शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

सामाजिक रूपांतरण, नवजागरण और आर्य समाज की हिंदी सेवा

 सामाजिक रूपांतरण, नवजागरण और आर्य समाज की हिंदी सेवा

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डॉ. रविता कुमारी


हिंदी साहित्य के इतिहास में जिसे भारतेंदु युग कहा जाता है उसका प्रारंभ उन्नीसवीं सदी के चौथे चरण के साथ हुआ और उस काल में जिस साहित्य का निर्माण हुआ उस पर नवजागरण की उन प्रवृत्तियो का प्रभाव है जिसका प्रादुर्भाव भारत में उन्नीसवीं सदी के मध्य में शुरू हो चुका था. हिंदी पट्टी यानी उत्तर भारत में इन प्रवृत्तियों के उभार के पीछे स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. बंगाल का भद्र लोक जिस तरह से राजा राममोहन राय के विचारों से प्रभावित था और सामाजिक रूपांतरण में अपना योगदान कर रहा था ठीक उसी तरह मध्य भारत में अनेक समाज सुधार के आन्दोलन मुखर रूप से इसी रुपान्तारण को बल दे रहे थे. इस काल में अनेक आर्य समाजी कवि, लेखक और साहित्यकार हुए जिसकी रचनाओं ने नवयुग को लाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हिंदी के समीक्षक यह मानते हैं कि इस युग में हमारे देश में राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नवचेतना उत्पन्न हुई थी, जिससे पराधीन भारत के नागरिकों में पुनः स्वाभिमान, आत्मगौरव तथा आत्मविश्वास के भावों को जागृत किया था. 


    नवजागरण के लिए भारतेंदु यूरोपीय ज्ञान विज्ञान को जितना आवश्यक मानते थे आर्य समाजी भी उससे कम नहीं मानते थे. आर्यसमाजियों ने आधुनिक ज्ञान विज्ञान पर जोर देने के बावजूद इसके लिए सिर्फ सरकारी स्कूलों को शिक्षा का जरिया नहीं माना, न ही सरकारी स्कूलों को पर्याप्त रूप में ठीक माना. उन्होंने भारतीय संस्कृति और भारतीय परिवेश की अपनी समझ सही गलत के मुताबिक अलग ढंग की शिक्षा संस्थाओं के निजी प्रयास को जरुरी समझा. नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु ने देशी भाषाओँ के साहित्य को जगह देने का काफी प्रयास किया था. १८८५ में लाहौर से बीए पास करने वाले लाला हंसराज ने प्रस्तावित डीएवी स्कूल के लिए अपनी सेवाएँ बिना वेतन के देने को तैयार हुए. एक ख़ास बात यह है कि इन स्कूलों के लिए उन राजा महाराजाओं ने अपनी धन संपदा को दान नहीं दिया जो ऐसा करके सरकार के प्रति अपनी वफादारी का इजहार करते थे बल्कि धन दिया शिक्षित मध्यवर्ग के लोगों ने. रस्साकशी नामक अपनी पुस्तक में ‘शिक्षा पर औपनिवेशिक राज्य का नियंत्रण और स्त्री शिक्षा’ के अपने आलेख में प्रोफ़ेसर वीरभारत तलवार लिखते हैं कि ‘देवियाँ गहने उतारकर कालेज के फंड में प्रदान कर देती थीं......मुसलमान भी कालेज के लिए चंदा दे रहे थे. 

    भारतीय नवजागरण की विशेषता थी कि वह यूरोपीय संपर्क से हासिल आधुनिक ज्ञान विज्ञान को आत्मसात करके, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के माफिक आत्मनिर्भर कोशिश करना चाहता था. हालाँकि नवजागरण काल में हिंदी-उर्दू पट्टी में यह कोशिश बहुत क्षीण दिखाई देती है. यहाँ मुस्लिम नवजागरण के दौरान पहले १९६२ में कायम हुआ देवबंद का दारुल उलूम और बाद में १८७७ में कायम हुआ अलीगढ़ कालेज अपनी सभ्यता और परिवेश से कटा रहा. हिंदूवादी मन जिस तरह की शिक्षा व्यवस्था की अपेक्षा कर रहे थे शायद मुस्लिम पर्सनल बोर्ड उससे सहमत नहीं था. यही समय है जब १७ साल से भी कम उम्र में भारतेंदु ने अपने भाई की मदद से 5-6 विद्यार्थियों को शिक्षा देना आरम्भ किया था. यह व्यक्तिगत शिक्षा के लिए किया गया सार्थक प्रयास था. 

    भारत में स्त्री शिक्षा का प्रारंभिक विकास औपनिवेशिक सरकार नहीं कर सकती थी. दरअसल उन्नीसवीं सदी में शिक्षा और खासकर स्त्रीशिक्षा का विकास भारतीय लोगों के द्वारा किया गया या भारतियों से प्रेम करने वाले यूरोपियों द्वारा. भारतियों के लिए स्त्रियाँ वैसे ही पवित्र चीज थीं जैसा कि उनका धर्म. उसमें कोई बाहरी दखल नहीं चाहता था. यही कारण है कि अंग्रेजों के आने के ठीक पहले तक न स्त्रियाँ शिक्षा के अधिकार से वंचित थीं बल्कि उनको संस्कृत जैसे विषय पढने की भी मनाही थी. भारतेंदु के समकालीन और शैयद अहमद के साथ डिप्प्टी नजीर अहमद ने १८६९ में स्त्री शिक्षा के लिए मिरातुल उरुस (स्त्री-दर्पण) किताब लिखी जिसमें दो बहनों की किताब के जरिये भद्रवर्गीय स्त्रियों को माँ, बहिन, बेटी और पत्नी के रूप में अपने परम्परागत कर्तव्यों को कुशलता के साथ करने की शिक्षा दी गई. हिंदी भाषा और नागरी लिपि का आन्दोलन चलाने वाले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक आचार्य मदनमोहन मालवीय भी स्त्रीशिक्षा के विरोधी थे. भारतेंदु चाहते थे कि लड़कियों की शिक्षा के लिए आधुनिक ज्ञान विज्ञान की जगह चरित्रनिर्माण, धार्मिक और घरेलू प्रबंध के बारे में बताने वाली किताबों को पाठ्यक्रम में लगाया जाय.इस मामले में आर्यसमाज और आर्यसमाजियों की शिक्षा प्रणाली को बहुत मान दिया जाना चाहिए कि उन्होंने शिक्षा के द्वार हर मनुष्य के लिए खोल दिया चाहे वह स्त्री, शूद्र, आदिवासी, वनवासी कोई भी हो. ‘मिरातुल उरुस’ यानी वामाशिक्षक की रचना आर्यों की लड़कियों को सामाजिक अंधविश्वास, रुढीग्रस्तता, और अशिक्षा से बचाने के लिए की गई थी. 


    हालाँकि स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके अनुयायी वर्ण व्यवस्था के पक्के अनुयायी थे किन्तु हिन्दू धर्म की बहुत सारी रुढियों को तोडना चाहते थे. उनका स्पष्ट नारा था कि वेदों की तरफ लौटो. हालाँकि भारतीय समाज का जिस तरह से रूपांतरण हो रहा था वह आधुनिक शिक्षा की हिमायती हो रही थी. वर्ण व्यवस्था ने जातिव्यवस्था का घृणित और विकृत रूप ले लिया था. किसी का संसार उसके कर्म से नहीं अपितु उसके जन्म से तय हो रहा था. यह एक घृणित व्यवस्था थी. वर्ण व्यवस्था को मानने का मतलब था आप जाति व्यवस्था के पोषक होंगे. इसके सूत्र हिन्दू ग्रंथों में पर्याप्त मात्रा में थे जो भेदभाव के उद्भावक थे. स्मृतियाँ इनमें प्रमुख थीं और उन्हीं में से ‘मनुस्मृति’ एक है जिसका आधुनिक काल में सबसे अधिक विरोध दलितों वंचितों ने किया. हालाँकि इसी नवजागरण के समानांतर सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले अपने ढंग से देश में शिक्षा की अलख जगा रहे थे. उन्होंने महाराष्ट्र में युगांतरकारी काम किया. उन्होंने शिक्षा को भद्रवर्ग के कब्जे से निकालकर, धार्मिक रुढियों से निकालकर, गरीब मेहनतकश जनता तक पहुँचाया. नवजागरण के दौर में फुले अकेले ऐसे सुधारक थे जिसने सरकारी शिक्षा के वर्गीय चरित्र को समझा और शिक्षा पर ऊँची जातियों के वर्चस्व को तोड़ने का वीणा उठाया. हंटर आयोग को दिए अपने बयान में उन्होंने ‘ब्राह्मणों के वर्चस्व’ सीमित करने के लिए निम्नवर्गों के बीच प्राथमिक शिक्षा दिलाने पर जोर दिया. वे भारत की गरीब जनता के बीच स्त्रीशिक्षा के प्रवर्तक थे. बेथुन से भी पहले १८४८ में जब मार्क्स-एंगेल्स कम्युनिस मेनिफिस्टो लिख रहे थे उसी समय फुले ने ब्राह्मणों के गढ़ पुणे में पहली बार कन्या पाठशाला खोली जिसमें मांग और महार जैसी दलित जातियों से आने वाली लड़कियों को शिक्षा देने की व्यवस्था की गई. एक शूद्र स्त्री सावित्रीबाई फुले पहली अध्यापक थी. धनंजय कीर ने उनके संघर्ष को उनकी जीवनी में बहुत विस्तार से लिखा है. 

    भारतेंदु के समकालीन स्वामी दयानंद सरस्वती स्त्री शिक्षा के घोर समर्थक थे. लड़कियों को सामान्य और विशेष दोनों प्रकार की शिक्षा देना चाहते थे. चाहे युक्त प्रान्त हो चाहे पंजाब प्रांत उनके अनुयायियों ने स्त्री शिक्षा को आगे ले जाने का भरसक प्रयास किया. कन्या गुरुकुलों कि स्थापना इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर की गई थी. स्त्री शिक्षा के लिए आर्य समाजियों की दूसरी संस्थाएं पुत्री पाठ शालाएं और कन्या पाठशालाएं सरकारी शिक्षा द्वारा चलाया जाने वाला पाठ्यचर्या, पाठविधि के अनुसार लड़कियों को शिक्षा दे रही थीं. पंजाब के नवजागरण में आर्यों के प्रयत्नों से ही बनी स्त्री शिक्षा की सबसे महत्वपूर्ण संस्था जालंधर का कन्या महाविद्यालय था जिसे लाला मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंद) की मदद से लाला देवराज ने १८९० में कायम किया था. आर्य समाज के इतिहासकारों के मुताबिक इसे बनाने का विचार १८८६ में तब आया जब उन्होंने अपनी बेटी को मिशनरी स्कूल में सीखा भजन ‘एक बार ईसा ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल’, गाते हुए सुना. इसी आर्य समाजी विचारों के कारण लाला देवराज को अपने पिता के घर को छोड़ना पड़ा. इसे स्त्री शिक्षा का आदर्श संस्थान माना गया.  ‘वामा शिक्षक’ में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिंदी भाषी समाज का यथार्थ चित्रण है जिसमें नवजागरण और स्त्री शिक्षा के अक्स देखे जा सकते हैं. इसकी कथा में एक विशेष प्रकार की सूत्रबद्धता , स्वाभाविकता और विश्वसनीयता है और कथा का आयाम भी विस्तृत है. यह नवजागरण की रचना है और इसपर आर्य समाज के व्यापक सुधारवादी आन्दोलन का प्रभाव को देखा जा सकता है. 

   

    ‘’हिंदी नए चाल में ढली, १८७३ ई.’’    - भारतेंदु : हिंदी की नई चाल का दावा करते हुए भारतेंदु ने जिस ‘आर्य भाषा’ को आगे बढ़ाया, वह साहित्य और पत्रकारिता के अलावा आगे जाकर शिक्षा और पाठ्यपुस्तकों की आदर्श भाषा हो गई. भाषा के इस रूप के चल निकलने के कारण १९ वी सदी के पश्चिमोत्तर प्रांत में भद्रवर्गीय हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का ऐतिहासिक सन्दर्भ था. सांस्कृतिक हिंदी को अपनी धार्मिक पहचान का प्रतीक बनाकर हिन्दू समुदाय उसके पीछे गोलबंद करने की कोशिश की गई. इससे दो मकसद पूरे होते थे- पहला मुसलमानों का हिन्दुओं से ज्यादा से ज्यादा अलगाव, दूसरे संस्कृतनिष्ठ भाषा के जरिये ही भद्रवर्गीय द्विज जातियों का नेतृत्व ज्यादा स्वाभाविक रूप से कायम हो सकता था. भाषा का यह रूप शुक्ल, मिश्र, भट्ट, मालवीय, उपाध्याय, पाठक, द्विवेदी, सिंह, अग्रवाल और दस वगैरह के पारिवारिक सामाजिक परिवेश और संस्कारों के ज्यादा निकट था. इसी का विकास छायावादी कविताओं में मुखर जिसमें कवि कोशों से कठिन संस्कृत शब्द ढूंढढूँढ़कर हिंदी कविता में बिछाने लगे. निराला की तुलसीदास कविता यहाँ द्रष्टव्य है – 

            कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम 

            चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम

और 

खुले तिर्यक दृग 

            पहनाकर ज्योतिर्मय स्ट्रक

जैसी पंक्तियाँ मिलती हैं. जब हिंदी आलोचक इस भाषा की ‘उदात्तता’ की तारीफ करते हैं तब उन्हें यह खबर नहीं रहती कि वे किस भाषा की तारीफ कर रहे हैं, हिंदी की या संस्कृत की. 


    ‘’१९ वी सदी में लम्बे दौर तक राजनीति सुधार का काम एक ऐसा काम रहा जिसका उसमें शामिल भारतियों के निजी जीवन से कुछ भी लेना देना नहीं था. उसमें छद्म किस्म की एक पेशेवर दौड़-धूप रहति थी जिसका पारिवारिक या व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्ध नहीं होता था. इसके उलट, धार्मिक और सामाजिक सुधारों का शिक्षित भारतीयों के व्यक्तिगत जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध था’’.   चार्ल्स एच. हिमसेथ 

    दयानंद सरस्वती ऐसे अकेले महत्वपूर्ण समाज सुधारक थी जिन्हें आधुनिक ढंग की शिक्षा नहीं मिली थी, फिर भी वे आधुनिक सुधार आन्दोलन के महत्वपूर्ण नेता हुए. यहाँ दो बातें ध्यान में रखना चाहिए. स्वामी दयानंद सुधार आन्दोलन के कार्यकर्त्ता और अनुयायी समाज के सबसे शिक्षित लोग थे. आर्यसमाज आन्दोलन का सामाजिक आधार हर जगह पश्चमी शिक्षा प्राप्त शहरी मध्यवर्ग था. उनके जीवनीकार जे.टी.ऍफ़ जॉर्डन ने इसे बहुत अच्छी तरह स्पस्ट किया है कि जब तक दयानंद साधू-सन्यासियों के मठों अखाड़ों में घूमते रहे या गावों की द्विज जातियों के बीच संस्कृत पाठशालाएं खोलकर अपने विचारों के ग्राहक तलाशते रहे, उन्हें रत्ती भर सफलता नहीं मिली. सुधारों की चेतना जगाने और उन्हें लागू करने में सफलता तब मिली जब वे कलकत्ता, बम्बई और लाहौर जैसे महानगरों में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भद्रवर्ग के बीच गए. 

    कुल मिलाकर १९ वी सदी का नवजागरण हर दृष्टि से बड़े शहरों के आधुनिक शिक्षाप्राप्त भद्रवर्ग का सांस्कृतिक आन्दोलन था जिसका सम्बन्ध व्यापक अशिक्षित जनता और गैर द्विज जातियों से बहुत कम था. राजनितिक साम्रदायिक कारणों से बाद में उनका शुद्धि आन्दोलन के जरिये कुच हद तक दलितों शूद्रों से बना और यह सम्बन्ध बहुत सीमित और सतही था. इस नवजागरण का भक्ति आन्दोलन से कुछ लेना देना नहीं था. 


    यह बात स्पष्ट कर देना बहुत जरुरी है कि आर्य समाजियों ने हिंदी की जितनी विपुल सेवा की शायद ही उतनी किसी अन्य संस्था ने की हो. आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जन्म से गुजराती भाषी थे और उनकी शिक्षा का माध्यम संस्कृत थी परन्तु समय की नजाकत देखते हुए उन्होंने आर्य भाषा की शरण ली और अपना महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ को हिंदी भाषा में लिखा. आर्य समाज ने हिंदी को जन मन की भाषा बनाने के लिए आर्य समाज की सभी संस्थाओं में हिंदी के व्यवहार को अनिवार्य कर दिया. स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा हंसराज, स्वामी सत्यानन्द अग्निहोत्री, प्रकाश कविरत्न, चरण सिंह पथिक तथा आर्य समाज से प्रभावित ऐसे हजारो लेखकों कवियों को पैदा किया जिन्होंने भाव, भाषा और अभिव्यंजना के स्तर पर हिंदी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया. 


आर्य समाज की हिंदी पत्रकारिता ने देश को राष्ट्रीयता, अपनी संस्कृति, धर्म चिंतन और अपने देशीपन के आस्वाद को देश के भीतर जगाने की कोशिश की. आर्य समाज ने ज्ञान मूलक और रसात्मक साहित्य की सर्जना करते हुए समाज का बहुत भला किया. आर्य समाज की विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रसारित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं मेंपवमान’, ‘आत्म शुद्धि पथ’, ‘वैदिक गर्जना’, ‘आर्य संकल्प’,‘वैदिक रवि’,,‘विश्वज्योति’, ‘सत्यार्थ सौरभ’, ‘दयानन्द संदेश’, ‘महर्षि दयानन्द स्मृति प्रकाश’,‘तपोभूमि’,‘नूतन निष्काम पत्रिका’, ‘आर्य प्रेरणा’ ,‘आर्य संसार’, ‘सुधारक’, ‘टंकारा समाचार’,‘अग्निदूत’, ‘आर्य सेवक’, ‘भारतोदय’, ‘आर्य मुसाफिर’, ‘आर्य सन्देश’, ‘आर्य मर्यादा’,‘आर्य जगत’,‘आर्य मित्र’,‘आर्य प्रतिनिधि’, ‘आर्य मार्तण्ड’, ‘आर्य जीवन’,‘परोपकारी’, ‘सवंर्द्धिनीआदि मासिक,पाक्षिक वार्षिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं जिससे हिन्दी पत्रकारिता को नव्य आलोक मिल रहा है.

    द्विवेदी युगीन कवि प्रकाश कविरत्न का यह गीत तो करोड़ो आर्य समाजियों की जुबान पर आज भी विद्यमान है :

                वेदों का डंका आलम में

बजवा दिया ऋषि दयानंद ने 

हर जगह ओम का झंडा फिर 

फहरा दिया ऋषि दयानंद ने 



नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ ने अपने गीतों के माध्यम से लोगों को खूब जगाया था. आपने एक ओर जहाँ आर्य समाज के सिद्धांतों की कवितायें लिखी वहीँ पर राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना सक्रिय योगदान दिया और भीषण यातनाएं सही. आपने जेल जीवन की कठिनाइयों का वर्णन करते हुए लिखा था कि :


नंगी देह पर उड़ाते चाबुक थे अधिकारी

किन्तु थी हमारे लिए फूल कि सी झड़ियाँ 

स्वाद आता था सुधा सा, रुखी सूखी रोटियों में 

मारे भूख जब सूख जाति थी अंतड़ियाँ 

खड़ी बोली पर उनके कवित्त बहुत अनुपम समझे जाते हैं. उन्होने साहित्य की पुरानी अंध परंपरा को छोड़कर देश की आर्थिक दुरावस्था, किसानों की दुर्दशा आदि का बहुत मार्मिक चित्रण किया है. उन्हीं की कविता है कि :

कैसे पेट अकिंचन सोया रहे, बिन भोजन बालक रॉय रहे 

चीथड़े तक भी न रहे तन पर, धिक् धूल पड़े इस जीवन पै 

यहाँ पर राष्ट्रकवि दिनकर की याद आती है जो लिखते हैं :

            स्वानों को मिलता दूध भात, भूखे बच्चे अकुलाते हैं

            माँ की हड्डी को पकड़ पकड़ वे सूखा मांस चबाते हैं


भारतेन्दुकालीन हिंदी कविता संक्रमणकालीन भारतीय समाज को वाणी देती है. रचनाकार की चेतना धर्म, राजनीति, समाज तथा राजनीति आदि के संस्पर्श से बलवती होती है. हिंदी में अगर भारतेंदु ‘भारत दुर्दशा’ की बात करते हैं या मैथिलीशरण गुप्त ‘गुरुकुल’ ‘सामधेनी’ ‘हुंकार’ जैसी रचनायें देते हैं तो उसपर स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके द्वारा चलाये जा रहे अभियान का बहुत बड़ा हाथ है. एकाएक भारतीय संस्कृति, सभ्यता, विचार का यह आन्दोलन जन्म नहीं लेता है अपितु इसपर बहुत सारी परिस्थितियां काम करती हैं. हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प सर्वप्रथम आर्यसमाज ने ही किया था. 


शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के परिनिर्वाण दिवस पर सम्मानित हुए डॉ. रविकांत डॉ. कर्मानंद आर्य

गया शहर में कुलपति आवास रोड- स्थित ज्ञान भारती वर्ल्ड स्कूल के परिसर में आज दिनांक 12/12/21 दिन रविवार को ‘पर्वत पुरुष बाबा दशरथ मांझी उत्थान सेवा संस्थान’ के तत्वावधान में भारत रत्न बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर महापरिनिर्वाण दिवस समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण मांझी ने की। 





समारोह को संबोधित करते हुए बिहार सरकार के कैबिनेट मंत्री डॉ. संतोष कुमार सुमन ने कहा कि बाबा साहब के बताए मार्ग पर चलकर ही समाज के अंतिम पायदान पर गुजर-बसर कर रहे लोगों का सर्वांगीण विकास संभव है. अनुसूचित जाति/ जनजाति के विकास के लिए राज्य सरकार अनेकानेक योजनाएं चला रही है । ऐसे कार्यक्रम योजनाओं का लाभ लेने में जागरूकता लाएं और कहीं भी दिक्कत हो तो लक्ष्मण मांझी जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं से संपर्क में रहें । आपके साथ हर वर्ग के लोगों के विकास के फार्मूला पर सरकार चल रही है ।



डॉ. रविकांत ने कहा कि बाबा साहब ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनका लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है. बाबा साहब के विचारों पर चलकर ही इस देश का भला हो सकता है. बाबा साहब ने देश निर्माण के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया. युवाओं को बाबा साहब से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है.


डॉ. कर्मानंद आर्य ने बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था कि जीवन लम्बा नहीं बल्कि महान होना चाहिए. हमें अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए महान संकल्प लेने की जरूरत है. यदि हमारे समाज में आर्थिक समानता नहीं लायी गई तो सामाजिक समानता का सपना अधूरा ही रह जायेगा. 



हम पार्टी के जिला वरीय उपाध्यक्ष रामेश्वर प्रसाद यादव ने उपस्थित श्रोतागण से आग्रह किया कि जिस दिन लोग बाबा साहब के विचारों से परिचित होकर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा कि ओर आने की बजाय  विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय जाना शुरू करेंगे उसी दिन से शिक्षित बनो संगठित हो और संघर्ष करो का बाबा साहब का सपना पूरा होगा.


 आयोजक लक्ष्मण मांझी ने कहा कि बाबा साहब ने कहा था कि भारत के संविधान पढ़ते हुए हमें कर्तव्य और अधिकार का बोध रहना चाहिए. हमें मौजूद धर्म नहीं इंसानियत धर्म के लिए लोगों को तैयार करना पड़ेगा इस दुनिया के इन्सान एक जाति के के हैं और इन्सानियत ही उसका धर्म है| जिस दिन हम लोग बाबा साहब के मार्ग पर हम लोग चल पड़े उसी दिन सच्ची आजादी हमलोग को मिल जाएगी|  रंजीत कुमार मांझी, रवि कुमार, राजू, विलास, देवराज, छोटू कुशवाहा, नंदलाल, शंकर, रोमिल कुमार आदि ने अपने विचार को व्यक्त किया। 



कार्यक्रम में नहर मैंन - लॉन्गी भइया, दशरथ मांझी सुपुत्र- भगीरथ मांझी, रामेश्वर प्रसाद यादव –उपाध्यक्ष, सत्येंद्र राय, टूटू खान शंकर मांझी – वकील, नंदलाल मांझी, लालजीत मांझी, दीना मांझी, छोटू कुशवाहा, सत्येंद्र गौतम मांझी-सीनेट सदस्य, रोमित कुमार –प्रधानाध्यापक, सुरेंद्र मांझी -जिला परिषद, मोमताज आलम, फेंकू दास – सरपंच, भोला मांझी, तौसीफुर रहमान खान, सत्येन्द्र कुमार रामरतन कुमार, उषा कुमारी, कुमारी प्रज्ञा, डॉ. रविता कुमारी, केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कई प्राध्यापक, शोधार्थी, सामाजिक कार्यकर्त्ता आदि उपस्थित रहे. कार्यक्रम का संचालन जयकी राज, संतोष कुमार ने संयुक्त रूप में किया.


इस अवसर पर दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय के डॉ. रविकांत और डॉ. कर्मानंद आर्य को 'बाबा दशरथ मांझी शिक्षा सेवा पुरस्कार' संस्थान की ओर से प्रदान किया गया. कार्यक्रम के अंत में संस्थान के अध्यक्ष लक्ष्मण मांझी ने सबका धन्यवाद किया. 


रिपोर्ट : विनय यादव, रामरतन कुमार, गायत्री कुमारी, सतेन्द्र कुमार एवं कुमारी प्रज्ञा, फोटो सौजन्य : रविरंजन कुमार निलय  

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