सोमवार, 21 मई 2018

अस्मिता, अस्तित्व, सेक्स और थर्ड जेंडर की कहानियाँ / डॉ. कर्मानंद आर्य


जब महिलाओं ने अपनी सामाजिक भूमिका को लेकर सोचना-विचारना आरंभ कियावहीं से स्त्री आंदोलन, स्त्री विमर्श और स्त्री अस्मिता जैसे संदर्भों पर बहस शुरु हुई. यही हाल दलित और आदिवासी आन्दोलन का भी रहा. स्त्री आंदोलन में जहाँ एक ओर स्त्रियों की भूमिका को सामने लाने का प्रयास हुआ और उनकी सामाजिक, राजनैतिक भागीदारी को स्वीकार किया तो वहीं स्त्री विमर्श ने स्त्री को बहस के केंद्र में लाने का प्रयास किया. विमर्श का यह सिलसिला हर वर्ग और समुदाय से उठा. जिसमें एक ओर समाज में उसकी दोयम दर्जे की स्थिति को बताया तो दूसरी ओर उससे जुड़े मुद्दों को बहस के जरिए केंद्र में रखा गया. दलित-आदिवासी-स्त्री विमर्श के इस बिंदु को अगर हम प्रस्थान बिंदु मान लें तो इस विमर्श के आगे जो कुछ घटित हुआ वह काफी रोचक है. किसी एक विमर्श के खड़े होने में उसके समानांतर दूसरे विमर्श का होना उसके बढ़ने के लिए खाद-पानी का काम करता है.
एक बड़ा विमर्श उभरता है जेंडर का, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और अस्मिता जैसे प्रश्नों को उठाया जाता है. जेंडर का प्रश्न अस्मिता के प्रश्न के भीतर से ही उभरता है. हमारे समाज में सदियों से जेंडर शब्द का संबंध भाषा में लिंग अर्थात स्त्रीलिंग व पुल्लिंग से रहा है. अन्य भाषाओं में जेंडर विभाजन की इस प्रक्रिया के तीन रूप स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और न्यूट्रल जेंडर का प्रयोग मिलता है, तो हिंदी में स्त्रीलिंग व पुल्लिंग केवल दो रूपों का प्रयोग मिलता है वहीं वैदिक संस्कृत में देखते हैं तो एक तीसरा लिंग नपुंसकलिंग का प्रयोग भी भाषा में देखा जा सकता है. भाषा का यही प्रयोग मनुष्य के विभाजन का भी सहायक हुआ. पहचान की राजनीति के साथ इसने अब विमर्श का रूप ले लिया है. हिंदी में भी इस प्रकार के साहित्य की अब कोई कमी नहीं है. थर्ड जेंडर को लेकर अब लोग खुलकर बात करने लगे हैं.
जेंडर स्त्री और पुरुष की सामाजिक संरचना पर सवाल खड़ा कर समाज में बहस की मांग करता है. जेंडर का संबंध एक ओर पहचान से है तो दूसरी ओर सामाजिक विकास की प्रक्रिया के तहत स्त्री-पुरुष की भूमिका से. जहाँ मनुष्य और मनुष्य के बीच अंतर किया जाता है और एक स्त्री और दूसरे को पुरुष कहा जाता है वहीं कहीं पर जेंडर का प्रश्न भी हमारे सामने उभरता है. इन स्त्री और पुरुषों के साथ साथ एक तीसरी सत्ता भी मौजूद है जो न तो पूरी तरह पुरुष है और न ही पूरी तरह से स्त्री. इन दिनों इनके लिए थर्ड जेंडर या अपूर्ण लिंगी या हिजड़ा शब्द का प्रयोग प्रचलन में है.
थर्ड जेंडर अभी तक साहित्य और समाज में कहीं भी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं था. वह मांगकर, नाच-गाकर या कहीं कुछ काम करके अपना जीवन यापन करता रहा है. आज भी उसको सामान्य नागरिक के अधिकार नहीं मिल पाए हैं. वह आज भी समाज में अनचीन्हा है. उनके जीवन और साहित्य को फलक तक लाने में कई सुधी विद्वानों का बड़ा हाथ है जिसमें एक नाम डॉ. फिरोज अहमद का उभरता है. अपनी पत्रिका और सामाजिक सन्दर्भों में वे थर्ड जेंडर से जुड़े हुए मुद्दे ठीक से उठा रहे हैं. हम यहाँ उनकी संपादित पुस्तक –थर्ड जेंडर: हिंदी कहानियाँ में से कुछ चुनिन्दा कहानियों पर यहाँ बात करेंगे.
थर्ड जेंडर का सम्बन्ध कुछ लोग अवैध यौन शोषण से जोड़ते रहे हैं. ब्रह्मचर्य और सेक्स को निषेधात्म मानने वाले इस देश में सबसे ज्यादा अगर कोई चीज बिकती है तो वह है यौनिकता. हिंदी की हर बड़ी पत्रिका साल में अपने एक दो अंक इस तरह के कंटेंट के लिए अवश्य रखती हैं. सॉफ्ट पोर्न परोसने वाली साइटों और ब्लागों की तो आज भरमार है. यह यौनिकता अगर स्त्री के लिए हो तो पुरुष किसी भी हद तक जा सकता है. जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों की समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गई है. शरीर का स्वरूप जितना प्रकृतिसे निर्धारित हुआ है उतना ही संस्कृतिसे भी. थर्ड जेंडर भी इसी सोच का शिकार है. इस प्रकार उसकी अधीनता, जैविक असमानता से नहीं पैदा होती है बल्कि यह ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की देन है. पुरुष थर्ड जेंडर में स्त्री के उन्हीं गुणों को खोजने का भरसक प्रयास करता है.  
उसने इसी उद्देश्य के लिए बाकायदा बड़े-बड़े बाजारों का गठन किया जो देह मंडी के रूप में देश के भिन्न हिस्सों में आज भी मौजूद हैं. उसने इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यौन दासियों का निर्माण किया और उन्हें भोग्या बनाकर छोड़ दिया. स्त्री-तो स्त्री है स्त्री की तरह दिखने वाली हिजड़ा स्त्रियों को पुरुषों ने इसी मंडी का हिस्सा बना डाला. वह उससे भी वही सब अपेक्षा करने लगा जो वह एक स्त्री से करता रहा है. उसने एक स्त्री की ही तरह थर्ड जेंडर को ऑब्जेक्ट का रूप दे दिया. मजबूरन उन्हें भी यौन दासी और अनाचार का हिस्सा जाने अनजाने बन जाना पड़ा. कई सर्वे रिपोर्ट कहती हैं कि अभी तक बहुत बड़ा तृतीय लिंगी समुदाय मुख्यधारा से कटा हुआ नाच-गाने और यौन कर्म से जुडा हुआ है. उनका जीवन नरक बना हुआ है.
डॉ. एम. फिरोज खान के सम्पादन में निकली ‘थर्ड जेंडर: हिंदी कहानियाँ’ में संग्रहीत कालजयी कहानीकार शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘बिंदा महाराज’ नई कहानी के दौर की बहुपठित कहानी है. यह महज एक कहानी नहीं अपितु एक ऐसा आख्यान है जो हमारी आँखों के रास्ते ह्रदय में उतरता चला जाता है. यह कहानी जैविक संरचनाओं से अगल मनुष्य होने की ऐसी कहानी है जो समाज में मनुष्य होने की शर्तों के साथ जीना पसंद करता है. यह कैसा समाज है जो अपने ही समाज के एक अभिन्न हिस्से हो सदियों से नकारता रहा है और उसके लिए इतनी घिन और असम्मान की बातें समाज में है. बिंदा महाराज महज एक चरित्र नहीं है जो सदियों की एक ऐसी जटिल संवेदना है जो न्याय और समानता की मांग के साथ हमारे बीच में है. उसके चारो तरफ एक रुग्णता का माहौल भर है. कहानी का पहला ही हिस्सा एक हिजड़े के जीवन की त्रासद कथा को हमारे सामने लाकर पटक देता है- ‘मच्छरों से भरे, भीगी-भीगी दीवार वाले घर में चारपाई पर लेटे-लेटे बिंदा महराज का दिल डूबने लगा था, बतख की तरह उजली धूप देखकर उसे बड़ी राहत मिली. उसने हाथ से धूप छुआ, सिर को छूकर सोचा कि आज बेगानी लगने वाली यह देह उसी की है[1]’. यह भारत में अधेड़ होते किसी भी हिजड़े का आख्यान हो सकता है. शिव प्रसाद सिंह उसके जीवन के इन्हीं विडम्बनाओं की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि – बिंदा महराज टाट का एक टुकड़ा बिछाकर जब अपने मकान के सामने चबूतरे पर बैठा तो एक पहर दिन चढ़ आया था’.[2]
वृद्धावस्था की यह पीड़ा केवल बिंदा महराज की नहीं है. जवानी के दिनों में उसे पूछने वाले बहुत लोग मिलते हैं. जवानी के दिनों की ‘बिन्दोरानी’ आज जीवन के इस उत्तर अवस्था में इतना हताश और निराश क्यों है? जो सजना-संवरना किसी जमाने में उसका शौक हुआ करता था आज जब उसी तरह से सज कर आया तो उसे खुद पर ही हंसी आ गई. आज उसका अपना कोई नहीं है. वह अगर सामान्य स्त्री या पुरुष होता तो उसका अपना भी घर परिवार होता. जीवन का यह उत्तरार्ध उसके लिए निराशा भरा है. माँ बाप तो प्राणहीन जन्माकर कब के चले गए थे. मर्द होता तो पुरुषत्व का शासन होता, पत्नी और परिवार सहारे के रूप में उसके साथ होते. पर वह तो सृष्टि का अतृप्त कण ही रह गया.
अधूरे लिंग वितान के कारण उसे उसके चचेरे भाई ने भी छोड़ दिया. उसके जीवन से दीपू मिसिर का ढाई साल का बालक भी जाता रहा और आखिर तक विपत्तियों ने बिंदा महराज का साथ नहीं छोड़ा. बिंदा महराज को अपशकुन तक मान लिया गया. शरीर एक ऑब्जेक्टहै जिसे समाज, राजनीति व सत्ता अपने अनुसार बनाती व प्रशिक्षित करती है. जैसे पुरुष हमेशा से समाज में अपने लिए अधिक स्पेसचाहता है वहीं स्त्री थोड़े से ही में खुद को संतुष्ट पाती है क्योंकि उसे ऐसी सामाजिक निर्मिती दी जाती है की वह बड़ा न सोच सके. बिंदा महराज की सोच भी सामाजिक दायरे में यहीं आकर टिक जाती है.
सामाजिक विडम्बनाओं की एक बड़ी झलक इसी कहानी के ‘घुरविनवा’ नामक पात्र में दिखाई देती है. घुरविनवा बिंदा महराज को प्यार करता है. दोनों की उम्र में काफी अंतर है. जीवन के ऐसे पड़ाव में उस प्रेम का क्या महत्व? कहानी का पात्र बिंदा महराज घुरविनवा की बात सुनकर हंस पड़ता है-अरे वाह रे छोकरे, तू मुझसे प्रेम करता है, हीं, हीं, हीं,हीं,...... हालाँकि घुरविनवा एक दलित पात्र है जिससे समाज का अन्त्यज बिंदा महराज भी तिरस्कृत शब्द का प्रयोग इस कहानी में करता है. बिंदा महराज जोर से चिल्लाता है. इसका दीदा न देखो. दुनिया भर का रोंघट पोतकर देह में सटा आता है. हालाँकि यह घुरविनवा उन्हें अंत में भी सहारा देना चाहता है पर दूध का जला ‘बिंदा महराज’ अंततः उस अन्त्यज रौंघट को भी दुत्कार देता है.
उसके जीवन में चुहल का रंग भरने वाले दीपू मिसिर का प्रभाव भी उसके जीवन से जाता रहा है.[3] वंचित संवेदना के पात्र ‘बिंदा महराज’ की पूरी कोशिश रहती है कि वे उस सम्पूर्ण मनुष्य की तरह प्यार पायें. पर हाय रे विडंबना. प्रेम जैसे स्वाभाविक गुण के लिए, ममत्व के लिए उन्हें डायन जैसे शब्द से नवाजा जाता है. वे भले ही समाज की नजर में न एक सम्पूर्ण पिता दिखाई देते हों न ही ममत्व भरी माँ, पर बचपन की किलकारियों को संबोधित करने का मन आखिर किस मनुष्य का नहीं होता?सामाजिक विडम्बनाओं की अपनी नियति है. तब क्या उससे आदमियत भी छीन ली जायेगी? एक अधूरे जीवन में प्रेम की एक लहर को तरसने वाले बिंदा महराज को हर जगह निराशा के ही दर्शन होते हैं. यह निराशा केवल बिंदा महराज की नहीं है अपितु ऐसे लाखों लोग हैं जिनका जीवन खोखला बांस हो चुका है. मनुष्य हैं इसलिए इच्छायें बाँझ नहीं है. उनके भीतर भी जीवन की आदिम आकांक्षा और जीवन राग है.   
समाज में श्रम विभाजन का आधार सेक्स है. जिसमें घर की जिम्मेदारी स्त्री की मानी गई तो बाहर पुरुष की. भले उसके पीछे के कारण उनकी शारीरिक व मानसिक स्थितियों को दिया गया. सच तो यही है की यह विभाजन जेंडर व सेक्स आधारित है. कहानी दीपू मिसिर के हवाले से लखनऊ के अंतिम नबाब वाजिद अली शाह द्वारा फिरंगियों से लड़ने की एक कथा का जिक्र भी है –एक बार वाजिद अली शाह के मंत्री ने सलाह दी-हुजूर, एक हिजड़ों की पलटन तैयार की जाए और फिरंगी से भिड़ा दिया जाए. मजा आ जाएगा. कितने मजबूत होते होंगे ये लोग, न औरत न मर्द, लड़का पैदा करना होता नहीं, देह कसी की कसी रह जाती है.’ वस्तुतः यहाँ इस कहानी  में कहानीकार द्वारा एक और कहानी की सर्जना यह बताती है कि हिजड़े कहीं से भी शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है. लेकिन समाज में उन्हें उनके जनखा रूप के लिए ही जाना जाता रहा है. बिंदा महराज का यह कथन उसके जीवन में जेंडर के प्रश्नों को कितनी सार्थकता से उठाता है- दुनिया के सारे रिश्ते और नाते केवल स्त्री और पुरुष से ही हैं....विपरीत लिंगों का आकर्षण, एक के दायरे की तमाम वस्तुएं दूसरे से ठीक उसी प्रकार सम्बद्ध. बिंदा महराज का दुनिया में कोई रिश्ता नहीं. हो भी कैसे, न तो वह मर्द है न औरत. व्रत-उपवास कथा पुराण के उत्सवों में नाच-गान से उपजी कमाई को राख बनाकर उसे क्या मिलता, पीड़ा-जलन. प्रसाद लेने तक भी तो वगी आते हैं हैं जिन्हें जिन्दगी में मीठी चीजें नसीब न होती.[4]’’
इसी संग्रह की दूसरी कहानी ‘खलीक अहमद बुआ’ जिसके कहानीकार राही मासूम रजा है, एक नितांत ही चरित्र प्रधान कहानी है. कहानीकार ने इस कहानी में दिखाया है कि प्रेम और सृजन अधिकार की मांग करते हैं और जब इन अधिकारों में जरा भी बिचलन होता है वह किसी की जान पर भी बन आती है. हालाँकि यह समाज के पुरुष और सामंतवादी प्रवृत्ति से ग्रसित एक ऐसी कहानी है जो अधिकार को प्रेम से ऊपर देखने की दृष्टि देती है. खलीक अहमद बुआ वैसे तो तीसरी सत्ता के प्रतिनिधि हैं और रुस्तम से जीजान से प्यार करते हैं. वे अपने प्रेम में किसी प्रकार की बाधा और रुकावट की आहट से भी घबरा जाते हैं. उनके भीतर अधिकार की ऐसी चेतना है जो अंततः उनके प्रेम की बलि तक लेकर चली जाती है. हालाँकि खलीक और रुस्तम में उम्र के अंतर का एक बड़ा चौराहा है जिसे वे जानते हुए स्वीकार करते हैं. खलीक और रुस्तम के बीच विपरीत लिंग का आकर्षण नहीं फिर भी वे पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे के साथ रहते हैं. बुआ हाजी बदरूलहक के यहाँ खाना बनाने की नौकर हैं. उनके चरित्र से पता चलता है कि वे –‘खलीक अहमद बुआ थे तो जनाने, पर क्या मर्दाना गालियाँ बका करते थे.....बड़ी वफादार बीवी थे थे खलीक अहमद बुआ’.[5]
      खलीक अहमद बुआ को अपने पति रुस्तम का रंडी पुखराज के घर जाना बहुत ही अखरता है. उनके भीतर का पत्नी भाव जगता है जो उन्हें अधिकार और कुंठा की हद तक ले जाता है. सामाजिक विडम्बनाओं में जब लोगों ने उनसे कहा कि –रुस्तम खां तो पुखराज के हो गए हैं. अब यहाँ क्यों पड़ी हो बुआ. उनकी याद सताती रहेगी. कहीं और चली जाओ.’ (पेज ३२). यही विडंबना उनके जीवन की फांस बन गया. उन्होंने चाकू से अंततः क्यों गोद दिया था इसका जबाब तो पुलिस भी नहीं दे पायी थी. खलीक अहमद बुआ की तो फांसी हो गई थी पर कहानीकार कहता है कि उसे शहर के बच्चों ने याद किया. और जैसा कि नियति होती है धीरे-धीरे करके लोग खलीक अहमद बुआ को भूलते गए...वस्तुतः यह कहानी प्रेम की पराकाष्ठा और अधिकार बोध के साथ कुंठित पराभव तक जाने वाली कहानी है. उसे रुस्तम खां पर भरोसा था. लेकिन जैसा ही वह उसका भरोसा तोड़ता है वे उसकी जान ले लेते हैं.
      इसी संग्रह में एसआर हरनोट की प्रसिद्ध कहानी ‘किन्नर’ नाम से है जो एक मिथक को तोड़ने वाली कहानी है. वह हिमाचल के उस किन्नर समुदाय की बात करता है जो हिंदी पट्टी में अभी के थर्ड जेंडर लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है. यह कहानी वहां के आदिवासी समुदाय के माध्यम से बताती है कि घोटुल जैसी प्रथाएं अपने समय की कितनी कारगार संस्थाएं थीं. आज के समाज में मुख्यधारा उसे संदेह की दृष्टि से देखता है. वस्तुतः किन्नौर का अपना पौराणिक और सामाजिक महत्व है. वह हमारी सामासिक संस्कृति का हिस्सा है. पुरानों में वर्णित गन्धर्व, किन्नर आदि देव संस्कृति के प्रतीक थे जिनका अपसंस्कृतिकरण करके किन्नर शब्द को हिजड़े के लिए रूढ़ कर दिया गया है. कहानी में कहानीकार यही मुख्य बात बताना चाहते हैं कि किसी ऐसे शब्द का प्रयोग प्रतिबंधित होना चाहिए जो किसी संस्कृति या समाज को अपमानित करता हो. कहानीकार एक ऐसी मानसिकता का विरोध करता है जो उसके समाज को एक गलत अर्थ-सन्दर्भ देती है. हम इस कहानी को थर्ड जेंडर की आंशिक कहानी कह सकते हैं पर इसके सन्दर्भ बहुत दूसरे हैं.
      कई मामलों में सलाम बिन रजाक की कहानी ‘बीच के लोग’ एक व्यंग्य प्रधान कहानी है जो कई अर्थ सन्दर्भों को जन्म देती है और जिसका फलक बहुत व्यापक है. सामान्य कहानक पर रची गई यह कहानी जहाँ दुनिया के सभी हिदों को एक होने के संकल्प की याद दिलाती है वहीं पर वह दुनिया को नरक बनाने वाली उन सत्ताओं के लिए भी प्रयोग की गई जो दुनिया को पीछे ले जाने और नपुंसकता के शिकार हैं. कहानी हिजड़ों के एक जुलुस से शुरू होती है जिसमें सब हिजड़े नारा लगा रहे हैं: सारी दुनिया के हिजड़े एक हैं!. कल संसार हिजड़ों का होगा. हमसे जो टकरायेगा, हम जैसा हो जाएगा.’[6]
इस कहानी में कमर में काठ की तलवारें लटकाए हुए लोग ऐसी भोंथरी मानसिकता के पात्र है जिनका जीवन हिजड़ों का जीवन है. जो कोई क्रांति नहीं कर सकते. एक पात्र कहता है- बड़ा बुरा युग है यार! लोग अपनी नपुंसकता को भुनाने की कला भी जान गए हैं[7]. यह कहानी समाज की अकर्मण्यता को दर्शाने वाली कहानी है. कथाकार यहाँ हिजड़ों का प्रयोग प्रतीक के रूप में करता है. जब यही हिजड़े संगठित होकर प्रयास करते हैं तो पुलिस, अधिकारी और अन्य गणमान्य लोग भी इनके सामने’ हिजड़ा’ नजर आते हैं. कहानीकार का मानना है कि अगर लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं हुआ तो वह दिन दूर नही जब सत्ता के सभी प्रतिष्ठानों में हिजड़ों का एक छत्र साम्राज्य होगा. समाज के हिजडेपन और नपुंसकता के कारण बहुत सारी विकृतियों का जन्म हो रहा है.
कहानीकार ने एक बड़ी बात का इशारा इस कहानी में किया है जो थर्ड जेंडर के प्रति हमें जागरूक भी करता है और संवेदनशील भी बनाता है. कहानी में पुलिस हिजड़ों को यह कहकर गिरफ्तार करने से मना कर देती है कि वे न हो पुरुष हैं और न ही स्त्रियाँ. पुलिस मन्युअल के अनुसार स्त्री लो स्त्री और पुरुष को पुरुष ही गिरफ्तार कर सकता है. पुलिस हिजड़ों को गिरफ्तार करने से मना कर देती है. यह तथ्य इशारा करता है कि हमें थर्ड जेंडर के प्रति संवेदनशील होने की अधिक जरूरत है. यह कहानी व्यंग्यात्मक लहजे में कामयाब कहानी है. यह कहानी हिजड़ा समुदाय की बहुत सारी गुत्थियों को सुलझाने वाली कहानी है और एक बात उनकी राजनितिक चेतना को लेकर भी है कि जब अस्मिताकामी लोग संगठित होकर प्रयास करते हैं तो बड़े से बड़ा काम का रास्ता निकलता है.
‘संझा’ कहानी किरण सिंह की एक माइल्सटोन कहानी है. यह एक ऐसे समाज का मनोंविज्ञान है जिसमें किसी बच्चे का हिजड़ा होना समाज स्वीकार नहीं कर पाता. एक परिवार के लिए यह सबसे बड़ी त्रासदी होती है कि उसके घर में उसकी संतान सामान्य नहीं अपितु विशेष के रूप में आई है. यह कहानी समाज के उस मनोवैज्ञानिक सोच को अंततः उघाड़कर रख देती है जिसमें किसी के नैसर्गिक गुण को छुपाने की कोशिश की जाती है. कहानीकार कहानी में कहता है कि ‘इस धरती के बासिंदों ने तुम्हारी जाति के लिए नरक की व्यवस्था की है. उस नरक के लोग पहाड़ी पर तुम्हारे जन्म के सात साल बाद आकर बस गए हैं. वे लोग कपड़ा उठाकर नाचते हैं और भीख मांगते हैं. लोग उन्हें गालियाँ देते हैं और थूकते हैं, उनके मुंह पर दरवाजा बंद कर लेते हैं, उन्हें घेरकर मारते हैं. ....तुम्हारे बारे में पता लग गया तो वे लोग तुम्हें भी छीनने आ जायेंगे’.[8]
इस कहानी का विस्तार बहुत व्यापक है और फलक बहुत विस्तृत. किन्नर के रूप में जन्म लेने के कारण भारतीय परिवेश में जिस तरह का सामाजिक लांछन और नारकीय जीवन जीना पड़ता है उसी की कथा-व्यथा है यह कहानी. यह चौगांव के एक ऐसे वैद्य की कहानी है जो दुनिया को ठीक करता आ रहा है और जीवन के उत्तरार्ध में जाने कितने नपुंसकों को पुंसवान बना चुका है. अपनी मृत्यु के बाद उसका पूरा ध्यान अपनी संतान के लिए रहता है कि कैसे उसे मुख्यधारा का हिस्सा बनाया जाय. यही चिंता उसे दिन रात खाए जाती है. संझा सोचती है ‘-कहीं ठीक होकर, कनाई उसी पर मर्दानगी दिखाने को उतावला हुआ तो!तो?वह अपने को बचाने के लिए उसे ऐसे ही छोड़ दे’[9] उसका स्वयं का अपूर्ण लिंग होना उसे हमेशा एक भय में रखता है.
कहानी में कानाई का पिता ललिता महराज बदले की भावना में भरकर कहता है – ऐसा चिग्घाड़ रही है जैसे मेरे घर में रेतने ले जाई जा रही हो. आवाज देखो इसकी मर्दाना.....[10]
फिर बूढा ललिता एक बार फिर सोचता है : ‘आज मैंने बूढ़े वैद्य के हाथ से संझा को छीन लिया. आज वह अकेली है. आज मेरे खेल का चरम है. आज कनाई संझा के वस्त्र उतारेगा. फिर उसे कपड़े पहनने का मुका नहीं देगा. संझा गिदगिड़ाएगी, बाप की इज्जत की भीख मांगेगी. उसी हालत में बालों से खींचता, कूटता लतियाता हुआ, दाहिनी पहाड़ी से उन लोगों की ओर धकेल देगा. जिस औरत का रोंया-रोंया रो रहा हो उस औरत का नृत्य देखा है कभी, एक अलग मजा मिलता है. कोठे हर शहर में होते हैं, बीवियां होती हैं, प्रेमिकाएं होती हैं फिर भी बलात्कार होते हैं, इसी मजे के लिए’[11]
इस कहानी का नामकरण ‘संझा’ बहुत प्रतीकात्मक है. यह वही संधि-बेला है जहाँ पर दिन और रात का मिलन होता है. दो विपरीत ध्रुव यहीं आकर आत्मसात होते हैं. कहानी में केवल एक पिता की चिंतायें नहीं है अपितु उनके पास सामाजिक विकलांगता और अपयश का जो लक्षन है उसे कैसे छिपाया जाय इसकी भी चिंता भी है. शादी के आठ बरस बाद किसी संतान का मुंह देखना किसी भी दंपत्ति के लिए सुखद होगा. पर वह संतान बहुत सारी सामाजिक विडम्बनाओं का अम्बार ले आये तो माँ-बाप क्या करें. हालाँकि वे अपनी बच्चे की परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ते पर वे उसकी प्राकृतिक कमियों को दूर भी नहीं कर पाते.
कहानी की पात्र संझा अपूर्ण लिंग को पूर्ण लिंग में बदलने के चक्कर में लहुलुहान हो जाती है जिससे उसकी जान पर बन आती है. पर इस तरह की मानसिक स्थिति में कोई भी इस तरह के कदम उठाने पर मजबूर ह्जो सकता है. विवाह का सुख कौन नहीं देखना चाहता. संझा के जीवन में विवाह भी दुःख ही लेकर आता है. वैद्य जी की हकीमी जाती रहती है पर अंततः उन्हें जीवनदान मिलता है. संझा अंततः कहती है : न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ. न मैं तुम्हारे जैसी औरत. मैं वो हूँ जिसमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन. तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते.’’ सबसे अंत में कहानी कहती है ( मैं अब तक भाग्य था लेकिन किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल से दुबका हुआ मैं, सबसे बड़ा हिजड़ा हूँ) – पेज 79 .  कहानी भारतीय समाज की कई केन्द्रीय समस्याओं को एक साथ उभार कर सामने लाता है. अपने गलत कामों, हत्याओं, बलात्कारों और अवैध को समाज कैसे ठिकाने लगाता है वह वैद्य जी से ज्यादा कौन जानता है. बासुकि का बलात्कार उसके चचेरे भाई ने किया था. बासुकि का परिवार जब उसपर लांछन लगा देता है तो संझा को इसका जबाब देना पड़ता है और स्त्री और पुरुष के संयुक्त भाव से पैदा संझा की पोल भी इसी के साथ समाज में खुल चुकी होती है. इस कहानी में तृतीय लिंगी के लिए समाज के मनोविज्ञान को भली तरह से समझा जा सकता है.
जहाँ सामाजिक कलंक के नाते लोग स्वयं को हिजड़ा कहलाना पसंद नहीं करते हैं वहीं पर कादम्बरी मेहरा की कहानी ‘हिजड़ा’ में कहानी की पात्र हिजड़ा जीवन को एन्जॉय करती है. वस्तुतः यह भी एक मनोरंजक कहानी है जो यह बताती है कि जरुरी नहीं है कि कोई जन से ही हिजड़ा हो, कई लोग मज़बूरी में इसे अपने पेशे के रूप में अपना लेते हैं और इनकी जीविका इसी से चलती है. हालाँकि आज इसने अपराध का रूप ले लिया है और कई मासूमों को बचपन में ही नामर्द करके इस पेशे में प्रशिक्षित कर लिया जाता है और इसने अब इंडस्ट्री का रूप ले लिया है. इसी कहानी को ही लें तो विपरीत जीवन की परिस्थितियों में उसकी नायिका इस जद्दोजहद वाली जिन्दगी अपनाती है.
रागिनी राहुल की मौसी की सहपाठिन है. गायन वादन में सिद्धहस्त है. उसका रंग काला है और चेहरे पर चेचक के दाग भी हैं. भाई और माँ की चेचक में हुई मृत्यु के दौरान उसे जिन्दगी के यथार्थ से सामना होता है. उसके पिता दूसरा विवाह कर लेते हैं और उसे उसकी बड़ी बहन के घर यानी जीजा के यहाँ छोड़ देते हैं जहाँ उसका जीजा उसका यौन शोषण करता है. कुल मिलाकर यह मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है. स्त्री की मज़बूरी का फायदा पुरुष अर्थात उसके जीजा उठाते हैं. इस कहानी में रागिनी पढ़ी लिखी पात्र है जो अमूमन हिजड़े समुदाय में दुर्लभ होता है. कहानी में रागिनी कहती है कि : उसे बताया ही नहीं यह सब. कोई बदले में लिए बिना तुम पर क्यों खर्चेगा? जीजा की काली करतूत तुम्हें बता दूँ तो बेचारी जहर खाकर मर जाएगी’[12].
कई दृष्टियों से ‘इज्जत के रहबर’ बड़े संदर्भ की बड़ी कहानी है. यह कहानी वस्तुतः हिज्दोंके जीवन के एकान्तिक पलों का जहाँ निदर्शन कराती है वही पर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के साथ बलात्कार और जघन्य अपराधों से समाज को मुक्त कराने का काम भी करती है. मनुष्य होने के नाते प्रेम और आकांक्षा की जो आदिम चाहत मनुष्य के भीतर होती है वह हिजड़ा जीवन में भी पायी जाती है यानी कि वहां पर भी यौन कुंठाओं का आलम उसके आंतरिक खांचे में जाकर ही पता लगाया जा सकता है. पद्मा शर्मा की यह कहानी सोफिया के माध्यम से जहाँ हिजड़ों के आंतरिक समुदाय के बारे में बताती है वही पर यह कहानी कई और तथ्यों को भी उघाडती है. अनाथ किशोर होता बल्लू उन्हीं के बीच पला बढ़ा है. अभी तो ठीक से उसे रेख भी नहीं आई है. पर राज को हिजड़े उसके साथ यौन क्रिया करते हैं और यह तब और घटक हो जाता है जब वह बालक रात भर एक के बाद दूसरे की कुंठा का शिकार होता है. कहानी में डिटेल्स बहुत अधिक हैं.
कहानी का पात्र श्रीलाल जब सोफिया से प्रशन करता है कि –सब लोगों को शक है कि तुम लोग अपनी आबादी बढाने के लिए लोगों के अंग-भंग कर रही हो’ तो शोफिया का जबाब काबिले गौर है- सोफिया बड़े ऊँचे स्वर में बोली-नहीं लाल जी हमारी संख्या तो ईश्वर बढाता है. खुदा न करे वह और अधिक संख्या बढाए. [13]हमें कितना कष्ट है इस योनि में होने का, ये तो हमही जानती हैं. कहानी बताती है कि हिजड़ों को कार्यक्रम की सूचना कैसे मिलती है. हिजड़ों का समुदाय कैसे बच्चों को हिजड़ा बनाकर अपने ग्रुप में  शामिल करता है. इस कहानी में सोफिया प्रतिभा नामक एक लड़की के साथ हुए बलात्कार के लिए अपनी जान की बाजी लगाकर न्याय का प्रयास करती है जो हिज्दोंके संवेदनशील नागरिक होने की पुष्टि करती है. भारतीय समाज में लड़कियों को आगे बढाने की बात तो सब करते हैं पर अपनी गंदी हरकतों के माध्यम से उसका रास्ता भी रोकने का प्रयास भी साथ-साथ समाज में चलता रहता है.
हिजड़ों पर लिखी गई कहानियों में डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह की कहानी ‘संकल्प’ एक अलग ढंग की कहानी है. यह हिजड़ा जीवन की विसंगतियों खासकर बुचरा हिजड़ों के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी देती है वहीं पर इक्कीसवीं सदी में मेडिकल साइंस और प्लास्टिक सर्जरी से होने वाले उपचारों के बारे में यह कहानी एक अलग ही रास्ता दिखाती है. इस कहानी की मुख्य पात्र माधुरी है. उपेक्षा और अपमान का घूँट पीने वाले इस समुदाय में भी अस्मिता और अस्तित्व की पहचान का संकट नहीं रह गया है. इनके लिए जाने कितने कानून आये और चले गए पर इनकी स्थिति जस कि तस है. चिकित्सा सम्बन्धी जागरूकता के कारण बहुत सारी आंतरिक बीमारियों का शिकार यह समुदाय होता रहा है. एक स्वस्थ्य यौनकर्मी के रूप में जीवन यापन के लिए या स्वयं में एक स्त्री या पुरुष के रूप में परिवर्तन की राह खोलती यह कहानी स्वयं में बहुत अनूठी है. अविकसित जननांग के कारण इनके मन में बहुत सारी विकृतियाँ और कुंठाएं घर कर जाती हैं. निर्धनता किसी के लिए भी अभिशाप हो सकती है पर समय रहते अगर आपके पास संसाधन आ जाते हैं तो आप उसका बेहतर उपयोग भी कर सकते हैं. विजय तो वही पाते है जो अपनी राह पर दते रहते हैं. कहानीकार ने इस कहानी में हिजड़ों के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराइ हैं जो अभी तक बहुत सारे पाठकों को मालुम नहीं थी. शारीरिक गुत्थी सुलझने से बहुत सारी मानसिक गुत्थियों का इलाज संभव है यही कहती है डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह की कहानी संकल्प.

*सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र,
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
बिहार-823004



[1] बिंदा महराज, शिवप्रसाद सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, पेज 21
[2] बिंदा महराज, शिवप्रसाद सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, पेज 22
[3] बिंदा महराज, शिवप्रसाद सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, पेज 25
[4] बिंदा महराज, शिवप्रसाद सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, पेज 23
[5] खलीक अहमद बुआ, राही मासूम रजा, थर्ड जेंडर: हिंदी कहानियां, पेज 31
[6] बीच के लोग, सलाम बिन रज़ाक, थर्ड जेंडर:हिंदी कहानियां, पेज 34
[7] बीच के लोग, सलाम बिन रज़ाक, थर्ड जेंडर:हिंदी कहानियां, पेज 34
[8] संझा, किरण सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, पेज 65
[9] संझा, किरण सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, पेज 73
[10] संझा, किरण सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, पेज 69
[11] संझा, किरण सिंह, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, पेज 69
[12] हिजड़ा, कादम्बरी मेहरा, पेज 85
[13] इज्जत के रहबर, डॉ. पद्मा शर्मा,  पेज 95

स्वतंत्र भारत की सार्वजानिक शिक्षा और दलित / डॉ. कर्मानंद आर्य



प्रसिद्ध भाषाशास्त्री प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह का एक कथन बार-बार याद आता है :
‘’20 वीं सदी पूँजी का युग था जिसके पास पूँजी थी, वह सबसे अधिक शक्तिशाली था.  21 वीं सदी ज्ञान का युग है, जिसके पास ज्ञान है, वह सबसे अधिक शक्तिशाली है. इस ज्ञान- युग का "महाभारत" शस्त्र से नहीं,  स्याही से लड़ा जाएगा.’’
भारत में शिक्षा का बड़ा अभाव रहा है. अठारवीं सदी से पहले भारत की शिक्षा व्यवस्था पर यदि नजर डालें तो स्थिति बिलकुल शून्य है. अनपढ़ बनाए हुए लोगों की एक बड़ी जमात दिखाई देती ही. देश के चार या पांच प्रतिशत पुरुषों को ही पढ़ने का अधिकार था. वे भी शिक्षा गुरुकुल या घर पर अध्यापक रखकर की जाने वाली शिक्षा. शिक्षा के नाम पर तो यदि कोई स्त्री या दलित शास्त्रवचनों को सुन ले तो उसके कान में शीशा घोलकर डाल देने की बात यहाँ के विधि ग्रंथों में रही है. यानि केवल उस समुदाय के पास शिक्षा है जो या तो लूटकर्म में संलिप्त रहें है या उसमें सहायक रहे हैं.
आजादी का सपना देश के हर नागरिक का यूटोपिया था. आजादी के पहले दलित समाज के लोगों के लिए पढने का अवसर नहीं था. अंग्रेजों के आने से शिक्षा में उन्हें थोड़ा अधिकार मिला. आजादी मिली लेकिन दलितों के लिए वह मात्र सत्ता का हस्तांतरण मात्र बनकर रह गई. दो तरह की शिक्षा नीति बनाई गईं. एक तो इस बात पर आधारित थी कि इतिहास में जो वर्ग शिक्षा से वंचित रहे हैं उन्हें आरक्षण के माध्यम से मुख्यधारा में आने का अवसर दिया जाए. इसे उनकी जनसंख्या के आधार पर तय किया गया. इसके साथ ही उन्हें छात्रवृत्ति, किताबें और अन्य तरह की आर्थिक मदद देने का संकल्प कई सरकारों ने लिया. उनके लिए हास्टल बनाये गए, उनका ड्रापआउट कम हो इसका ख्याल रखा गया पर स्थिति फिर वही ढ़ाक के तीन पात वाली रही.
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि ‘शिक्षा’ दोधारी तलवार की तरह होती है. इसका अनुचित और उचित दोनों तरह का प्रयोग हो सकता है. मसलन, यथास्थिति एवं रूढ़िगामी ताकतें शोषण-दमन एवं लूट खसोट को जारी रखने के लिए शिक्षा का दुरुपयोग करती हैं. जबकि परिवर्तनवादी एवं प्रगतिगामी शक्तियां शिक्षा के जरिये सामाजिक न्याय एवं लोककल्याण का प्रयास करती हैं. शिक्षा को लेकर इन दिनों विश्वविद्यालयों में बहस और मुबाहिसे हो रहे हैं. पक्ष और प्रतिपक्ष का वैचारिक निर्माण हो रहा है. ऐसे समय में डॉ. आंबेडकर का यह कथन स्मरण रखना चाहिए कि शिक्षा किसी ख़ास वर्ण या समुदाय की चीज नहीं है अपितु उसपर सबका हक है. शिक्षा के समुचित विकास से ही यह राष्ट्र अपने गौरव को प्राप्त करेगा. इसीलिए शिक्षा के साथ शील पर भी उनका ध्यान था.
शिक्षा किसी भी सरकार में मुख्य अजेंडे में नहीं रही. दलितों पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा. सरकारी विद्यालयों में भी उनकी संख्या लगातार कम होती रही. 2016 में ही प्रभात खबर की एक रिपोर्ट कहती है कि 3600 सरकारी विद्यालय सिर्फ बिहार और झारखंड में बंद होने की कगार पर हैं. उच्च शिक्षा में तो और भी बुरा हाल है. यहाँ विचारणीय है कि सरकार द्वारा इतना प्रोत्साहन के बावजूद भी आज तक दलित शिक्षा से वंचित क्यों है? आजादी के बाद शिक्षा में आरक्षण की नीति के कारण उच्च शिक्षा में भी देखें तो दलितों के वहाँ पहुँचने में कुछ तो प्रगति हुई है पर फिर भी इस बात से मैं सहमत हूँ कि कई तरह की सुविधाओं के होने के बावजूद आईआईटी और आईआईएम या उच्च शिक्षा में उनका प्रतिनिधित्व उतना नहीं है जितना कि होना चाहिए था.
हालाँकि संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार- 'राज्य विशेष सावधानी के साथ समाज के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जाति/ जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों के उन्नयन को बढ़ावा देगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के सामाजिक शोषण से उनकी रक्षा करेगा'. अनुच्छेद 330, 332, 335, 338 से 342 तथा संविधान के 5वीं और 6ठी अनुसूची अनुच्छेद 46 में दिए गए लक्ष्य हेतु विशेष प्रावधानों के संबंध में कार्य करते हैं.  समाज के कमजोर वर्ग के लाभार्थ इन प्रावधानों का पूर्ण उपयोग किए जाने की आवश्यकता है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के व्यक्तियों के शैक्षणिक आधार को सुदृढ़ करने के लिए कई कदम उठाए हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं कार्ययोजना (पीओए) 1992 के अनुपालन में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए प्राथमिक शिक्षा, साक्षरता एवं माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग की वर्तमान योजनाओं में विशेष प्रावधान किए गए हैं पर इन कानूनों का कड़ाई से पालन नहीं होने के कारण दलित शिक्षा से अपवंचित हैं.  
कई कानून होने के बावजूद दलित बच्चों की शिक्षा में समुचित भागीदारी नहीं हो पा रही है. दलित बच्चों को विद्यालय छोड़कर घरेलू कार्यों में संलग्न होना पड़ता है. स्कूल का दूर होना, यातायात की अनुपलब्धता, घरेलू काम, छोटे भाई-बहनों की देखरेख, आर्थिक व विभिन्न सामाजिक समस्याएं आदि कुछ ऐसे कारण हैं, जो शिक्षा की राह में बाधा हैं. शौचालय की कमी, कमरे की कमी, टीएलएम की कमी, कौशल से युक्त शिक्षक की कमी, पानी की कमी के बावजूद दलित स्कूल जाना चाहते हैं. स्कूलों के अंदर छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयां दूर हो सकें और सभी परिवार बिना किसी भय व संकोच के अपने घर की बच्चों को स्कूल भेज सकें. ग्रामीण इलाकों में चल रहे स्कूलों में अधोसंरचना एवं संसाधनों की कमी है. अधिकतर सरकारी विद्यालयों में मात्र एक पूर्णकालिक योग्य शिक्षक है.  अन्य सुविधाएं जैसे पृथक शौचालय, चहारदीवारी, कक्षा भवन आदि की कमी है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली निर्धनता उनकी शिक्षा एवं कौशल विकास के लिए सबसे बड़ा अवरोध है.  
आज कुकुरमुत्तों की तरह जो प्राइवेट स्कूल खुले हैं उनमें सरकारी कर्मचारियों या धनपशुओं के बच्चे पढ़ते हैं. सरकारी विद्यालयों की स्थिति दिनोंदिन खराब होती जा रही है. पंजाब के स्चूलों की एक रिपोर्ट बताती है कि वहां के सरकारी विद्यालयों में केवल और केवल दलित या अपवंचित समुदायों के बच्चे ही पढ़ रहे हैं. ऊपर से तुर्रा यह है कि सारे देश में स्कूल शिक्षकों पर जनगणना से लेकर कई तरह के सर्वे करने का काम है. उनका ध्यान पढ़ाने-लिखाने पर कम अपने निजी व्यवसाय या दूसरे कामों में बहुत अधिक है. दलितों की शिक्षा के लिए आजादी के सत्तर सालों बाद भी कोई ख़ास मोड्यूल नहीं है. किसी भी सरकार के पास दलितों आदिवासियों के लिए स्पेशल पैकेज नहीं है. उन्हें मुख्यधारा की ब्राह्मणवादी शिक्षा दी जा रही है जिसमें न उनके कोई महापुरुष हैं न ही उनके समाज की प्रेरक बोध कथाएं. ऐसे में वे उन किताबों का ठीक से साधारणीकरण नहीं कर पाते जिसमें न तो उनके पूर्वजों का नुभव है और न ही उनके द्वारा किये गए महान कार्य.
डॉ.अम्बेडकर कहते हैं कि मनुष्यमात्र को एक तर्कशील जमात बनाना होगा. मनुष्य को मनुष्य बनना होगा जिसमें प्रेम, सहिष्णुता, करुणा और मेहनत करने का माद्दा हो. जिसमें आत्मसम्मान हो और दूसरों को सम्मान देने की आदत हो, जो छद्म से दूर एक खुली किताब हो[1]. दलितों के लिए भारतीय शिक्षा का क्या अवदान है तो हमें दलित आत्मकथाओं यथा ‘जूठन’ ‘मुर्दहिया’ ‘मेरा बचपन मेरे कंधे पर’ ‘अक्करमाशी’ ‘दोहरा अभिशाप’ ‘इतिवृत्तेर चांडाल’ आदि को अवश्य पढना चाहिए. सामाजिक जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटना से मनुष्य प्रभावित होता है. वहीं से उसके संस्कार जन्म लेते हैं और उसकी वैचारिकता, दार्शनिकता ,सामाजिकता, साहित्यिक समझ प्रभावित होती हैं. शिक्षा के प्रति वहीं लगाव या दुराव भी पैदा होता है. कोई भी व्यक्ति अपने परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है. सामाजिक चेतना का ही प्रतिबिम्ब बन कर उभरती है. जो उसकी जीवन में मूर्त रूप में प्रकट होती है.
देश की बदहाल शिक्षा पर बीबीसी हिंदी में पाणिनि आनंद प्रो सुखदेव थोराट के हवाले से लिखते हैं कि ‘आप देखें कि जो केंद्रिय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केंद्रीय विद्यालय हैं. जो सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं, गांव में जो मेरिट वाले बच्चे हैं उनके लिए नवोदय स्कूल हैं, और सामान्य बच्चों के लिए नगर निगम के स्कूल हैं. प्राइवेट की तो बात ही नहीं कर सकते, उनमें अंतरराष्ट्रीय मानकों तक के आधार पर पढ़ाई हो रही है’[2]. उन्नीस केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में कुछ बच्चे आरक्षण की मदद से एडमिशन तो पा गए पर एकाध साल में ही उन्हें सिस्टम से बाहर कर दिया गया या वे स्वयं छोड़कर चले गए. स्थिति बड़ी ही भयावह है. वजह ग़रीबी, सामाजिक विभेद, आर्थिक चुनौतियाँ और घर का माहौल भी हैं. इसकी वजह से और वर्गों की तुलना में इस वर्ग से एक छोटा सा तबका ही उच्च शिक्षा में जा पाता है.इस तरह के प्रयासों की वजह से हम पाते हैं कि शिक्षा का ग्राफ तेज़ी से ऊपर गया है पर जनसंख्या के अनुपात से देखें तो अभी भी दलितों का साक्षरता प्रतिशत औरों की अपेक्षा कम है.
कठिन परिस्थियों के बावजूद हमें यह भी सुनने को मिल जाता है कि समाजिक मूल्य अब समाप्त हो चुका है. जाहिर है कि शूद्र- अतिशूद्रों का समाज में बढ़ते दखल को ही मनुवादी शक्तियों ने समाजिक मूल्यों की समाप्ति करार दिया है. वास्तविकता यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था टूटी है. कानों में पिघले सीसा डालना बंद हुआ है. इसे ही मनुवादी ताकतों ने समाजिक मूल्यों की समाप्ति मानी है. कई लोग यह भी कहते हैं कि अब शिक्षा में गिरावट आ गई है. जाहिर है कि शूद्र- अतिशूद्रों की शिक्षा में बढ़ते दखल को ही मनुवादी शक्तियों ने शिक्षा में गिरावट करार दिया है. यह सामाजिक बहिष्करण का ही उदाहरण है. वास्तविकता यह है कि शिक्षा का द्वार सभी के लिए खुल चुका है. शूद्र- अतिशूद्र प्रोफेसर, डाक्टर और इंजीनियर होने लगे है.
प्रो. सुखदेव थोराट अपने वक्तव्य में कहते हैं कि -‘’मेरी अपनी राय है कि शिक्षा नीति को और प्रभावी बनाने के लिए कोठारी आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए. सामान्य शिक्षा की व्यवस्था लागू हो. गुणवत्ता के स्तर पर सभी को एक जैसी शिक्षा उपलब्ध कराया जाए. कोठारी आयोग ने इस पर काफी बल दिया था. आप देखें कि जो केंद्रिय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केंद्रीय विद्यालय हैं. जो सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं, गांव में जो मेरिट वाले बच्चे हैं उनके लिए नवोदय स्कूल हैं, और सामान्य बच्चों के लिए नगर निगम के स्कूल हैं. प्राइवेट की तो बात ही नहीं कर सकते, उनमें अंतरराष्ट्रीय मानकों तक के आधार पर पढ़ाई हो रही है. इससे एक तरह की असमानता हम लोगों ने ही पैदा कर दी है. समाज का एक विशेष आर्थिक पहुँच वाला व्यक्ति ही अपने बच्चों को यह शिक्षा दे पा रहा है और बाकी के लिए सरकारी पाठशालाएं हैं’’[3].
       देश की सामाजिक बनावट व आर्थिक श्रेणीबद्धता 'सभी के लिए एक जैसी शिक्षा' के सिद्धांत के सामने हमेशा यक्षप्रश्न रही है और शिक्षा हमेशा स्तरीय खांचों में बंटी रही है.  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा के मामले में दलित बालिकाओं की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं आया है.  अनुसूचित जाति एवं जनजाति की बालिकाएं शिक्षा के मामले में अपने वर्ग के बालकों एवं सामान्य वर्ग की बालिकाओं से बहुत पीछे हैं.  शिक्षा में इस बात का महत्व है कि बालिकाओं का कितना अनुपात पढ़ाई पूरी किए बगैर स्कूल छोड़कर घर बैठ जाता है.  शिक्षा के सभी स्तरों पर दलित बालिकाओं की ड्रॉप आउट दर सामान्य जनसंख्या के अनुपात में बहुत ज्यादा है.  सामान्य जनसंख्या के सापेक्ष दलित बालिकाओं का ड्रॉप आउट अंतर बहुत ज्यादा है.  उच्च शिक्षा में भी दलित वर्ग की बालिकाओं का अनुपात सामान्य वर्ग की बालिकाओं की तुलना में बहुत पीछे है.  
वह शिक्षा जो कभी उच्च वर्गों तक सिमटी हुई थी, वह समाज के निचले पायदान तक पहुंची है. जो सबसे अधिक जातिवादी है वही दूसरे को जातिवादी कह रहा है. जो जातियों का घृणित खेल खेल रहा है वही कह रहा है कि जाति के कारण देश विभाजित हो रहा है. जो अपनी जातीय संगठन के कारण भारतीय शासन व्यवस्था और नब्बे प्रतिशत पूंजी पर कब्ज़ा जमाये हुए है वह दूसरों को लूट का देवता कह रहा है. साहित्य, सत्ता, सरकारी प्रतिष्ठानों में ऐसे ही जातिवादी अपने कुलपुत्रों को अभय दान देकर कृतार्थ कर रहे हैं. जो कह रहे हैं कि ‘’उत्तम खेती, मध्यम बान (वाणिज्य), अधम चाकरी, भीख निदान.......बताकर वे खुद बिजनेस, नौकरियों और दक्षिणा मांगने में जुट गए हैं उनके बारे में पता लगना चाहिए कि आखिर वे कौन लोग हैं?
भारत के लगभग विश्वविद्यालय जिस प्रकार की शिक्षा देते हैं अगर उसका ठीक से विश्लेषण करें तो पता चलता है कि शिक्षा का एक वह मॉडल है जिसे मनुवादी शिक्षा व्यवस्था अर्थात जाति-पांति और वर्ण विभाजन के अनुसार भेदभाव की शिक्षा मिलती है और दूसरी वह व्यवस्था है जिसमें लार्ड मैकाले की पश्चिमी पद्धति का ज्ञान दिया जाता है. विश्वविद्यालयों को बजट भी वर्णक्रम में आबंटित होता है. लाइब्रेरी में जाकर देखता हूँ तो राजनीति, विज्ञान, समाजशास्त्र, विधि, वाणिज्य इत्यादि की बेहतरीन किताबें पश्चिमी लेखकों द्वारा लिखी गई हैं या भारतियों द्वारा अनूदित हैं. उनमें से कई भारतीयों की वो किताबें भी शामिल हैं जो पश्चिमी ज्ञान विज्ञान की नक़ल मात्र हैं. अपना ओरिजिनल शून्य बता सन्नाटा. फिर ध्यान जाता है कि भारत में जिन्हें शिक्षा का जनक समझा जाता है उनका शिक्षा में क्या योगदान है? स्थिति शून्य दिखाई देती है क्योंकि अधिकतर शिक्षाशास्त्री या तो मनुवाद आधारित शिक्षा के हिमायती (यथा राधाकृष्णन, मालवीय, दयानंद, विवेकानंद) हैं या वे लोग हैं जो मध्यममार्ग का अनुशरण करते हैं.
वैसे भी इनमें से अधिकांश के पास शिक्षा को लेकर अपना कोई विजन नहीं है . कुछ इन्हीं में से हैं जो मुस्लिम धार्मिक शिक्षा को विवि का अनिवार्य तत्व समझते हैं. यही कारण है कि भारत में किसी प्रकार का स्वतंत्र ज्ञान का विकास दिखाई नहीं देता है. इसी पद्धति पर पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे प्रोफेसरों को नियुक्त किया जाता है जो बहुत एवरेज दर्जे के होते हैं (अच्छे लोग डॉक्टर या इंजीनियर, आईएएस आदि) नियुक्त हो जाते हैं और जो कहीं नहीं फिट होते वे प्रोफेसर. द्रष्टव्य है अभी भारत संसार के दो सौ विश्वविद्यालयों में अपनी जगह नहीं बना पाया है. कारण साफ़ है. अयोग्यता. दूसरा बड़ा कारण है कि समाज के एक बड़े तबके द्वारा तीन चौथाई आबादी को मनुवादी शिक्षा द्वारा नीच जाति का होने के कारण बहिष्कृत कर रखा है. पढ़े-लिखे लोग भी अनपढ़ों के लिए पशुओं जैसा व्यवहार करते दिखाई देते हैं. भारत के किसी भी स्कूल में शायद ही पढ़ाया जाता हो कि उनकी शिक्षा का आखिर क्या उद्देश्य है?
विश्वविद्यालयों में सरकार की मोटी सेलरी पाने वाले प्रोफेसर अपने भाई-भतीजों और पत्नियों को अपने या किसी दूसरे संस्थान में लगवाने का सूत्र ढूँढ़ते दिखाई देते हैं. अपने जीवन काल में विद्यार्थियों की एक ऐसी फौज वे तैयार कर लेते हैं जो उन्हें बोर्ड का सदस्य बना दे, नियुक्ति कमेटियों में बिठा दे या अधिक हुआ तो कहीं का वीसी बना दे ताकि वे जीवन की बची-खुची कसर पांच साल में पूरी कर सकें. अधिकतर विवि और महाविद्यालयों के शिक्षक ऐसे हैं जिनकी खाल मुफ्त की सेलरी से मोटी हो गई है. सर्टिफिकेट जारी करने के अलावा विवि जातिवाद, ब्राह्मणवाद और क्षेत्रवाद के गढ़ के और कुछ भी नहीं रह गए हैं. कुछ प्रोफेसरों को देखकर लगता है कि उनमें चपरासी की भी योग्यता नहीं है पर गुरूजीकी कृपा से खुला सांड बने हुए हैं. कई तो ऐसे मरियल हैं जिनको देखकर आपको खुद ब खुद हंसी आ जायेगी. कोई इसपर बोलता नहीं है. कौन बोलेगा? जो बोलेगा उसका अहित निश्चय है.
अभी कुछ दिनों पहले ही एक प्रोफेसर से (जो जन्मना सवर्ण है) आरक्षण के मुद्दे पर बात हो रही थी. उनका मानना था कि रिजर्वेशन से देश का बहुत नुक्सान हो रहा है. उनका तर्क था कि अभी आईआईटी के सात निदेशकों ने मोदी सरकार को लिखकर दिया है कि इन संस्थाओं में आरक्षण नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे उनकी गुणवत्ता घट रही है. बात साफ़ है इन्हें ही आधुनिक मनु कहा जा सकता है. द्रोणाचार्य और शुक्राचार्य यही हैं. इनमें से एक भी दलित, पिछड़े, आदिवासी समुदाय का नहीं होगा यह मेरा दावा है. इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि देश के 789 विश्वविद्यालयों में पंद्रह भी वंचित समुदायों के लोग प्रशासक नहीं है. वहां किसी प्रकार का आरक्षण भी नहीं है जिसमें एक कुलपति एवरेज 200 लोगों को अपने जीवन काल में नियुक्त कर लेता है. विवि की नियुक्तियों का जाति क्रम से अध्ययन हो तो इन माननीयों की असलियत सामने आ जाए पर करे कौन भाई ? चोर, सिपाही, जज जब एक ही समुदाय हो तो भी न्याय को काली पट्टी बांधनी ही पड़ेगी. नियुक्त प्रोफेसर जो पाठ्यक्रम बनाते और पढ़ाते हैं उसपर और पाठ्यपुस्तक की राजनीति पर स्वतंत्र लिखा जाना अपेक्षित होगा. अब सोचिये जिन प्रोफेसरों को लगता है कि आरक्षण से देश का नुक्सान हो रहा है वे अपने वंशजों में आखिर यही जहर नहीं घोलते होंगे तो क्या करते होंगे? तुर्रा यह कि उन्हीं के नब्बे प्रतिशत भाई-भतीजे प्रोफेसर हैं. उन्हें संविधान का भी मान नहीं. उन्हें आरक्षण की अवधारणा तक पता नहीं. वे आरक्षण को मनरेगा समझकर आर्थिक सशक्तिकरण का टूल मानते हैं. भाई आरक्षण मनरेगा नहीं प्रतिनिधित्व का मामला है.
बहुसंख्यक जागरूक हो रहे हैं. जो नहीं मिलेगा उसे छीनकर ले लेंगे और इसी रास्ते साम्यवाद आएग वही इस शिक्षा व्यवस्था और मनुवादी गढ़ को भी तोड़ेंगे क्योंकि जो पाठ्यक्रम उन्हें पढ़ाया जा रहा है वह झूठ से भरा हुआ और बहुत अधूरा है. जहाँ आंबेडकर, लोहिया, ज्योतिबा, पेरियार को पढ़ाया जाना चाहिए वहां मनु महराज के वेद पुराण पढाये जा रहे हैं. अच्छे दिन तब आयेंगे जब भारत के हर बुक स्टाल पर लेनिन मार्क्स के साथ आंबेडकर, लोहिया, ज्योतिबा, पेरियार की किताबें ढूँढनी नहीं पड़ेंगी. शिक्षा सबको सुलभ होगी और सभी की पहुँच में होगी.
ये विष विद्यालय हैं या विश्वविद्यालय :
भारतीय विश्वविद्यालय ब्राह्मणवाद के सबसे बड़े अड्डे हैं. विभाग ही क्यों भारत के लगभग विश्वविद्यालय द्रोणाचार्योंऔर परसुरामोंसे भरे हुए हैं जो ये नहीं चाहते कि शिक्षा गैर ब्राह्मणों को मिले. शिक्षा का सारा माडल ही द्रोणाचार्यो के हाथ की मैल है. जिस राजनीति के तहत कुलपतियों की नियुक्ति होती है और सीधा-सीधाएजेंडे पर काम करने वाला दासनियुक्त होता है वह किसी के सामने तनकर कैसे खड़ा हो सकता है. उसी की कृपा पर जीने वाले कृपा पात्र प्राध्यापक कैसे आवाज उठाएंगे? उनका मुख्य उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता नहीं अपितु नियुक्ति’ ‘निर्माण’ ‘कमीशनऔर कमेटीपर होता है. शिक्षा तो भगवान भरोसे ही रहती है. एक संगोष्ठी में शिक्षक साथी बता रहे थे कि विकासके नाम पर आयी सरकार कैसे शिक्षा की घोर विरोधी है. ग्यारहवीं पञ्चवर्षीय योजना के सापेक्ष इस सरकार ने बारहवीं पञ्चवर्षीय योजना में ग्यारह हजार करोड़ रूपये की कटौती की है ऊपर से कई केन्द्रीय संस्थान और लाद दिए हैं.
       तुर्रा यह कि जिस देश में अंग्रेजों के आने के पहले विश्वविद्यालय जैसी कोई चिड़िया नहीं थी वे आज कह रहे हैं कि नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय उनके यहाँ थे. भाई वे विश्वविद्यालय नहीं थे, वे गुरुकुल थे जिनमें कुछ ख़ास जातियों के दो प्रतिशत लोगों को पढने का अधिकार था. मैकाले को गाली देने वाले इन विश्वविद्यालयों के ज्ञानी प्रोफ़ेसरजिन्होंने मैकाले की मिनट्स आन एजुकेशनका मुंह तक नहीं देखा होता वे शिक्षा के क्षेत्र में मोटी सेलरी भोगकर रिटायर हो जाते हैं. उन्हें शिक्षा या शिक्षा से जुड़े अवदानों से क्या लेना देना. मैकाले की आत्मा उन मूर्खों पर कितनी हँसती होगी!! तुर्रा यह भी कि यही प्रोफेसर उन दीनहीन गोतियों को यह सिखाने में सफल होते हैं कि मैकाले संसार का सबसे बड़ा दुश्मन था. भारत सोने की चिड़िया थी जिसे अंग्रेज उठाकर ले गए. क्यों ले गए भाई? इसलिए क्योंकि भारतीयों के पास चिड़िया को रखने का पिंजरा नहीं था. ब्राह्मणवादी परंपरा के गुलाम वे शिक्षक कभी शर्म के कारण भी अपने बच्चों को यह नहीं बताते कि बाबू !! अंग्रेजों ने हमसे बहुत पहले विश्वविद्यालय का कांसेप्ट इजाद कर लिया था. सोलहवीं सदी में उनके पास कई ऐसे विश्वविद्यालय थे जिनके बराबर हमारे यहाँ स्कूल भी नहीं थे पर वे अपनी संततियों को कथा-कहानी में महान घोषित करके ही मानते हैं. यहीं झूठ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंटता चला जाता है.
       इन दिनों बड़ी इच्छा हो रही है कि देश के पांच-दस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों का सांख्यकीय अध्ययन किया जाय. इसमें भी जाति गणना हो. इससे पाठ्यपुस्तक की राजनीति भी समझ में आएगी और कूड़ा केन्द्रों का भी पता चलेगा. जो देश अपने लोगों को जाहिल और गंवार बनाये रखने की साजिस में शामिल हो उसकी जनता को राष्ट्रवादतोते की तरह रटाने पर थोड़े ही आयेगा. ये विश्वविद्यालय उन्हीं पांच प्रतिशत लोगों के हितैषी हैं जिनका इस पर सर्वाधिकार है. क्या इस देश में दलितों और आदिवासियों की शिक्षा विकास का कोई माडल है? है तो क्या इसे कोई विश्वविद्यालय लागू भी करता है? मुझे सन्देह है...लगता नहीं ये विश्वविद्यालय हैं.......ये तो सर्टिफिकेट बांटने का केंद्र और सरकार की एजेंसी बनकर रहे गए हैं.
हिंदी को आलोचकों ने लोकल से लेकर ग्लोबल बनाया बनाया, आधुनिकता आई, फिर हिंदी उत्तराधुनिक भी हो गई. किसी ने यह पड़ताल नहीं की कि आखिर भारतीय समाज की वास्तविकता क्या है? क्या वह वास्तव में खुद को मध्यकाल से कभी अलग कर पाया? क्या वह हजारो सालों से दस प्रतिशत द्वारा देखी जाने वाली वास्तविकता है या उसका स्वरूप कुछ भिन्न भी है?  अगर हम समाज के सच्चे सेवकों के नाम ढूढने चलें तो उनकी संख्या अँगुलियों पर गिनी जा सकती है. हिंदी साहित्य पर गांधी का बहुत प्रभाव है. वहां से आगे चले तो उसकी प्रेरणा भूमि बंगाल तक जाती है. पर हिंदी साहित्य की विडंबना देखिये कि अपने ज्ञान और मेधा का लोहा मनवाने वाले डॉ. आंबेडकर, उनके प्रेरणा पुरुष ज्योतिबा और क्रांति ज्योति सावित्रीबाई का कोई प्रभाव हिंदी आलोचक नहीं देख पाते तो उसका क्या कारण हो सकता है. यही बात जब भारत में शिक्षा पर होती है तो बहुत सारे शिक्षा विदों का नाम लिया जाता है पर शिक्षा और समाज के लिए जान लगा देने वाले सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले का जिक्र मुख्यधारा के लोग नहीं करते हैं तो इसका क्या कारण है.
कहते हैं किसी को गुलाम बनाना हो तो उसे सांस्कृतिक रूप से गुलाम बना दीजिये,  उसके अतीत को इतना बिगाड़ दीजिये की वो कभी अपनी जड़े न खोज पाये. देर ही सही  इन पर से पर्दा उठने का कार्य प्रारम्भ हो गया है. भारत की सामासिक संस्कृति की बुनावट को रेखांकित करते हुए उच्च वर्णस्थ रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में भारतीय संस्कृति को रेखांकित करते हुए लिखते है कि – भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है. पहली क्रांति तो तब हुई जब आर्य भारतवर्ष में आये अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येत्तर जातियों से संपर्क हुआ. दूसरी क्रांति तब हुई जब महावीर और गौतमबुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्ताधारा को खींचकर वे अपनी मनोवांछित दिशा की ओर ले गए.
इस क्रांति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, किन्तु अंत में, इसी क्रांति के सरोवर में शैवाल भी उत्पन्न हुए और भारतीय धर्म और संस्कृति में जो गंदलापन आया, वह काफी दूर तक इन्हीं शैवालों का परिणाम था. तीसरी क्रांति उस समय हुई जब इस्लाम विजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और इस देश में हिंदुत्व के साथ उसका संपर्क हुआ. चौथी क्रांति हमारे समय में हुई जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ.[4] इसे वे चार सोपान कहते हैं. अब मान्य दिनकर जी से पूछा जाना चाहिए कि क्या भारत सिर्फ युद्धों या बर्बरों की संस्कृति को मानता है. दिनकर जिस संस्कृति कह रहे हैं वह किन लोगों की संस्कृति है? क्या यह आदिवासियों, मूलनिवासियों, दलितों, पिछड़ों की संस्कृति है? क्या इसमें कुछ हिस्सा दक्षिण, उत्तर-पूर्व के लोगों का भी है? और सबसे बड़ी बात यह कि आखिर इस देश में शिक्षा को लेकर कोई क्रांति क्यों नहीं होती?

*सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
बिहार – 823001




[1] दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, पृष्ठ-९८
[2] सुखदेव थोराट से बात चीत, पाणिनि आनंद, बीबीसी हिंदी, बीबीसी वेबपोर्टल
[3] सुखदेव थोराट से बात चीत, पाणिनि आनंद, बीबीसी हिंदी, बीबीसी वेबपोर्टल
[4] संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, लोक भारती प्रकाशन, भूमिका से 

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