बुधवार, 24 मई 2017

भीम सेना : जाति नहीं अस्मिता और आत्म सम्मान की लड़ाई


किसी चूतिये की एक पंक्ति याद आ रही है :

बारह बरस तक कूकुर जीवे अरु सोलह तक जिए सियार
बरस अठारह क्षत्रिय जीवे, आगे जीवे तो धिक्कार

क्षत्रिय, मतलब अपनी मान-मर्यादा और अहंकार के सामंतवादी नजरिये से जीने वाले धनपिपासु. मर्यादा पुरुषोत्तम. देश और समाज की रक्षा करने वाला. लेकिन रक्षक ही भक्षक बन जाए यानी की ‘वर्दी वाला गुंडा’ तो क्या हो?
जेब में कौड़ी न हो पर ‘ठकुरसुहाती’ कभी न जाये. बिच्छू की तरह का ‘कोकून’ जो अपने लोगों को ही सबसे पहले खा डालता है.
ब्राह्मणवादी ढाँचे में बुद्धिबल की जगह ‘डंडे’ के बल पर नाचने वाला.
कल मुझे किसी ने कहा कि आप जातिवादी हैं.
मैंने कहा मैं जातिवादी हूँ तो आप क्या हैं?
आप जाति नहीं मानते क्या?
तो उनका कहना था, नहीं-मैं जाति बिलकुल नहीं मानता.
मन में आया कह दूँ ‘चूतिये’ सारा कर्मकांड अपनी जाति में करते हो और कह रहे हो कि जातिवादी मैं हूँ.
पर मैंने बहुत ही विनम्रता से कहा – सर, मैं जाति को मानता हूँ.
रैदास और कबीर भी जाति को मानते थे.
आपके पूर्वज जाति को नहीं मानते थे फिर भी ‘जाति का मैला’ आज तक ढो रहे हैं.
जो कहता है मैं जाति नहीं मानता वह मेरी नजर में सबसे बड़ा जातिवादी है.
वही महोदय हैं जिन्होंने मेरी कविता में आये ‘घास खाने वाले’ पद को लेकर घोर टिप्पणी की थी.
उसे राजा ‘रणछोड़’ तक से जोड़ लिया था.   
यह एक ढांचा है. हथियार बंद देवता से लेकर परसुराम तक चलेंगे.
अपनी महिलाओं के हाथ में कलम तो दी नहीं पर उन्हें हथियार जरुर थमा दिया.

एक सच्ची घटना सुनाता हूँ. हमारे गाँव के आसपास रहने वाले दलित समुदाय के लोगों ने जब ठाकुरों, ब्राह्मणों और दूसरी दबंग जातियों के खेत में जब काम करना छोड़ दिया तब अब वे ही मजदूरों की तरह अपने खेतों में लगे दिखाई देते हैं. उनकी औरतें जिनका असली पेशा ही ‘संजना-संवरना’ था वे अब धान गेंहूँ कांटने लगी.
दलितों में आत्म सम्मान आया और उन्होंने ठान लिया कि भूखे मर जायेंगे पर इन ‘गदहों’ की गुलामी नहीं करेंगे
आज स्थिति बदली हुई नजर आती है. लोग शहर कमाने चले गए.

आज वही महोदय कह रहे थे ‘भीम आर्मी’ पर लिखो.

यह लोग जातिवादी सेना क्यों बना रहे हैं?
उसकी निंदा करो.
मैंने कहा महोदय – अभी तो यह शुरुआत है.
अभी तक आपकी ‘सेना’ बानरों को मूर्ख बनाकर ‘लंका’ जीत रही थी.
अब बानरों को पता चल गया है कि लंका किसी राम की बपौती नहीं है.
रही बात भीम सेना की तो उसमें कुछ गलत नहीं है.
अपनी सुरक्षा के लिए लोग अगर ‘कदम’ उठा रहे हैं तो उसमें गलत क्या है?
ईंट का जबाब ईंट से और गोली का जबाब गोली से.
बस, जब उत्पीड़ितों में चेतना आ जाए कि उनका शोषण हो रहा है जो समझ लो क्रांति आयेगी.
अभी चिंगारी फूटी है, इसे आग का रूप लेने दीजिये.

देश का सारा मैला हमारे भंगी भाई उठाते हैं.
उनमें आत्म सम्मान रत्ती भर नहीं है.
जिस दिन उनमें चेतना आ जायेगी उस दिन सारे ‘चुटिया धारी’ अपना नाला-परनाला खुद साफ़ करते नजर आयेंगे.
बस उनके अन्दर यह भावना आये कि अब यह घृणित कर्म छोड़ देना है.
मर जायेंगे पर आत्म सम्मान की रोटी खायेंगे.
उन्हें यह नहीं पता कि ‘चुटियाधारी’ बैजवाडा विल्सन को पुरस्कार दे देगा और बिन्देश्वरी पाठक के हाथों अपना शोषण करवायेगा.
‘भीम आर्मी’ उनके भीतर चेतना लाने का काम करेगी.
‘मायावती’ ‘राम विलास’ ‘उदित राज’ और ‘जीतन मांझी’ की स्वार्थी राजनीति दम तोड़ रही है.
इनका तो वही होना है-धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का.

यह लड़ाई अस्मिता और आत्म सम्मान की है.

बुद्ध की जरूरत है पर उससे पहले ‘युद्ध’ की जरूरत है.     


एक सेना बार्डर पर लड़ेगी और दूसरी सेना ‘गद्दारों’ से..................

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

प्रेम, विमर्श और सामाजिक क्रांति की अग्रदूत : सावित्रीबाई फुले


























(दलित अस्मिता वर्ष-7, अंक 26, जनवरी-मार्च 2017 अभी अभी डाक से प्राप्त हुई. पत्रिका के हर अंक का इन्तजार अब बहुत बेसब्री से रहता है. मुख्यधारा की एकाध पत्रिकाओं को छोड़ दें तो जितना वैचारिक समृद्धि और कलेवर इस पत्रिका का है वह किसी अन्य जगह दिखाई नहीं देता है. पत्रिका ने कुछ ही वर्षों में अपनी अगल पहचान बनाई है. मुक्तकामी अस्मिताओं के आत्मगौरव और संघर्ष के लिए कई और पत्रिकायें अपने बेहतरीन रूप में उपलब्ध हैं पर इस पत्रिका का आस्वाद ही अलग है. इसके लिए इसके सम्पादक ‘विमल थोराट’ और सहायक सम्पादक ‘दिलीप कठेरिया’ विशेष साधुवाद के पात्र हैं. ‘सेंटर फॉर दलित लिटरेचर एण्ड आर्ट’ की यह त्रैमासिक हर बार अपने नए कहन और कथ्य से हम पाठकों को समृद्ध करती है. पत्रिका का यह अंक राष्ट्र-माता सावित्रीबाई फुले को केंद्र में रखकर विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है. कई गणमान्य लोगों के साथ मेरा भी एक आलेख इस पत्रिका में प्रकाशित है. प्रस्तुत है आलेख ........)  


साहित्य समाज का दर्पण है. जैसे ही आप उस दर्पण रूपी समाज की पहचान करने लगते हैं साहित्य की पोल खुलती चली जाती है. समाज का अंतर्विरोध साहित्य में है. तो क्या हम मान लें कि साहित्य में सभी तरह का समाज है? क्या कोई ऐसा समाज भी है जो साहित्य में नहीं है या बिलकुल गौण है? समाज की सच्ची तस्वीर तो यह है कि इस देश में हजारो सालों तक समाज के नब्बे प्रतिशत लोगों को पढ़ने के अधिकार से वंचित रखा गया. उनके सोचने-समझने पर शास्त्र का पहरा बैठा दिया गया. जिसने बोलने की कोशिश की उसके मुख में जलता पारा डाला गया, जिसने लिखने पढ़ने की कोशिश की उसका अंगूठा काट दिया गया. फिर देश के दस प्रतिशत लोगों ने यहाँ का साहित्य, समाज, राष्ट्र, संस्कृति का ठेका लेकर जो चाहा लिखा.
हिंदी को आलोचकों ने लोकल से लेकर ग्लोबल बनाया बनाया, आधुनिकता आई, फिर हिंदी उत्तराधुनिक भी हो गई. किसी ने यह पड़ताल नहीं की कि आखिर भारतीय समाज की वास्तविकता क्या है? क्या वह वास्तव में खुद को मध्यकाल से कभी अलग कर पाया? क्या वह हजारो सालों से दस प्रतिशत द्वारा देखी जाने वाली वास्तविकता है या उसका स्वरूप कुछ भिन्न भी है?  अगर हम समाज के सच्चे सेवकों के नाम ढूढने चलें तो उनकी संख्या अँगुलियों पर गिनी जा सकती है. हिंदी साहित्य पर गांधी का बहुत प्रभाव है. वहां से आगे चले तो उसकी प्रेरणा भूमि बंगाल तक जाती है. पर हिंदी साहित्य की विडंबना देखिये कि अपने ज्ञान और मेधा का लोहा मनवाने वाले डॉ. आंबेडकर, उनके प्रेरणा पुरुष ज्योतिबा और क्रांति ज्योति सावित्रीबाई का कोई प्रभाव हिंदी आलोचक नहीं देख पाते तो उसका क्या कारण हो सकता है. यही बात जब भारत में शिक्षा पर होती है तो बहुत सारे शिक्षा विदों का नाम लिया जाता है पर शिक्षा और समाज के लिए जान लगा देने वाले सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले का जिक्र मुख्यधारा के लोग नहीं करते हैं तो इसका क्या कारण है. 2017 में पहली बार सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन पर गूगल ने डूडल बनाया, इसी से उनके महत्व को पहचाना जा सकता है.

हमारे इस आलेख के केंद्र में वही क्रांति ज्योति सावित्रीबाई फुले हैं जिनके सदप्रयासों से करोड़ो नारियों के जीवन में परिवर्तन संभव हुआ. सावित्रीबाई फुले का जन्म 1831 ई. में महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव नायगांव में हुआ. जिस कालखंड में उनका जन्म हुआ वह समय भारतीय समाज में शूद्र दलितों के साथ भयंकर छुआछूत, भेदभाव, हिंसा और अत्याचार का समय था. स्त्रियों को शिक्षा, संपत्ति, न्याय स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त नहीं था. उनकी जिन्दगी पशुतुल्य थी. सावित्रीबाई फुले और सावित्रीबाई फुले समाज की बुराइयों से ताजिंदगी लड़ते रहे.
19 वीं शताब्दी के पुनर्जागरण एवं सामाजिक क्रांति के अग्रदूत फुले दंपत्ति ने शोषणमुक्त स्वस्थ्य समाज की स्थापना हेतु स्त्री एवं दलित उत्थान में अपना अमूल्य योगदान दिया. शूद्र, अतिशूद्र एवं सभी वर्गों की स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु शिक्षा प्रसार-प्रचार को आवश्यक मानते हुए सहशिक्षा पाठशालायें, कन्या पाठशालायें, भारत की प्रथम रात्रि पाठशालायें, महिला छात्रावास आदि खुलवाये. 1882 में हंटर कमीशन के समक्ष प्राइमरी शिक्षा को अनिवार्य व निशुल्क करने हेतु प्रस्तुत प्रतिवेदन फुले दंपत्ति का ही था. यहाँ यह कहना सार्थक होगा कि सावित्रीबाई फुले पर उनके पति और तत्कालीन क्रांतिद्रष्टा ज्योतिबा फुले का बहुत प्रभाव पड़ा. सहजीवन में रहते दोनों ने क्रांति की मशाल को कभी बुझने नहीं दिया. इस अँधेरे समय में इन वर्गों के उत्थान के लिए किया जाने वाला फुले दंपत्ति का काम बहुत ही सराहनीय था. समाज में बालविवाह की घृणित परंपरा व्याप्त थी.
घर पर स्वयं शिक्षा प्राप्त करने के बाद फुले दंपत्ति ने 1 जनवरी 1848 को पुणे स्थित भिड़े की हवेली में लड़कियों के लिए प्रथम पाठशाला का शुभारम्भ किया. यह अपने समय का सबसे क्रांतिकारी समय था. प्रारंभिक तौर पर इसमें कुल छह लड़कियां थीं जिनमें सावित्रीबाई एक थीं. सामाजिक क्रांति का यह कारवां रुका नहीं अपितु उन्होंने 15 मई 1848 को पुणे की हरिजन बस्ती में एक ऐसा स्कूल खोला जिसमें लड़के और लड़कियां सामान रूप से शिक्षा प्राप्त कर सकते थे. पुणे में ही फुले दंपत्ति ने एक सभा आयोजित की जिसमें साठ से अधिक लोग उपस्थित हुए जिसमें सभी जातियों और वर्गों के लोगों की उपस्थिति थी. ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट है कि आधुनिक युग में सामाजिक क्रांति का विचार ही सर्वप्रथम फुले दंपत्ति ने दिया. भगवान बुद्ध के बाद फुले दंपत्ति ने इस देश में महिलाओं के प्रति फैले आडम्बर एवं जटिल कुरीतियों को सशक्त एवं सार्थक चुनौती दी.
भारत में बहुत से सुधारक हुए. कईयों ने उसके लिए अपना जीवन लगा दिया. वर्ण, जाति, क्षेत्र की परेशानियां हैं कि दूर होने का नाम तक नहीं लेती हैं. दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में जिन चार क्रांतियों का जिक्र करते हैं वे वस्तुतः युद्ध की उसी बर्बर संस्कृति को बताती हैं जिन्हें ब्राह्मणी संस्कृति पोषण करती रही है. उन्हें बुद्ध और फुले की क्रांति चेतना कहीं भी दिखाई नहीं देती है. यह सच है कि इन पचीस सौ वर्षों की लम्बी अवधि में अनेक साधु-संतों ने जन्म लिया. बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर का कहना था कि ‘इन महात्माओं ने बहुत धूल-मिट्टी उड़ाई किन्तु जाति पीड़ित लोगों का स्तर ऊपर नहीं उठा सके. लेकिन बुद्ध के बाद अगर इन लोगों के उत्थान के लिए लिए किसी ने सच्ची कोशिश की तो वे फुले दंपत्ति ही थे. यही कारण है कि हम फुले दंपत्ति को आधुनिक भारत के ‘सामाजिक क्रांति के प्रणेता’ के रूप में स्मरण करते हैं. बालविवाह, विधवा विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बालिका वध, बहु-विवाह, अशिक्षा जैसे जाने कितने अत्याचार स्त्रियों पर किये जाते थे. उन्हें देवदासी बनाकर उनका शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता था. स्त्रियाँ किसी तरह का प्रतिरोध नहीं कर पाती थीं और संपत्ति पर कोई अधिकार नही होने के कारण शोषण का शिकार भी रहती थीं. यह स्त्रियों, दलितों और बहुजनों के लिए बहुत संकट का समय था. चारो तरफ अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता था. स्त्री को केवल वासना पूर्ति मात्र का साधन समझा गया था. स्त्री को शिक्षा पाने का कोई अधिकार नहीं था.
सावित्रीबाई फुले ने अपना पूरा जीवन दलितों, मजलूमों और स्त्री अधिकारों और उनके संघर्ष के लिए लगा दिया. अपने समय में उन्होंने महाराष्ट्र की सत्ता शाही और पेशवाई तथा ब्राह्मणराज का खुलकर विरोध किया. अपने समय में व्याप्त दलित शूद्र विरोधी रुढियों और आडम्बरों से अपने समाज को चेताया. उन्होंने मजबूती के साथ ऐसे गढ़ और मठ तोड़े जो समय सापेक्ष बहुत जरुरी थे. स्वयं रचित साहित्य जिसका उन्होंने प्रतिक्रियावादी ताकतों को कड़ा जबाब देने के लिए बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल किया. सावित्रीबाई फुले के साहित्य में उनकी कविताएं, पत्र, भाषण, लेख, पुस्तकें आदि शामिल है. सावित्रीबाई बाई फुले ने दो काव्य पुस्तकों की रचना की जिनमें उनका पहला काव्य-फुले 1854 में तब छपा जब वे मात्र तेईस वर्ष की ही थीं. दूसरा उनका काव्य-संग्रह बावनकशी सुबोधरत्नाकर 1891 में आया, जिसको सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनसाथी ज्योतिबा फुले की परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद उनकी जीवनी रूप में लिखा था. अपनी कविताओं में उन्होंने प्रेरणा की आग भरी. अपने लोगों को कविता के माध्यम से चेताया और जागरूक किया. उस समय किसी स्त्री का कविता लेखन और वह भी शूद्र समुदाय से आने वाली, यह सबको स्तब्ध करने वाली घटना थी. पर समय रहते उन्हें ठीक से पहचान नहीं मिली. ब्राह्मणवादी संस्कृति ने इतिहास, कला और साहित्य में उन्हें पनपने नहीं दिया.
साहित्य की दुनिया विचारों की दुनिया है. विचार के लिए चाहे गुरु-शिष्य परंपरा हो या विदग्ध लोगों का समुदाय, उनके बीच बातचीत और शास्त्रार्थ जरुरी है. बात-चीत बहुत लंबा अंतराल गुजर जाता है और संवादहीनता बनी रहती है. या अमूमन होता यह है कि शुक्ल, मिश्रा, पाठक, तिवारी, अग्रवाल लिखते हैं शर्मा, सिंह, पांडे साहब पढ़ते हैं और  द्विवेदी, राय, शाही वाह-वाह करते हुए एक आलोचना लिख देते हैं. लेखक भी वही, प्रकाशक भी वही, समीक्षक भी वही. दस प्रतिशत इन्हीं विदग्ध लोगों का समुदाय हिंदी का भाग्य विधाता है. विश्वविद्यालयों में बैठे मठाधीश कब किसे कवि, आलोचक, बड़ा साहित्यकार बना दें कब किसे  किसी बड़े पुरस्कार से नवाज दें, कुछ कहा नहीं जा सकता. हिंदी अकादमियों,  साहित्य अकादमियों,ज्ञानपीठों में जो अँधा बांटे रेवड़ी, आप-आप को देय' स्वयं को विश्वसाहित्य और सभी मनुष्यों की बात करने वाला साहित्य के हजार वर्षों में कभी यादव जी, पटेल जी, वर्मा जी, दुसाध जी को जगह नहीं मिली? समाज की इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण सावित्रीबाई या ज्योतिबा जैसे सशक्त रचनाकार साहित्य के फलक पर ठीक से सामने नहीं आ पाए.
    
सत्रहवी-अठारहवी उपनिवेश बनाने की शताब्दी थी, उन्नीसवीं उसके वैचारिक विस्तार की. बीसवीं इस मानसिक, भौगोलिक उपनिवेशों को तोड़ने की. इक्कीसवीं सदी सूचना साम्राज्यवाद की सदी है जिसमें विचार सूचना में बदल चुका है. ऐसी सूचना जिससे लड़ा नहीं जा सकता, केवल स्वीकार किया जा सकता है’. आज वही समय है जब हाशिये पर पड़े हुए लोगों को उनके पूरे मान सम्मान के साथ साहित्य के फलक पर स्थापित करना है. हिंदी में यह बड़ा काम हिंदी की प्रमुख दलित रचनाकार अनीता भारती ने किया है. ‘विद्रोह की मशाल है सावित्रीबाई फुले की कविताएं’ नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में अनीता भारती लिखती हैं कि ‘यह जानकर गहरा आश्चर्य होता है कि 18 वीं शताब्दी में भारत की पहली अध्यापिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रखर, निर्भीक, चेतना सम्पन्न, तर्कशील, दार्शनिक, स्त्रीवादी ख्याति प्राप्त लोकप्रिय कवयित्री अपनी पूरी प्रतिभा और ताकत के साथ उपस्थित होती है और किसी की उन पर निगाह भी नहीं जाती या फिर दूसरे शब्दों में कहूं तो उनके योगदान पर मौन धारण कर लिया जाता है. सवाल है इस मौन धारण का, अवहेलना और  उपेक्षा करने का क्या कारण है? क्या इसका एकमात्र कारण उनका शूद्र तबके में जन्म लेना और दूसरे स्त्री होना माना जाए’ ?[1]
स्त्रीकाल के ऑनलाइन संस्करण के अपने एक आलेख में ललिता धारा लिखती हैं कि ‘19वीं सदी के महाराष्ट्र का शायद ही कोई ऐसा सार्वजनिक व्यक्तित्व होगा, जिसे इतना कम जाना-समझा गया है, जितना कि सावित्रीबाई फुले को. उनके गृह प्रदेश महाराष्ट्र में भी उन्हें मुख्यतः महात्मा फुले की पत्नी या अधिक से अधिक लड़कियों को पढ़ाने वाली पहली भारतीय महिला के रूप में जाना जाता है. परंतु सावित्रीबाई का व्यक्तित्व बहुआयामी था. उन्होंने कई ऐसे काम किए, जिनके बारे में उनसे पहले किसी ने सोचा भी न था. वे एक ऐसी सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जो जाति और लिंग से जुड़े मुद्दों को न केवल अपनी लेखनी और अपने भाषणों द्वारा उठाती थीं वरन वे मैदानी स्तर पर काम करने से भी पीछे नहीं हटती थीं.‘’[2]
मुक्तिबोध अपनी पुस्तक ‘मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू’ में लिखते हैं कि ‘किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए. एक तो यह कि वह किन सामाजिक, मनोवैज्ञानिक शक्तियों के कार्यों का परिणाम है. दूसरा इसका अंतर्स्वरूप क्या है? तीसरा उसके प्रभाव क्या हैं? किन सामाजिक शक्तियों ने उसका सदुपयोग या दुरुपयोग किया है और क्यों? क्या उसने कभी साधारण जन के मानसिक तत्वों को विकसित या नष्ट किया है? सावित्री अपनी कविताओं में उन्हीं प्रेरणा तत्वों को खंगालती हैं जो समाज में भेदभाव को जन्म देते रहे हैं. उन्होंने समय रहते यह समझ लिया था कि गरीबों, दलितों, शूद्रों और अस्पृश्यों को शिक्षा से वंचित रखकर उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. वे जान गई थी कि शिक्षा उस शेरनी का दूध है जिसे पाकर कोई भी दहाड़ सकेगा. उन्होंने अपनी कौम के लोगों को शिक्षित होने की प्रेरणा ही नहीं दी बल्कि उसे अपने जीवन में ठीक वैसे ही उतार लिया. वे अपनी कविता में धर्म, जाति, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के गठजोड़ पर कड़ा पर प्रहार करती हैं:
            "हमारे जानी दुश्मन का नाम है अज्ञान
उसे धर दबोचो, मजबूत पकड़कर पीटो"[3]     
अभी तक दलितों, वंचितों और स्त्रियों को ऐसा घोड़ा बना दिया गया था जिसकी आँख के बगल में पट्टी लगी होती है और वह उतना ही देख पाता है जितना उसका मालिक उसको दिखाता है. उन्होंने उस पट्टी को हटाने का काम किया ताकि दलित, आदिवासी, शूद्र और स्त्री बाहर की विशद दुनिया का दर्शन कर सकें. वे जानती थीं कि अशिक्षा रूपी अज्ञानता के कारण ही पूरा बहुजन समाज सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना है. इनके पाखंड और कूटनीति के हथियार ज्योतिष, पंचाग, हस्तरेखा आदि पर व्यंग्य करती हुई सावित्री बाई फुले कहती है –
ज्योतिष पंचाग हस्तरेखा में पड़े मूर्खों / स्वर्ग नरक की कल्पना में रूचि
पशु जीवन में ऐसे भ्रम की जगह न कोई / मूर्ख मकड़जाल से निकले न ही
हाथ पर हाथ धरे-बैठे मूर्खों निठल्लो को / कैसे इन्सान कहे?[4] 
अनीता भारती सावित्रीबाई फुले हिंदी कविताओं की को कोट करते हुए उसकी संदर्भिक भूमिका में लिखती हैं कि ‘वे शूद्रों के दुख को, जाति के आधार पर प्रताड़ना के दुख को दो हजार साल से भी पुराना बताती है. सावित्रीबाई फुले इसका कारण मानती है कि इस धरती पर ब्राम्हणों ने अपने आप को स्वयं घोषित देवता बना लिया है और उसके माध्यम से यह स्वयं घोषित ब्राह्मण देवता अपनी मक्कारी और झूठ फरेब का जाल बिछाकर, उन्हें डरा-धमका कर रात-दिन अपनी सेवा करवाते है. सावित्रीबाई अपनी कविता में लिखती हैं कि :
              दो हजार साल पुराना / शूद्रों से जुड़ा है एक दुख
ब्राह्मणों की सेवा की आज्ञा देकर / झूठे मक्कार स्वयं घोषित
भू देवताओं ने पछाड़ा है.[5]
       सावित्रीबाई फुले जिन स्वतंत्र विचारों की थी, उसकी झलक उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से मिलती है. वे लड़कियों के घर में काम करने, चौका बर्तन करने की अपेक्षा उनकी पढाई-लिखाई को बेहद जरूरी मानती थी.  शिक्षा ही ऐसा टूल है जो उन्हें बराबरी का हक दिला सकता है. कविताओं की निम्न पंक्तियों से पता चल जाता है कि सावित्रीबाई फुले स्त्री अधिकार चेतना सम्पन्न स्त्रीवादी कवयित्री थी जो स्त्री के कल्याण के लिए तन मन से समर्पित थीं. वे लिखती हैं कि :
                    "चौका बर्तन है बहुत जरूरी है पढ़ाई
 क्या तुन्हें मेरी बात समझ में आई?"
सावित्री के जीवन में केवल कोरी बौद्धिकता ही नहीं है. वे अपने खुद और अपने अपने परिवेश से खुलकर प्रेम करती हैं. जो अपने सहजीवन में प्रकृति से प्रेम नहीं कर सकता वह अपने परिवेश से कैसे प्यार करेगा. काव्यफुले में उनकी कई सारी कविताएं प्रकृति, प्रकृति के उपहार पुष्प और प्रकृति का मनुष्य को दान आदि विषयों पर लिखी गई है. तरह-तरह के फूल, तितलियाँ, भँवरे, आदि का जिक्र वे जीवन दर्शन के साथ जोड़कर करती है. प्रकृति के अनोखे उपहार हमारे चारों ओर खिल रहे तरह-तरह के पुष्प जिनका कवयित्री सावित्रीबाई फुले अपनी कल्पना के सहारे उनकी सुंदरता, मादकता और मोहकता का वर्णन करती है वह सच में बहुत प्रभावित करने वाला है. पीली चम्पा पुष्प के बारे में लिखते हुए वह कहती है-
                     'हल्दी रंग की/ पीली चम्पा
बाग में खिली, ह्रदय के भीतर तक बस गई
पता न चला मन में कब घर कर गई
सावित्रीबाई जानती थीं कि प्रेम सार्वभौम सत्य है. वे अपने सामाजिक और व्यक्तिगत प्रेम के माध्यम से ज्योतिबा के कार्यों में सहयोग करती थीं. सावित्रीबाई फुले अपने दाम्पत्य जीवन में, अपनी आजादी में, अपने आनंद में और अपने सामाजिक काम में ज्योतिबा फुले के प्यार, स्नेह और सहयोग को हमेशा दिल में जगाएं रखती थी. अनीता भारती सावित्रीबाई की हिंदी कविताओं की भूमिका में लिखती हैं कि ‘पचास साल के अपने दाम्पत्य जीवन में वे ज्योतिबा के साथ हर पल, हर समय उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती रही तथा ज्योतिबा को अपने मन के भीतर संजोकर रखा. ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले जैसा प्यार, आपसी समझदारी सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा और समाज के लिए मिसाल है. सामाजिक काम की प्रेरणा के साथ वे अपने काव्य सृजन की प्रेरणा भी ज्योतिबा फुले को ही मानती. ज्योतिबा से मिले ज्ञान के बोध को वे मन की पोटली में बांधकर रखती है’.
जीवन की नाव पति-पत्नी के आपसी समंजन से चलती है. ज्योतिबा हमेशा उनके साथ साथी-संघाती की भूमिका में खड़े होते हैं. यथातथ्य वे सावित्री को सलाह देते हैं और वक्त जरूरत साथी की तरह उनकी मदद भी करते हैं. वे सावित्री से कहते हैं कि सावित्री आप ठीक कहती हैं. अन्धकार विलीन हो चला है और शूद्र और महार जाग चुके हैं:
'सच कही हो तुम, छटा अंधकार / शूद्रादि महार जाग गये
दीन दलित अज्ञानी रहकर दुख सहे / पशु भांति जिए यह उल्लुओं की है इच्छा
मुर्गा टोकरी से ढका रखने पर भी / देता है बांग
और जनता को बताने, सुबह होने की बात'
कविता के अन्त में सावित्री घोषणा करती है-
शूद्र जनता के क्षितिज, ज्योतिबा सूरज
तेज से युक्त, अपूर्व, उदय हुआ.
       सावित्री का दूसरा संग्रह 'बाबनकशी सुबोधरत्नाकर' ज्योतिबा फुले की याद में लिखा गया संग्रह है. यह काव्य संग्रह ज्योतिबा फुले की प्रमाणिक जीवनी के रूप में उनके परिनिर्वाण के एक साल बाद 1891 में उनको सादर समर्पण के रूप में प्रकाशित हुआ. बाबनकशी या बावन तोले यानी बावन पद, जिसमें प्रत्येक पद पाँच- छह पंक्तियों का है. इन बाबन पदों में सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा के जीवन संघर्ष, जीवन दर्शन, और उनके सामाजिक कार्यों द्वारा उस समय शूद्रों महारो स्त्रियों की स्थिति में आए क्रांतिकारी बदलावों का बहुत सच्चाई, प्रेम और सम्मान के साथ वर्णन हुआ है. इस संग्रह की कवितायें अपेक्षाकृत प्रौढ़ कवितायें हैं.
सावित्रीबाई फुले के लिए ज्योतिबा युग चेतना के अविष्कारक हीं नहीं थे अपितु वे युगदृष्टा भी थे. सामाजिक क्रांति को बढ़ावा देने ज्योतिबा ने एक बच्चे को गोद लिया तथा उसे पढ़ाया लिखाया डॉक्टर बनाया और उसको भी अपने साथ सामाजिक कार्य में जोड़ा. सावित्रीबाई ज्योतिबा से अगाध प्रेम रखती थीं.  सावित्री बाई फुले ज्योतिबा की तुलना संत तुकोबा से करते हुए कहती है - "जैसे संत तुकोबा वैसे संत ज्योतिबा. क्रांतिसूर्य ज्योतिबा का सबसे बड़ा योगदान उनका शूद्र दलित जनता को लगातार शिक्षा की ओर प्रेरित करते हुए बाह्मणवाद के अस्त्र-शस्त्र के पाखंड से निपटने का रास्ता दिखाना भी है.’
क्रांतिकारीः सावित्रीबाई को उनकी कविताओं के माध्यम से उनका जीवन राग और आदिम आकांक्षा को ठीक से समझा जा सकता है. उनकी कविताओं में उनकी पूरी वैचारिकी उभर कर आती है. वे व्यवस्था में अंतर्निहित शोषण की कड़े शब्दों में निंदा करती हैं. उनकी भाषा सीधी और तीखी है और जाति व लिंग के मुद्दों पर वे अपनी बात बिना किसी लाग लपेट के कहती हैं:
मनु कहते हैं / रीतिरिवाजों का आधार है भेदभाव, /
धूर्त और कुटिल लोगों की यह नीति कितनी अमानवीय है/
क्या उन्हें मनुष्य कहा जाए? / पौ फटने से गोधुली तक, महिला करती है श्रम,
पुरूष उसकी मेहनत पर जीता है, मुफ्तखोर, /
पक्षी और जानवर भी एक साथ मिलकर काम करते हैं, /
क्या इन निकम्मों को मनुष्य कहा जाए?
स्त्रीकाल पत्रिका के अपने 19 दिसम्बर 2016 के एक आलेख में सावित्रीबाई के जीवन को कोट करते हुए ललिता धारा ने लिखा है कि ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था, जहां महिलाओं को जंजीरों में कैद रखना चाहती थी, वहीं वह कथित अछूतों को भी समाज के हाशिए पर धकेलती थी और उन्हें पशुवत जीवन जीने पर मजबूर करती थी. वे ऊँची जातियों के लोगों के सामने से नहीं गुज़र सकते थे और ना ही सार्वजनिक कुओं और तालाबों से पानी भर सकते थे. फुले दंपत्ति ने सन 1868 में यह घोषणा की कि उनके घर के प्रांगण में बने कुंए से कोई भी अछूत पानी भर सकता है. यह एक अत्यंत साहसिक कदम था, जिसने जातिगत यथास्थितिवादियों को हिला दिया[6]. फुले दंपत्ति यह मानता था कि अंतरजातीय विवाह, जाति प्रथा के उन्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. वे ऐसे लोगों की व्यक्तिगत रूप से सहायता करते थे जो अंतरजातीय विवाह करने के इच्छुक थे. इसके लिए उन्होंने कई मौकों पर पुलिस की मदद भी ली. उन्होंने कड़े विरोध का सामना करते हुए कई विधवाओं के पुनर्विवाह करवाए.
सावित्रीबाई ने ज्योतिबा के आंदोलनों में रहकर स्वयं को खूब पकाया था. वे वैचारिक रूप से बहुत पुष्ट हुई थीं. बावनकशी सुबोधरत्नाकर में कवयित्री सावित्रीबाई फुले ने अपनी कविताओं के माध्यम से उस समय के इतिहास, स्थिति, परिस्थिति, और उसमें ज्योतिबा फुले के योगदान को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. प्रसिद्ध लेखक एम. जी. माली के अनुसार 'बावनकशी सुबोध रत्नाकर ज्योतिबा फुले की सबसे पहली प्रमाणिक, उपलब्ध जीवनी है, जिसे सावित्रीबाई फुले ने बावन पदों में काव्यात्मक शैली में लिखा है'. बावली कविता और बावला कवि नामक अपनी कविता में सावित्री का वह रूमानी रूप हमारे सामने आता है जो अपने जीवन के युवा काला में एक युवा मन महसूस करता है. सदियों के अनुकूलन और समाज द्वारा महिलाओं पर थोपी गई वर्जनाओं के बावजूद उनकी कवितायें मुखर होकर अपनी बात रखती हैं. वे अपनी कविता में लिखती हैं कि : 
(वह फरिश्ता) शर्मीली सी है उसकी मुस्कुराहट, / मधुर हैं उसकी बातें, वह उसे उसकी ओर खींचता है, / और आवेग में चूम लेता है/ सुनहरी चंपा/ जैसे मदन करता है आकर्षित अपनी प्रियतमा रति को, / वैसे ही चंपा जगाती है कवि की संवेदनाएं, / …वह देती है आनंद और ऐन्द्रिक सुख, / पारखी को करती है प्रसन्न और फिर नष्ट हो जाती है.
सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले का का सपना था कि लोगों को पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद के चंगुल से मुक्त कराया जाय. इसी उद्देश्य से उन्होंने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज नामक संस्था की स्थापना की, जो एक नए सामाजिक-आध्यात्मिक आंदोलन की कारक संस्था थी. सावित्री, सत्यशोधक समाज की महिला इकाई की प्रमुख थीं. नियमित तौर पर इस संस्था की बैठकें आयोजित होती थीं. इन बैठकों में दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के विभिन्न मुद्दों पर लगातर बात होती थी. लकड़ियों की सही उम्र में शादी, विधवा पुनर्विवाह, अवैध संतानों का संरक्षण आदि भी इन्हीं बैठकों में उठाये जाने वाले विषय थे. सत्यशोधक समाज ने आमजनों को पुरोहितों के चंगुल से निकालने के लिए बिना ब्राह्मण पंडितों और धार्मिक कर्मकांडों के विवाह करवाने की जगह खुश से ये कर्मकांड कराने लगे. फुले दंपत्ति का मानना था कि अंतरजातीय विवाहों से जातिप्रथा का उन्मूलन संभव है. वे अंतरजातीय विवाह करने वालों की मदद करते थे. वे इन विवाहों में वर और वधु केवल यह शपथ लेते थे कि वे एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहेंगे और समाज की भलाई के लिए काम करेंगे. फुले दंपत्ति का प्रभाव यह पड़ा कि इन विवाहों से भारत में अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक सिविल विवाहों की नींव पड़ी.
अपने पति की मृत्यु के बाद, सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज का नेतृत्व संभाल लिया. उन्होंने सासवाण में 1893 में आयोजित समाज की बैठक की अध्यक्षता की. सन 1896 के अकाल में सावित्रीबाई ने अनवरत लोगों की सहायता की और सरकार पर यह दबाव बनाया कि वह राहत कार्य शुरू करे. सन 1897 में पुणे में प्लेग की महामारी फैली. हमेशा की तरह, सावित्रीबाई एक बार फिर पीड़ितों की सेवा में जुट गईं. प्लेग ने उन्हें भी नहीं छोड़ा और 10 मार्च, 1897 को इस बीमारी के कारण काल ने उन्हें कालकवलित कर लिया.


डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
बिहार-823004
Mo- +91- 8863093492 / 9430005835




[1] भूमिका, सावित्रीबाई फुले की कवितायें, अनीता भारती
[2] प्रेम, स्त्रीवाद और सामाजिक क्रांति की कवि, सावित्रीबाई फुले, स्त्रीकाल
[3] सावित्रीबाई फुले की कवितायें, अनीता भारती,  पेज-5
[4] सावित्रीबाई फुले की कवितायें, अनीता भारती,  पेज-2
[5] सावित्रीबाई फुले की कवितायें, अनीता भारती,  पेज-14
[6] स्त्रीकाल पत्रिका, 19 दिसम्बर 2016, ललिता धारा- www.streekal.com

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