किसी चूतिये की एक
पंक्ति याद आ रही है :
बारह बरस तक कूकुर
जीवे अरु सोलह तक जिए सियार
बरस अठारह क्षत्रिय
जीवे, आगे जीवे तो धिक्कार
क्षत्रिय, मतलब अपनी
मान-मर्यादा और अहंकार के सामंतवादी नजरिये से जीने वाले धनपिपासु. मर्यादा
पुरुषोत्तम. देश और समाज की रक्षा करने वाला. लेकिन रक्षक ही भक्षक बन जाए यानी की
‘वर्दी वाला गुंडा’ तो क्या हो?
जेब में कौड़ी न हो
पर ‘ठकुरसुहाती’ कभी न जाये. बिच्छू की तरह का ‘कोकून’ जो अपने लोगों को ही सबसे
पहले खा डालता है.
ब्राह्मणवादी ढाँचे
में बुद्धिबल की जगह ‘डंडे’ के बल पर नाचने वाला.
कल मुझे किसी ने कहा
कि आप जातिवादी हैं.
मैंने कहा मैं
जातिवादी हूँ तो आप क्या हैं?
आप जाति नहीं मानते
क्या?
तो उनका कहना था, नहीं-मैं
जाति बिलकुल नहीं मानता.
मन में आया कह दूँ ‘चूतिये’
सारा कर्मकांड अपनी जाति में करते हो और कह रहे हो कि जातिवादी मैं हूँ.
पर मैंने बहुत ही
विनम्रता से कहा – सर, मैं जाति को मानता हूँ.
रैदास और कबीर भी
जाति को मानते थे.
आपके पूर्वज जाति को
नहीं मानते थे फिर भी ‘जाति का मैला’ आज तक ढो रहे हैं.
जो कहता है मैं जाति
नहीं मानता वह मेरी नजर में सबसे बड़ा जातिवादी है.
वही महोदय हैं जिन्होंने
मेरी कविता में आये ‘घास खाने वाले’ पद को लेकर घोर टिप्पणी की थी.
उसे राजा ‘रणछोड़’ तक
से जोड़ लिया था.
यह एक ढांचा है.
हथियार बंद देवता से लेकर परसुराम तक चलेंगे.
अपनी महिलाओं के हाथ
में कलम तो दी नहीं पर उन्हें हथियार जरुर थमा दिया.
एक सच्ची घटना
सुनाता हूँ. हमारे गाँव के आसपास रहने वाले दलित समुदाय के लोगों ने जब ठाकुरों, ब्राह्मणों
और दूसरी दबंग जातियों के खेत में जब काम करना छोड़ दिया तब अब वे ही मजदूरों की
तरह अपने खेतों में लगे दिखाई देते हैं. उनकी औरतें जिनका असली पेशा ही ‘संजना-संवरना’
था वे अब धान गेंहूँ कांटने लगी.
दलितों में आत्म
सम्मान आया और उन्होंने ठान लिया कि भूखे मर जायेंगे पर इन ‘गदहों’ की गुलामी नहीं
करेंगे
आज स्थिति बदली हुई
नजर आती है. लोग शहर कमाने चले गए.
आज वही महोदय कह रहे
थे ‘भीम आर्मी’ पर लिखो.
यह लोग जातिवादी
सेना क्यों बना रहे हैं?
उसकी निंदा करो.
मैंने कहा महोदय –
अभी तो यह शुरुआत है.
अभी तक आपकी ‘सेना’
बानरों को मूर्ख बनाकर ‘लंका’ जीत रही थी.
अब बानरों को पता चल
गया है कि लंका किसी राम की बपौती नहीं है.
रही बात भीम सेना की
तो उसमें कुछ गलत नहीं है.
अपनी सुरक्षा के लिए
लोग अगर ‘कदम’ उठा रहे हैं तो उसमें गलत क्या है?
ईंट का जबाब ईंट से
और गोली का जबाब गोली से.
बस, जब उत्पीड़ितों
में चेतना आ जाए कि उनका शोषण हो रहा है जो समझ लो क्रांति आयेगी.
अभी चिंगारी फूटी
है, इसे आग का रूप लेने दीजिये.
देश का सारा मैला
हमारे भंगी भाई उठाते हैं.
उनमें आत्म सम्मान
रत्ती भर नहीं है.
जिस दिन उनमें चेतना
आ जायेगी उस दिन सारे ‘चुटिया धारी’ अपना नाला-परनाला खुद साफ़ करते नजर आयेंगे.
बस उनके अन्दर यह
भावना आये कि अब यह घृणित कर्म छोड़ देना है.
मर जायेंगे पर आत्म
सम्मान की रोटी खायेंगे.
उन्हें यह नहीं पता
कि ‘चुटियाधारी’ बैजवाडा विल्सन को पुरस्कार दे देगा और बिन्देश्वरी पाठक के हाथों
अपना शोषण करवायेगा.
‘भीम आर्मी’ उनके
भीतर चेतना लाने का काम करेगी.
‘मायावती’ ‘राम
विलास’ ‘उदित राज’ और ‘जीतन मांझी’ की स्वार्थी राजनीति दम तोड़ रही है.
इनका तो वही होना
है-धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का.
यह लड़ाई अस्मिता और
आत्म सम्मान की है.
बुद्ध की जरूरत है
पर उससे पहले ‘युद्ध’ की जरूरत है.
एक सेना
बार्डर पर लड़ेगी और दूसरी सेना ‘गद्दारों’ से..................
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