’ बदलते जमाने की कहानी है. जबसे दलितों वंचितों में लोग अधिकारी होने लग गए हैं तभी से अड़ियल गाँव के सामंत भी उनको अदब ठोंकने के साथ साथ उनसे रिश्ता बनाने में लग गए हैं. हालाँकि यह रिश्ता व्यक्तिगत स्वार्थों पर जाकर खत्म हो जाता है. दलित हरिया और रमेसरी के यहाँ ठाकुर रघुराज का आकर अपने छोटे बेटे के लिए नौकरी की शिफारिश करवाना बदलते समाज का आइना है. उसके लिए वह कुछ भी कर जाने को तैयार है. भोले भाले दलितों का सहारा लेकर वे पद और प्रतिष्ठा तक पहुँच रहे हैं. जो रघुराज जनम-जनम शिकारी रहा वह आज किस लालच में भीगी बिल्ली बना हुआ है. जो सवर्ण कभी दलितों का छुआ हुआ खाना नहीं खाते थे वे आज अपने स्वार्थ में कितना बदल गए हैं. कुलदीप का दिआईजी होना और उसका सवर्णों द्वारा फायदा उठाना ही कहानीकार का ध्येय नहीं अपितु सामाजिक संरचना के बदलाओं को दिखाना कहानीकार का उद्देश्य है.

‘सुमति जिन्दा है’ इस संकलन की अपेक्षाकृत कमजोर कहानी है. यह पाठकों के समक्ष एक यूटोपिया को आदर्श बनाकर एक लड़की ‘सुमति’ के लौट आने की कहानी है. कहानीकार ने सुमति की अनमेल शादी, उसका घर से भागकर अपने पसंद के लड़के के साथ दस वर्ष तक ‘सहजीवन’ दहेज़ उत्पीड़न और लड़की के झूठे मुकदमें समेत कहानीकार ने अंततः प्रेमचंद युगीन कहानियों के ह्रदय परिवर्तन को इस कहानी में जगह दी है. सुमति अंततः अपने पूर्व पति और उसके कुनबे को जेल और फांसी से बचाना और फिर सामंती समाज द्वारा उसे स्वीकार कर लेने की कथा को आज के युग की कहानी कहना मुश्किल होगा. यह कहानी ‘बाबा भारती’ के ‘हार की जीत’ से प्रभावित दिखाई देती है.
इस संग्रह की अंतिम कहानी ‘सफेद गुलाब’ बड़े फलक की कहानी है. इसका कथानक 1942 के दूसरे विश्वयुद्ध के बीच नरसंहारों और जर्मनी पर फ्रांस के बढ़ते शिकंजे को दर्शाती है. दिन ब दिन जर्मनी विश्वविजेता बनता जा रहा है. कहानीकार लिखता है कि यहूदियों को ख़त्म करके हिटलर चंगेज खां को पीछे छोड़ देगा. अस्मिता और वर्चस्व के बीच एक फूल उगाने वाले किसान के खेत में एक सफ़ेद गुलाब उगता है जिसे वह ऊँचे दाम पर बेचनाचाहता है. अंततः वह फूल सेना का एक जनरल खरीदता है जो फ्युहरार के आदेश को मानने से इनकार कर देता है और दुनिया को सफेद गुलाब के माध्यम से शान्ति का सन्देश देता है. विदेशी पृष्ठभूमि पर यह एक व्यापक धरातल की कहानी है.
पुस्तक का नाम : सफेद गुलाब और अन्य कहानियाँ
प्रकाशक : सहज प्रकाशन, गांधी कालोनी, मुजफ्फरनगर
पृष्ठ संख्या : 136
मूल्य : 250 रूपये


*डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक, भारतीय भाषा केंद्र
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विवि, गया

बिहार - 823001

डॉ. भीमराव आंबेडकर केन्द्रित दस कवितायें / कर्मानंद आर्य


1.    

अम्बेडकर / कर्मानंद आर्य

..........................................
इससे पहले न धरती थी न मिट्टी
न कोई कला थी न कलाकार
न नफरत थी न प्रेम
फिर तुमने मिट्टी को छुआ
कला पैदा हुई
कलाकार पैदा हुआ
प्रेम पैदा हुआ
तुमने एक मूरत गढ़ दी
एक मूरत पैदा हुई
रंग पैदा हुआ
जो अभी तक था रंगहीन
वर्ण पैदा हुआ
जो अभी तक था वर्णहीन
यह निश्चित है
तुम अपने समय को समझ गए थे
तुम्हें पता था
आने वाला समय तुम्हारा है
धरती में, मिट्टी में, कला में
तुमने कैसा अमर प्राण डाला था
मेरे कलावंत

2.       

आंबेडकर की अदालत / कर्मानंद आर्य................................................


इतिहास में वे अभागे
फांसी पर लटका दिए जाते हैं
जो मनुष्यता के विरोध में
वर्चस्व की सत्ता लाते हैं
स्वतंत्रता, समता और बंधुता
जिनके यहाँ अपराध की इकाई है
श्रेष्ठता जिनके यहाँ
कुंठा में पलती बढ़ती आयी है
वे एक रोज
होते हैं कोपभाजन का शिकार
एक समय बाद
जनता करती है उन्हें धिक्कार
एक दिन मनु को
आंबेडकर की अदालत में लाया गया
उसके अपराधों को सबको बताया गया
मनु चुप और निर्वाक था
मनु धूर्त और चालाक था
हाथ जोड़कर बोला
महाराज !  मैंने कोई विद्या नहीं फैलाई है
धूर्त ब्राह्मणों ने यह किताब मुझसे लिखवाई है
मैं पढने-लिखने वाला गरीब
मुझे न मारा जाय
मुझसे पहले शंकराचार्य को धिक्कारा जाय
मैं राजा नहीं जिसका आदेश माया जाय
मुझे मेरे पढने लिखने की सजा दिया जाय
और भी कई अपराधी हैं जिन्होंने
लोगों को ऊँच-नीच बनाया है
पुराण रचकर जिन्होंने वितंडा फैलाया है
उन्हीं में से एक
एसआईटी गठित कर शंकराचार्य को लाया गया
मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद का आरोप लगाया गया
शंकराचार्य चुप और निर्वाक था
धूर्त और चालाक था
हाथ जोड़कर बोला
महाराज ! मैंने यह विद्या नहीं फैलाई
मैंने तो वेदों की बात ही बतलाई
जिसकी विद्या का भेदभाव आधार है
सरकार मुझे भी न्याय की दरकार है
आंबेडकर समझ गए
भेदभाव संगठित अपराधियों की साठ-गाँठ है
यह सम्पूर्ण ब्राह्मणवाद का एक पाठ है
इस पर एक विशेष अदालत का गठन किया जाय
जनता की अदालत में मुकदमा सुना जाय
उनके आदेशानुसार
जनता मुकदमा सुन रही है
जनता एक दिन फैसला सुनाएगी
इतिहास के अभागे फांसी पर लटकाये गए
जनता की अदालत के जन गीत गाये गए  

3.       भगवा आंबेडकर / कर्मानंद आर्य

........................................

नीले कपड़े वाला
भगवा पहन कर आ गया
हमारा आंबेडकर ‘उनके’ घर में जगह पा गया
हम तो सुधर चुके
अब वे भी सुधर जायेंगे
जो राम-राम चिल्लाते थे वे भीम-भीम चिल्लायेंगे
करेंगे आरक्षण की माँग
सुबह उठकर करेंगे संविधान को प्रणाम
गाहे-बगाहे स्मृतियाँ जलाएंगे
लगता है वे नया भारत बनायेंगे
वे कहेंगे व्यावहारिक तौर पर हिंसा बंद हो
व्यावहारिक जातिवाद ख़त्म हो जाये
सब नौकरियों में एक जाति न रहे
डाइवर्सिटी का सपना सबका सपना हो जाए
वे आफिस और घर में आंबेडकर की फोटो लगा रहे हैं
वे कौन लोग हैं जो नई दुनिया बना रहे हैं


4.      4. 

आंबेडकर / कर्मानंद आर्य

............................

न नीली टोपी
न ऊंची आवाज
न शोषण के खिलाफ उठता एक संगठन
न दुखता संताप
न भारत की दीनता
न दुःख न दासता
न हीनता की ग्रंथि न उच्चता का भाव
न आरक्षण, न बचाव
आंबेडकर हैं नदी में नाव
न स्त्री की पुकार, न दलित चीत्कार
न धूप न अन्धकार
न आदिवासी न पिछड़ा
न दक्षिण न वाम
न सुनो ब्राह्मण! न सलाम
न मुर्दहिया, न झोपड़ी से राजभवन की दास्तान
आंबेडकर है गुणकारी दवा का नाम
दीन-दुखियों के चेहरे पर स्मित बुद्ध की मुस्कान
किसी अखाड़े से बड़ा
आंबेडकर एक सम्प्रदाय का नाम है
संघर्ष के लिए पलायन करते
मनुष्य के संघर्ष का गान है 

5.       

 बदलाव / कर्मानंद आर्य

.......................................

एक दलित से आज मिला
वह ब्राह्मणवादी हो गया
आरक्षण के मजे उड़ाकर
आंबेडकर को खा गया

पे बैक सोसायटी से न उसका कोई काम
घूस-पात खाकर लेता है राम नाम
आज भी ‘तिलकधारी’ की वह पादुका उठाता है
नव दलित कहलाता है

पढ़ना लिखना छोड़ दिया
पड़ोसी से मुख मोड़ लिया
पीर-पैगम्बर जाता है
अपने को बड़का दलित बताता है

कुछ लोग दलित न होकर भी करते हैं बड़ा काम
आरक्षण और संविधान को मानते हैं हुक्काम
अपने ड्राइंगरूम में आंबेडकर की फोटो लगाते हैं
सावित्रीबाई फुले और आंबेडकर को पढ़ाते हैं

रात दिन करते हैं मानवतावादी काम
जनता को देते हैं भाई-चारे का पैगाम
वह कोरे विमर्श को धता बताते हैं
मिल बांटकर खाते हैं

मैं नवदलित
अपने भीतर के द्वंद्व को समझ नहीं पा रहा हूँ
कभी उस दलित की तरफ
कभी उस मानवतावादी के चक्कर लगा रहा हूँ

6.

रो रहे हो आरक्षण के लिए बुजदिल / कर्मानंद आर्य...........................................................................


एक आंबेडकर था अपने समय में
वक्त का असली हीरो 
घने अंधेरों के बीच लिख रहा था इबारत
ठीक से कलम नहीं थी
आसानी से मिलता नहीं था कागज़
फिर भी घुनी हुई व्यवस्था की
हरी कर डाली कॉपियां
इतने पन्ने लिख डाले
जितने हमने कभी पढ़े न होंगे जिन्दगी में
लिख डाली मनुसंहिता से बेहतर
एक नई संहिता
उसका मनोबल ही तो था
आज लाखो बैरिस्टर हैं हमारे
पर एक भी नहीं जो दहाड़ सके
समझ सके कानून के सामाजिक दायरे
दिला सके अंधे को विश्वास कि
अँधा नहीं कानून  
कितने तो प्रोफेसर हैं
माफ़ कीजियेगा
सफेदपोश, ऐय्याशीबाज
खुश हो गए दस लाख की गाड़ी पाकर
बच्चे को कान्वेंट पढ़ाकर
हो गई उनकी इतिश्री
गाड़ियों पर हूटर लगते ही
कुछ ने तो शहंशाह समझ लिया अपने आपको
आज आपके पास क्या नहीं है
हीनता और बुजदिली के अलावा
पर आप कभी नहीं चाहेंगे
कुलपति बनना, कमिश्नर बनाना
राज्यपाल या मुख्यसचिव बनना
क्योंकि वहां आरक्षण की बैसाखी नही मिली है
खुश हो मास्टर और क्लर्क कहाकर
बहुत पढ़ लिख चुके
बहुत हो चुका आपका विकास
अच्छा है जो आरक्षण को दीमक की तरह
खा ही जाए सत्ता
लुट जाए सारी जनता
वह जानती है सबल को भी चाहिए आरक्षण
अभी तो तुम बहुत निर्बल हो
एक आंबेडकर ही काफी था एक बड़ी भीड़ से
कितना बड़ा नैतिक बल था उसके पास
वह अपने वक्त का हीरो था
लिख रहा था नई इबारत 


7.

बाबा आंबेडकर / कर्मानंद आर्य

........................

करिया अच्छर भईस बराबर
लागत बा करबा गुड़ गोबर
अनपढ़ रह्या बहुत दुःख पाया
आपन तू यस सरग लुटाया
सुना मरदे ! पढ़िला दुई पाठ
आंबेडकर और बुद्ध के साथ 


8.

नया जमाना / कर्मानंद आर्य

........................

हमने तुम्हारा जंघिया धोया
तुमने हमें इकन्नी दी
हमने सिर की मालिश कर दी
आपने साहब चवन्नी दी
हम चवन्नी पा खूब इतराये
आंबेडकर की किताब घर ले आये
यह हमारी शुरुवात थी
मनुवादी किताबों में जिसे दिन लिखा था
पहली बार पता चला वह रात थी
हमने आपका दिया चार आना
व्यर्थ नहीं बहाया
उस पैसे से आंबेडकर जयंती मनाया
गली मुहल्ले के बच्चों ने
कुछ नया देखा नया पाया
तो कह उठे
अब परिवर्तन का युग आया
बाबा कौन सी किताब ले आया

9.
रमाबाई आंबेडकर / कर्मानंद आर्य
................................................
रमाबाई तुम एक जीवित गीत हो
जिसे हर युग अपने सधे शब्दों में साधता है
एक जीवित स्त्री की तरह
जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा  

तुम वह शक्ति हो जिसे पूजती है प्रकृति
जिसे पूजता है वन
जिसे निहारती है अनन्तरूप फैली नदियाँ

तुम्हारी ही शक्ति से
मुक्तिदाता को मिलता है मुक्तिबोध
आकाश दहाड़ता है बस तुम्हारे बल पर

तुम उस स्त्री की गाथा हो
जो ईश्वर से पहले आई
सबसे पहले किया प्रेम उस पुरुष से
जो ईश्वर का स्थानापन्न रहा

जो सलीब पर इसलिए लटकता रहा
ताकि दुनिया का दुःख दर्द जाता रहे
जो बुद्ध बना तो इसलिए
शेष रह गए थे कुछ दुःख बुद्ध के बाद

सिद्धों की जोगमाया थी उसके भीतर
योग जागता था कहीं अन्दर
पर वह योगीनहीं था

वह पुरुष था
तुम्हारा पौरुष था उसके भीतर
वह लड़कर जीतता था तुम्हारी शक्तियों से  

एक खेल जिसे बहुत अधूरा खेला गया
जबकि कुछ पाशे बिखरे रहे आसपास
तुम्हारे शहर में उन दिनों

दापोली आज भी कहीं है
तुम आज भी कहीं हो
नौ बरस की बालिका नहीं
नौ हजार वर्ष की दादी

हर बार कोई तुम्हें दुहराता है
घाटियों में उतरते किसी झरने के कंठ सा 
तुम एक छोटी सी पहाड़ी नदी हो रमाबाई
खुद में डूबी हुई एक आदिम लहर 

तुमसे पूछना चाहता हूँ रमाबाई
कुछ बहुत व्यक्तिगत प्रश्न
कुछ बहुत व्यक्तिगत सवाल

दुनिया अक्सर पूछती है तुमसे
पूछा भी जाना चाहिए अनुराग को वह पल
जो लगता है अभी बिलकुल अभी तक बचा है

उसे सब दुहराते हैं
लेकर तुम्हारा नाम
पर सच है वे भी मसीहा के प्रेम में
खोते हैं खुद को पाने तक

वह कौन सा गीत है
जिसे वे बार-बार गुनगुनाते रहे
अपने सबसे बुरे दिन में
तुम्हारे कंधे पर झुककर वह कौन सा गीत
तुम्हें सुनाते रहे बार-बार

वह कौन सी प्रेरणा तुमने दी
जिससे वे डटे रहे
क्रूर मनुष्यों के बीच

वह किस रंग की दुनिया है
जहाँ सिर्फ खिलते रहे जवा कुसुम के फूल
तुम्हारा ह्रदय सजाने के लिए


दुनिया के सबसे खूबसूरत हाथ
दुनिया की सबसे हैण्डसम  बाहें
किसे बुलाती रहीं बार-बार 

वह तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव
कैसे पिघलता रहा फौलाद
तुम्हारे तनिक स्नेह के स्पर्श से

तुमने महसूस किया होगा
कैसे उतरता रहा चाँद 
रोज तुम्हारे अहाते में

वह तुम्हारा पति ही था
जिसके शब्द हम अँधेरे में भी दुहराते हैं
तुमसे कुछ और भी पूछना चाहता हूँ
एक वह बात बताओ न
जिसपर तुम उनसे लड़ी बार-बार

 

वह कौन सा उपहार तुम्हें
लाकर देते थे अम्बेडकर
बताओ न रमाबाई !
 
10.

बाबा आंबेडकर

........................

करिया अच्छर भईस बराबर
लागत बा करबा गुड़ गोबर
अनपढ़ रह्या बहुत दुःख पाया
आपन तू यस सरग लुटाया
सुना मरदे ! पढ़िला दुई पाठ
आंबेडकर और बुद्ध के साथ 



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