प्रसिद्ध
भाषाशास्त्री प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह का एक कथन बार-बार याद आता है :
‘’20 वीं
सदी पूँजी का युग था जिसके पास पूँजी थी, वह सबसे अधिक शक्तिशाली था. 21 वीं सदी
ज्ञान का युग है, जिसके
पास ज्ञान है, वह
सबसे अधिक शक्तिशाली है. इस ज्ञान- युग का "महाभारत" शस्त्र से नहीं, स्याही से लड़ा जाएगा.’’
भारत में
शिक्षा का बड़ा अभाव रहा है. अठारवीं सदी से पहले भारत की शिक्षा व्यवस्था पर यदि
नजर डालें तो स्थिति बिलकुल शून्य है. अनपढ़ बनाए हुए लोगों की एक बड़ी जमात दिखाई
देती ही. देश के चार या पांच प्रतिशत पुरुषों को ही पढ़ने का अधिकार था. वे भी
शिक्षा गुरुकुल या घर पर अध्यापक रखकर की जाने वाली शिक्षा. शिक्षा के नाम पर तो यदि
कोई स्त्री या दलित शास्त्रवचनों को सुन ले तो उसके कान में शीशा घोलकर डाल देने
की बात यहाँ के विधि ग्रंथों में रही है. यानि केवल उस समुदाय के पास शिक्षा है जो
या तो लूटकर्म में संलिप्त
रहें है या उसमें सहायक रहे हैं.
आजादी का सपना देश के हर नागरिक का
यूटोपिया था. आजादी के पहले दलित समाज के लोगों के लिए पढने का अवसर नहीं था.
अंग्रेजों के आने से शिक्षा में उन्हें थोड़ा अधिकार मिला. आजादी मिली लेकिन दलितों
के लिए वह मात्र सत्ता का हस्तांतरण मात्र बनकर रह गई. दो तरह की शिक्षा नीति बनाई
गईं. एक तो इस बात पर आधारित थी कि इतिहास में जो वर्ग शिक्षा से वंचित रहे हैं
उन्हें आरक्षण के माध्यम से मुख्यधारा में आने का अवसर दिया जाए. इसे उनकी
जनसंख्या के आधार पर तय किया गया. इसके साथ ही उन्हें छात्रवृत्ति, किताबें और
अन्य तरह की आर्थिक मदद देने का संकल्प कई सरकारों ने लिया. उनके लिए हास्टल बनाये
गए, उनका ड्रापआउट कम हो इसका ख्याल रखा गया पर स्थिति फिर वही ढ़ाक के तीन पात
वाली रही.
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि ‘शिक्षा’ दोधारी तलवार की तरह
होती है. इसका अनुचित और उचित दोनों तरह का प्रयोग हो सकता है. मसलन, यथास्थिति
एवं रूढ़िगामी ताकतें शोषण-दमन एवं लूट खसोट को जारी रखने के लिए शिक्षा का
दुरुपयोग करती हैं. जबकि परिवर्तनवादी एवं प्रगतिगामी शक्तियां शिक्षा के जरिये
सामाजिक न्याय एवं लोककल्याण का प्रयास करती हैं. शिक्षा को लेकर इन दिनों
विश्वविद्यालयों में बहस और मुबाहिसे हो रहे हैं. पक्ष और प्रतिपक्ष का वैचारिक
निर्माण हो रहा है. ऐसे समय में डॉ. आंबेडकर का यह कथन स्मरण रखना चाहिए कि शिक्षा
किसी ख़ास वर्ण या समुदाय की चीज नहीं है अपितु उसपर सबका हक है. शिक्षा के समुचित
विकास से ही यह राष्ट्र अपने गौरव को प्राप्त करेगा. इसीलिए शिक्षा के साथ शील पर
भी उनका ध्यान था.
शिक्षा किसी भी सरकार में मुख्य अजेंडे
में नहीं रही. दलितों पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा. सरकारी विद्यालयों में भी
उनकी संख्या लगातार कम होती रही. 2016 में ही प्रभात खबर की एक रिपोर्ट कहती है कि
3600 सरकारी विद्यालय सिर्फ बिहार और झारखंड में बंद होने की कगार पर हैं. उच्च
शिक्षा में तो और भी बुरा हाल है. यहाँ विचारणीय है कि सरकार द्वारा इतना
प्रोत्साहन के बावजूद भी आज तक दलित शिक्षा से वंचित क्यों है? आजादी के बाद
शिक्षा में आरक्षण की नीति के कारण उच्च शिक्षा में भी देखें तो दलितों के वहाँ
पहुँचने में कुछ तो प्रगति हुई है पर फिर भी इस बात से मैं सहमत हूँ कि कई तरह की
सुविधाओं के होने के बावजूद आईआईटी और आईआईएम या उच्च शिक्षा में उनका
प्रतिनिधित्व उतना नहीं है जितना कि होना चाहिए था.
हालाँकि संविधान
के अनुच्छेद 46 के अनुसार- 'राज्य
विशेष सावधानी के साथ समाज के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जाति/ जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों के
उन्नयन को बढ़ावा देगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के सामाजिक शोषण से उनकी
रक्षा करेगा'.
अनुच्छेद 330, 332, 335, 338 से 342 तथा
संविधान के 5वीं और 6ठी अनुसूची अनुच्छेद 46 में दिए गए लक्ष्य हेतु विशेष
प्रावधानों के संबंध में कार्य करते हैं. समाज के कमजोर वर्ग के लाभार्थ इन प्रावधानों का
पूर्ण उपयोग किए जाने की आवश्यकता है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने
अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के व्यक्तियों के शैक्षणिक आधार को सुदृढ़ करने के लिए
कई कदम उठाए हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं कार्ययोजना (पीओए) 1992 के
अनुपालन में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए प्राथमिक शिक्षा, साक्षरता एवं
माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग की वर्तमान योजनाओं में विशेष प्रावधान किए गए हैं पर
इन कानूनों का कड़ाई से पालन नहीं होने के कारण दलित शिक्षा से अपवंचित हैं.
कई कानून
होने के बावजूद दलित बच्चों की शिक्षा में समुचित भागीदारी नहीं हो पा रही है.
दलित बच्चों को विद्यालय छोड़कर घरेलू कार्यों में संलग्न होना पड़ता है. स्कूल का
दूर होना, यातायात
की अनुपलब्धता, घरेलू
काम, छोटे
भाई-बहनों की देखरेख, आर्थिक
व विभिन्न सामाजिक समस्याएं आदि कुछ ऐसे कारण हैं, जो शिक्षा की राह में बाधा हैं. शौचालय की कमी, कमरे की कमी, टीएलएम की कमी, कौशल से युक्त
शिक्षक की कमी, पानी
की कमी के बावजूद दलित स्कूल जाना चाहते हैं. स्कूलों के अंदर छुआछूत जैसी सामाजिक
बुराइयां दूर हो सकें और सभी परिवार बिना किसी भय व संकोच के अपने घर की बच्चों को
स्कूल भेज सकें. ग्रामीण इलाकों में चल रहे स्कूलों में अधोसंरचना एवं संसाधनों की
कमी है. अधिकतर सरकारी विद्यालयों में मात्र एक पूर्णकालिक योग्य शिक्षक है. अन्य सुविधाएं जैसे पृथक शौचालय, चहारदीवारी, कक्षा भवन आदि
की कमी है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली निर्धनता उनकी शिक्षा एवं कौशल विकास के लिए
सबसे बड़ा अवरोध है.
आज कुकुरमुत्तों
की तरह जो प्राइवेट स्कूल खुले हैं उनमें सरकारी कर्मचारियों या धनपशुओं के बच्चे
पढ़ते हैं. सरकारी विद्यालयों की स्थिति दिनोंदिन खराब होती जा रही है. पंजाब के
स्चूलों की एक रिपोर्ट बताती है कि वहां के सरकारी विद्यालयों में केवल और केवल
दलित या अपवंचित समुदायों के बच्चे ही पढ़ रहे हैं. ऊपर से तुर्रा यह है कि सारे
देश में स्कूल शिक्षकों पर जनगणना से लेकर कई तरह के सर्वे करने का काम है. उनका
ध्यान पढ़ाने-लिखाने पर कम अपने निजी व्यवसाय या दूसरे कामों में बहुत अधिक है.
दलितों की शिक्षा के लिए आजादी के सत्तर सालों बाद भी कोई ख़ास मोड्यूल नहीं है. किसी
भी सरकार के पास दलितों आदिवासियों के लिए स्पेशल पैकेज नहीं है. उन्हें मुख्यधारा
की ब्राह्मणवादी शिक्षा दी जा रही है जिसमें न उनके कोई महापुरुष हैं न ही उनके
समाज की प्रेरक बोध कथाएं. ऐसे में वे उन किताबों का ठीक से साधारणीकरण नहीं कर
पाते जिसमें न तो उनके पूर्वजों का नुभव है और न ही उनके द्वारा किये गए महान
कार्य.
डॉ.अम्बेडकर
कहते हैं कि मनुष्यमात्र को एक तर्कशील जमात बनाना होगा. मनुष्य को मनुष्य बनना
होगा जिसमें प्रेम, सहिष्णुता, करुणा और मेहनत करने का माद्दा हो. जिसमें
आत्मसम्मान हो और दूसरों को सम्मान देने की आदत हो, जो छद्म से दूर एक खुली किताब
हो[1].
दलितों के लिए भारतीय शिक्षा का क्या अवदान है तो हमें दलित आत्मकथाओं यथा ‘जूठन’
‘मुर्दहिया’ ‘मेरा बचपन मेरे कंधे पर’ ‘अक्करमाशी’ ‘दोहरा अभिशाप’ ‘इतिवृत्तेर
चांडाल’ आदि को अवश्य पढना चाहिए. सामाजिक जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटना से
मनुष्य प्रभावित होता है. वहीं से उसके संस्कार जन्म लेते हैं और उसकी वैचारिकता, दार्शनिकता ,सामाजिकता, साहित्यिक समझ प्रभावित
होती हैं. शिक्षा के प्रति वहीं लगाव या दुराव भी पैदा होता है. कोई भी व्यक्ति अपने
परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है. सामाजिक चेतना का ही प्रतिबिम्ब बन कर
उभरती है. जो उसकी जीवन में मूर्त रूप में प्रकट होती है.
देश की
बदहाल शिक्षा पर बीबीसी हिंदी में पाणिनि आनंद प्रो सुखदेव थोराट के हवाले से लिखते
हैं कि ‘आप देखें कि जो केंद्रिय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केंद्रीय विद्यालय
हैं. जो सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं, गांव में जो मेरिट
वाले बच्चे हैं उनके लिए नवोदय स्कूल हैं, और सामान्य बच्चों
के लिए नगर निगम के स्कूल हैं. प्राइवेट की तो बात ही नहीं कर सकते, उनमें अंतरराष्ट्रीय मानकों तक के आधार पर पढ़ाई हो रही है’[2].
उन्नीस केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में कुछ बच्चे आरक्षण की मदद से एडमिशन
तो पा गए पर एकाध साल में ही उन्हें सिस्टम से बाहर कर दिया गया या वे स्वयं छोड़कर
चले गए. स्थिति बड़ी ही भयावह है. वजह ग़रीबी, सामाजिक विभेद,
आर्थिक चुनौतियाँ और घर का माहौल भी हैं. इसकी वजह से और वर्गों की
तुलना में इस वर्ग से एक छोटा सा तबका ही उच्च शिक्षा में जा पाता है.इस तरह के
प्रयासों की वजह से हम पाते हैं कि शिक्षा का ग्राफ तेज़ी से ऊपर गया है पर
जनसंख्या के अनुपात से देखें तो अभी भी दलितों का साक्षरता प्रतिशत औरों की
अपेक्षा कम है.
कठिन
परिस्थियों के बावजूद हमें यह भी सुनने को मिल जाता है कि समाजिक मूल्य अब समाप्त हो
चुका है. जाहिर है कि शूद्र- अतिशूद्रों का समाज में बढ़ते दखल को ही मनुवादी शक्तियों
ने समाजिक मूल्यों की समाप्ति करार दिया है. वास्तविकता यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था
टूटी है. कानों में पिघले सीसा डालना बंद हुआ है. इसे ही मनुवादी ताकतों ने समाजिक
मूल्यों की समाप्ति मानी है. कई लोग यह भी कहते हैं कि अब शिक्षा में गिरावट आ गई है.
जाहिर है कि शूद्र- अतिशूद्रों की शिक्षा में बढ़ते दखल को ही मनुवादी शक्तियों ने
शिक्षा में गिरावट करार दिया है. यह सामाजिक बहिष्करण का ही उदाहरण है. वास्तविकता
यह है कि शिक्षा का द्वार सभी के लिए खुल चुका है. शूद्र- अतिशूद्र प्रोफेसर,
डाक्टर और इंजीनियर होने लगे है.
प्रो.
सुखदेव थोराट अपने वक्तव्य में कहते हैं कि -‘’मेरी अपनी राय है कि शिक्षा नीति को
और प्रभावी बनाने के लिए कोठारी आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए. सामान्य
शिक्षा की व्यवस्था लागू हो. गुणवत्ता के स्तर पर सभी को एक जैसी शिक्षा उपलब्ध
कराया जाए. कोठारी आयोग ने इस पर काफी बल दिया था. आप देखें कि जो केंद्रिय
कर्मचारियों के बच्चों के लिए केंद्रीय विद्यालय हैं. जो सैनिकों के बच्चों के लिए
सैनिक स्कूल हैं, गांव
में जो मेरिट वाले बच्चे हैं उनके लिए नवोदय स्कूल हैं, और सामान्य
बच्चों के लिए नगर निगम के स्कूल हैं. प्राइवेट की तो बात ही नहीं कर सकते, उनमें
अंतरराष्ट्रीय मानकों तक के आधार पर पढ़ाई हो रही है. इससे एक तरह की असमानता हम
लोगों ने ही पैदा कर दी है. समाज का एक विशेष आर्थिक पहुँच वाला व्यक्ति ही अपने
बच्चों को यह शिक्षा दे पा रहा है और बाकी के लिए सरकारी पाठशालाएं हैं’’[3].
देश की सामाजिक बनावट व आर्थिक
श्रेणीबद्धता 'सभी
के लिए एक जैसी शिक्षा' के
सिद्धांत के सामने हमेशा यक्षप्रश्न रही है और शिक्षा हमेशा स्तरीय खांचों में
बंटी रही है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
शिक्षा के मामले में दलित बालिकाओं की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं आया है. अनुसूचित जाति एवं जनजाति की बालिकाएं शिक्षा के
मामले में अपने वर्ग के बालकों एवं सामान्य वर्ग की बालिकाओं से बहुत पीछे हैं. शिक्षा में इस बात का महत्व है कि बालिकाओं का
कितना अनुपात पढ़ाई पूरी किए बगैर स्कूल छोड़कर घर बैठ जाता है. शिक्षा के सभी स्तरों पर दलित बालिकाओं की ड्रॉप
आउट दर सामान्य जनसंख्या के अनुपात में बहुत ज्यादा है. सामान्य जनसंख्या के सापेक्ष दलित बालिकाओं का
ड्रॉप आउट अंतर बहुत ज्यादा है. उच्च
शिक्षा में भी दलित वर्ग की बालिकाओं का अनुपात सामान्य वर्ग की बालिकाओं की तुलना
में बहुत पीछे है.
वह शिक्षा
जो कभी उच्च वर्गों तक सिमटी हुई थी, वह समाज के निचले पायदान तक पहुंची है.
जो सबसे अधिक जातिवादी है वही दूसरे को जातिवादी कह रहा है. जो जातियों का घृणित खेल
खेल रहा है वही कह रहा है कि जाति के कारण देश विभाजित हो रहा है. जो अपनी जातीय
संगठन के कारण भारतीय शासन व्यवस्था और नब्बे प्रतिशत पूंजी पर कब्ज़ा जमाये हुए है
वह दूसरों को लूट का देवता कह रहा है. साहित्य, सत्ता, सरकारी प्रतिष्ठानों में
ऐसे ही जातिवादी अपने कुलपुत्रों को अभय दान देकर कृतार्थ कर रहे हैं. जो कह रहे
हैं कि ‘’उत्तम खेती, मध्यम बान (वाणिज्य), अधम चाकरी,
भीख निदान.......बताकर वे खुद बिजनेस, नौकरियों
और दक्षिणा मांगने में जुट गए हैं उनके बारे में पता लगना चाहिए कि आखिर वे कौन
लोग हैं?
भारत के
लगभग विश्वविद्यालय जिस प्रकार की शिक्षा देते हैं अगर उसका ठीक से विश्लेषण करें
तो पता चलता है कि शिक्षा का एक वह मॉडल है जिसे मनुवादी शिक्षा व्यवस्था अर्थात
जाति-पांति और वर्ण विभाजन के अनुसार भेदभाव की शिक्षा मिलती है और दूसरी वह
व्यवस्था है जिसमें लार्ड मैकाले की पश्चिमी पद्धति का ज्ञान दिया जाता है.
विश्वविद्यालयों को बजट भी वर्णक्रम में आबंटित होता है. लाइब्रेरी में जाकर देखता
हूँ तो राजनीति, विज्ञान, समाजशास्त्र,
विधि, वाणिज्य इत्यादि की बेहतरीन किताबें पश्चिमी
लेखकों द्वारा लिखी गई हैं या भारतियों द्वारा अनूदित हैं. उनमें से कई भारतीयों
की वो किताबें भी शामिल हैं जो पश्चिमी ज्ञान विज्ञान की नक़ल मात्र हैं. अपना
ओरिजिनल शून्य बता सन्नाटा. फिर ध्यान जाता है कि भारत में जिन्हें शिक्षा का जनक
समझा जाता है उनका शिक्षा में क्या योगदान है? स्थिति
शून्य दिखाई देती है क्योंकि अधिकतर शिक्षाशास्त्री या तो मनुवाद आधारित शिक्षा के
हिमायती (यथा राधाकृष्णन, मालवीय, दयानंद,
विवेकानंद) हैं या वे लोग हैं जो मध्यममार्ग का अनुशरण करते हैं.
वैसे भी
इनमें से अधिकांश के पास शिक्षा को लेकर अपना कोई विजन नहीं है . कुछ इन्हीं में
से हैं जो मुस्लिम धार्मिक शिक्षा को विवि का अनिवार्य तत्व समझते हैं. यही कारण
है कि भारत में किसी प्रकार का स्वतंत्र ज्ञान का विकास दिखाई नहीं देता है. इसी
पद्धति पर पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे प्रोफेसरों को नियुक्त किया जाता है जो बहुत एवरेज
दर्जे के होते हैं (अच्छे लोग डॉक्टर या इंजीनियर, आईएएस
आदि) नियुक्त हो जाते हैं और जो कहीं नहीं फिट होते वे प्रोफेसर. द्रष्टव्य है अभी
भारत संसार के दो सौ विश्वविद्यालयों में अपनी जगह नहीं बना पाया है. कारण साफ़ है.
अयोग्यता. दूसरा बड़ा कारण है कि समाज के एक बड़े तबके द्वारा तीन चौथाई आबादी को
मनुवादी शिक्षा द्वारा नीच जाति का होने के कारण बहिष्कृत कर रखा है. पढ़े-लिखे लोग
भी अनपढ़ों के लिए पशुओं जैसा व्यवहार करते दिखाई देते हैं. भारत के किसी भी स्कूल
में शायद ही पढ़ाया जाता हो कि उनकी शिक्षा का आखिर क्या उद्देश्य है?
विश्वविद्यालयों
में सरकार की मोटी सेलरी पाने वाले प्रोफेसर अपने भाई-भतीजों और पत्नियों को अपने
या किसी दूसरे संस्थान में लगवाने का सूत्र ढूँढ़ते दिखाई देते हैं. अपने जीवन काल
में विद्यार्थियों की एक ऐसी फौज वे तैयार कर लेते हैं जो उन्हें बोर्ड का सदस्य
बना दे, नियुक्ति कमेटियों में बिठा दे या अधिक हुआ तो कहीं का वीसी बना दे
ताकि वे जीवन की बची-खुची कसर पांच साल में पूरी कर सकें. अधिकतर विवि और
महाविद्यालयों के शिक्षक ऐसे हैं जिनकी खाल मुफ्त की सेलरी से मोटी हो गई है.
सर्टिफिकेट जारी करने के अलावा विवि जातिवाद, ब्राह्मणवाद
और क्षेत्रवाद के गढ़ के और कुछ भी नहीं रह गए हैं. कुछ प्रोफेसरों को देखकर लगता
है कि उनमें चपरासी की भी योग्यता नहीं है पर ‘गुरूजी’
की कृपा से खुला सांड बने हुए हैं. कई तो ऐसे मरियल हैं जिनको देखकर
आपको खुद ब खुद हंसी आ जायेगी. कोई इसपर बोलता नहीं है. कौन बोलेगा? जो
बोलेगा उसका अहित निश्चय है.
अभी कुछ
दिनों पहले ही एक प्रोफेसर से (जो जन्मना सवर्ण है) आरक्षण के मुद्दे पर बात हो
रही थी. उनका मानना था कि रिजर्वेशन से देश का बहुत नुक्सान हो रहा है. उनका तर्क
था कि अभी आईआईटी के सात निदेशकों ने मोदी सरकार को लिखकर दिया है कि इन संस्थाओं
में आरक्षण नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे उनकी गुणवत्ता घट रही है. बात साफ़ है
इन्हें ही आधुनिक मनु कहा जा सकता है. द्रोणाचार्य और शुक्राचार्य यही हैं. इनमें
से एक भी दलित, पिछड़े, आदिवासी समुदाय
का नहीं होगा यह मेरा दावा है. इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि देश के 789
विश्वविद्यालयों में पंद्रह भी वंचित समुदायों के लोग प्रशासक नहीं है. वहां किसी
प्रकार का आरक्षण भी नहीं है जिसमें एक कुलपति एवरेज 200 लोगों को अपने जीवन काल
में नियुक्त कर लेता है. विवि की नियुक्तियों का जाति क्रम से अध्ययन हो तो इन
माननीयों की असलियत सामने आ जाए पर करे कौन भाई ? चोर,
सिपाही, जज जब एक ही समुदाय हो तो भी न्याय को काली
पट्टी बांधनी ही पड़ेगी. नियुक्त प्रोफेसर जो पाठ्यक्रम बनाते और पढ़ाते हैं उसपर और
पाठ्यपुस्तक की राजनीति पर स्वतंत्र लिखा जाना अपेक्षित होगा. अब सोचिये जिन
प्रोफेसरों को लगता है कि आरक्षण से देश का नुक्सान हो रहा है वे अपने वंशजों में
आखिर यही जहर नहीं घोलते होंगे तो क्या करते होंगे? तुर्रा
यह कि उन्हीं के नब्बे प्रतिशत भाई-भतीजे प्रोफेसर हैं. उन्हें संविधान का भी मान
नहीं. उन्हें आरक्षण की अवधारणा तक पता नहीं. वे आरक्षण को मनरेगा समझकर आर्थिक
सशक्तिकरण का टूल मानते हैं. भाई आरक्षण मनरेगा नहीं प्रतिनिधित्व का मामला है.
बहुसंख्यक
जागरूक हो रहे हैं. जो नहीं मिलेगा उसे छीनकर ले लेंगे और इसी रास्ते साम्यवाद आएग
वही इस शिक्षा व्यवस्था और मनुवादी गढ़ को भी तोड़ेंगे क्योंकि जो पाठ्यक्रम उन्हें
पढ़ाया जा रहा है वह झूठ से भरा हुआ और बहुत अधूरा है. जहाँ आंबेडकर, लोहिया,
ज्योतिबा, पेरियार को पढ़ाया जाना चाहिए वहां मनु महराज के
वेद पुराण पढाये जा रहे हैं. अच्छे दिन तब आयेंगे जब भारत के हर बुक स्टाल पर
लेनिन मार्क्स के साथ आंबेडकर, लोहिया, ज्योतिबा,
पेरियार की किताबें ढूँढनी नहीं पड़ेंगी. शिक्षा सबको सुलभ होगी और
सभी की पहुँच में होगी.
ये विष विद्यालय
हैं या विश्वविद्यालय :
भारतीय
विश्वविद्यालय ब्राह्मणवाद के सबसे बड़े अड्डे हैं. विभाग ही क्यों भारत के लगभग
विश्वविद्यालय ‘द्रोणाचार्यों’ और ‘परसुरामों’ से भरे हुए हैं
जो ये नहीं चाहते कि शिक्षा गैर ब्राह्मणों को मिले. शिक्षा का सारा माडल ही
द्रोणाचार्यो के हाथ की मैल है. जिस राजनीति के तहत कुलपतियों की नियुक्ति होती है
और ‘सीधा-सीधा’ एजेंडे पर काम
करने वाला ‘दास’ नियुक्त होता है
वह किसी के सामने तनकर कैसे खड़ा हो सकता है. उसी की कृपा पर जीने वाले कृपा पात्र
प्राध्यापक कैसे आवाज उठाएंगे? उनका
मुख्य उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता नहीं अपितु ‘नियुक्ति’ ‘निर्माण’ ‘कमीशन’ और ‘कमेटी’ पर होता है.
शिक्षा तो भगवान भरोसे ही रहती है. एक संगोष्ठी में शिक्षक साथी बता रहे थे कि ‘विकास’ के नाम पर आयी
सरकार कैसे शिक्षा की घोर विरोधी है. ग्यारहवीं पञ्चवर्षीय योजना के सापेक्ष इस
सरकार ने बारहवीं पञ्चवर्षीय योजना में ग्यारह हजार करोड़ रूपये की कटौती की है ऊपर
से कई केन्द्रीय संस्थान और लाद दिए हैं.
तुर्रा यह कि जिस देश में अंग्रेजों के आने
के पहले विश्वविद्यालय जैसी कोई चिड़िया नहीं थी वे आज कह रहे हैं कि नालंदा और
तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय उनके यहाँ थे. भाई वे विश्वविद्यालय नहीं थे, वे गुरुकुल थे
जिनमें कुछ ख़ास जातियों के दो प्रतिशत लोगों को पढने का अधिकार था. मैकाले को गाली
देने वाले इन विश्वविद्यालयों के ज्ञानी ‘प्रोफ़ेसर’ जिन्होंने
मैकाले की ‘मिनट्स
आन एजुकेशन’ का
मुंह तक नहीं देखा होता वे शिक्षा के क्षेत्र में मोटी सेलरी भोगकर रिटायर हो जाते
हैं. उन्हें शिक्षा या शिक्षा से जुड़े अवदानों से क्या लेना देना. मैकाले की आत्मा
उन मूर्खों पर कितनी हँसती होगी!! तुर्रा यह भी कि यही प्रोफेसर उन दीनहीन गोतियों
को यह सिखाने में सफल होते हैं कि मैकाले संसार का सबसे बड़ा दुश्मन था. भारत सोने
की चिड़िया थी जिसे अंग्रेज उठाकर ले गए. क्यों ले गए भाई? इसलिए क्योंकि
भारतीयों के पास चिड़िया को रखने का पिंजरा नहीं था. ब्राह्मणवादी परंपरा के गुलाम
वे शिक्षक कभी शर्म के कारण भी अपने बच्चों को यह नहीं बताते कि बाबू !! अंग्रेजों
ने हमसे बहुत पहले विश्वविद्यालय का कांसेप्ट इजाद कर लिया था. सोलहवीं सदी में
उनके पास कई ऐसे विश्वविद्यालय थे जिनके बराबर हमारे यहाँ स्कूल भी नहीं थे पर वे
अपनी संततियों को कथा-कहानी में महान घोषित करके ही मानते हैं. यहीं झूठ
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंटता चला जाता है.
इन दिनों बड़ी इच्छा हो रही है कि देश के
पांच-दस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों का सांख्यकीय अध्ययन
किया जाय. इसमें भी जाति गणना हो. इससे पाठ्यपुस्तक की राजनीति भी समझ में आएगी और
कूड़ा केन्द्रों का भी पता चलेगा. जो देश अपने लोगों को जाहिल और गंवार बनाये रखने
की साजिस में शामिल हो उसकी जनता को ‘राष्ट्रवाद’ तोते
की तरह रटाने पर थोड़े ही आयेगा. ये विश्वविद्यालय उन्हीं पांच प्रतिशत लोगों के
हितैषी हैं जिनका इस पर सर्वाधिकार है. क्या इस देश में दलितों और आदिवासियों की
शिक्षा विकास का कोई माडल है? है
तो क्या इसे कोई विश्वविद्यालय लागू भी करता है? मुझे सन्देह है...लगता नहीं ये विश्वविद्यालय हैं.......ये तो
सर्टिफिकेट बांटने का केंद्र और सरकार की एजेंसी बनकर रहे गए हैं.
हिंदी को आलोचकों ने लोकल से लेकर ग्लोबल बनाया
बनाया, आधुनिकता आई, फिर हिंदी उत्तराधुनिक भी हो गई. किसी ने यह पड़ताल नहीं की कि
आखिर भारतीय समाज की वास्तविकता क्या है? क्या वह वास्तव में खुद को मध्यकाल से
कभी अलग कर पाया? क्या वह हजारो सालों से दस प्रतिशत द्वारा देखी जाने वाली
वास्तविकता है या उसका स्वरूप कुछ भिन्न भी है? अगर हम समाज के सच्चे सेवकों के नाम ढूढने चलें
तो उनकी संख्या अँगुलियों पर गिनी जा सकती है. हिंदी साहित्य पर गांधी का बहुत
प्रभाव है. वहां से आगे चले तो उसकी प्रेरणा भूमि बंगाल तक जाती है. पर हिंदी
साहित्य की विडंबना देखिये कि अपने ज्ञान और मेधा का लोहा मनवाने वाले डॉ. आंबेडकर,
उनके प्रेरणा पुरुष ज्योतिबा और क्रांति ज्योति सावित्रीबाई का कोई प्रभाव हिंदी
आलोचक नहीं देख पाते तो उसका क्या कारण हो सकता है. यही बात जब भारत में शिक्षा पर
होती है तो बहुत सारे शिक्षा विदों का नाम लिया जाता है पर शिक्षा और समाज के लिए
जान लगा देने वाले सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले का जिक्र मुख्यधारा के लोग
नहीं करते हैं तो इसका क्या कारण है.
कहते हैं
किसी को गुलाम बनाना हो तो उसे सांस्कृतिक रूप से गुलाम बना दीजिये, उसके अतीत को इतना बिगाड़ दीजिये की वो कभी अपनी जड़े
न खोज पाये. देर ही सही इन पर से पर्दा उठने का कार्य प्रारम्भ
हो गया है. भारत की सामासिक संस्कृति की बुनावट को रेखांकित करते हुए उच्च वर्णस्थ
रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में भारतीय संस्कृति को
रेखांकित करते हुए लिखते है कि – भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुई हैं
और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है. पहली क्रांति तो
तब हुई जब आर्य भारतवर्ष में आये अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येत्तर जातियों से
संपर्क हुआ. दूसरी क्रांति तब हुई जब महावीर और गौतमबुद्ध ने इस स्थापित धर्म या
संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्ताधारा को खींचकर वे अपनी
मनोवांछित दिशा की ओर ले गए.
इस
क्रांति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, किन्तु अंत में, इसी क्रांति के
सरोवर में शैवाल भी उत्पन्न हुए और भारतीय धर्म और संस्कृति में जो गंदलापन आया,
वह काफी दूर तक इन्हीं शैवालों का परिणाम था. तीसरी क्रांति उस समय हुई जब इस्लाम
विजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और इस देश में हिंदुत्व के साथ उसका
संपर्क हुआ. चौथी क्रांति हमारे समय में हुई जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ.[4] इसे
वे चार सोपान कहते हैं. अब मान्य दिनकर जी से पूछा जाना चाहिए कि क्या भारत सिर्फ
युद्धों या बर्बरों की संस्कृति को मानता है. दिनकर जिस संस्कृति कह रहे हैं वह
किन लोगों की संस्कृति है? क्या यह आदिवासियों, मूलनिवासियों, दलितों, पिछड़ों की
संस्कृति है? क्या इसमें कुछ हिस्सा दक्षिण, उत्तर-पूर्व के लोगों का भी है? और
सबसे बड़ी बात यह कि आखिर इस देश में शिक्षा को लेकर कोई क्रांति क्यों नहीं होती?
*सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
गया
बिहार – 823001
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