रविवार, 13 मई 2018

आर डी आनंद की अप्रकाशित आत्मकथा का पहला भाग : क्या लिखूँ क्या छोड़ दूँ

आर डी आनंद  : संक्षिप्त परिचय

जन्मतिथि:05 जनवरी 1965
माता:श्रीमती धर्मा रानी 
पिता:श्री राम आसरे
बेटे-बेटियाँप्रशांत आनंदश्वेता आनंदसाक्षी आनंदसिद्धांत आनंद
ग्राम:बुझावकपुरपोस्ट:धिरौली बाबूजिला:बस्ती (.प्र.)
शिक्षा:स्नातक
सम्प्रति:उच्च श्रेणी सहायकभारतीय जीवन बीमा निगमफैज़ाबाद-224001
प्रकाशित कृतियाँ:
1) निष्क्रियता के विरुद्ध (काव्य-संग्रह), 2) दलित चिंतन और कम्युनिज्म, 3) जातिप्रथा:उत्पत्ति और उन्मूलन, 4) मान्यवर कांशीराम:एक संक्षिप्त अध्यन, 5) आम्बेडकर विचारधारा और मार्क्सवाद, 6) दलित साहित्य और मार्क्सवाद, 7) दलित प्रश्न और मार्क्सवाद, 8) बॉसआप किधर जा रहे हैं, 9) प्रतिक्रिया का यथार्थ (आलोचना), 10) दुनिया देश और दलित, 11) वैश्वीकरण के दौर में, 12) आम्बेडकर के बाद दलित राजनीति, 13) अन्ना आंदोलन और हम, 14) प्रेमांजलि (गीत-संग्रह), 15) फूल जरूर खिलेंगे (काव्य-संग्रह), 16) निर्माण की भूमिका (काव्य-संग्रह), 17) विद्रूप अँधेरा (काव्य-संग्रह), 18) अँधेरे की शिनाख़्त (काव्य-संग्रह), 19) अँधेरे में जुगनू (काव्य-संग्रह), 20) अँधेरे का नायक (काव्य-संग्रह), 21) स्याह रात का सूरज (काव्य-संग्रह), 22) संस्कृतियों का आत्मबोध (काव्य-संग्रह), 23भारतीय संविधान और डा.आम्बेडकर, 24सहारनपुर काण्ड और भीम आर्मी, 25क्या आर्य भारतीय हैं, 26ये राह पुरखतर है (ग़ज़ल-संग्रह), 27) धर्म के भाव ऊँचे हैं, (कविता-संग्रह), 28) कविता और उसका समय (आलोचना)
सम्पर्क:L-1316, आवास विकास कॉलोनीबेनीगंजफैज़ाबाद-224001.
मो.9451203713
मो.8887749686

     मेरे पापा श्री आर डी आनंद जी बहुत ही गरीबी में पले। वे कभी-कभी अपनी कहानी हम भाई-बहनों को सुनाते हैं। लेकिन, गरीबी की कहानी सुनाते समय वे ऐसा कहते हुए नहीं प्रतीत होते हैं जैसे कि हम उनकी तरह गरीबी की जिंदगी जिए अथवा अहसास करें। उनका दृढ मत है कि मनुष्य को विकासवादी होना चाहिए। वे पाँच तक अपने गाँव के बगल धिरौली बाबू में पढ़े। अति गरीबी के कारण पापा की बड़ी बुआ श्रीमती राम प्यारी और फूफा श्री राम अचल ग्राम छपिया मालिक, पोस्ट सूदीपुर, जिला बस्ती ने कक्षा छ में राष्ट्रीय इण्टर कॉलेज, सूदीपुर, बस्ती में एडमिशन करवाया तथा इण्टर तक की शिक्षा दिलवाई। उसी दैरान 13 मई 1981 को लक्ष्मणपुर-बस्ती में श्री बुधिराम की सुपुत्री(मेरी मम्मी)से विवाह किया।
    
इण्टर के बाद बीए करवाने के लिए लखनऊ छोटी बुआ श्रीमती प्राणपति और फूफा श्री संतराम का सहयोग लेकर जय नारायण डिग्री कॉलेज, लखनऊ में एडमीशन दिलवाया। कुछ समय उपरांत, छोटे बुआ-फूफा ने पूरा खर्चा उठाना शुरू कर दिया।
    01
सितम्बर 1990 को मेरे पाप ने भारतीय जीवन बीमा निगम में सहायक पद पर नौकरी ज्वाइन की।
    
पापा बताते हैं कि वे 1984-85 से कविताएँ लिखना शुरू किए। पापा, कभी भी जातिवादी नहीं रहे। हाँ, उनकी कविताओं में व लेखों में दलितों के प्रति सहानुभूति जरूर दिखती है। वे जातिप्रथा उन्मूलन की बात करते हैं किन्तु बसपा जैसे जाति ध्रुवीकरण का विरोध करते हैं। उनका मानना है कि दलितों के ब्राह्मणवाद-ब्राह्मणवाद चिल्लाने और ब्राह्मणों व सवर्णों का विरोध करने से प्रतिक्रिया स्वरूप सवर्ण जातियों का दलितों के प्रति रुख वैमस्यपूर्ण होता चला गया तथा सवर्ण जातियों ने अन्य ओबीसी जातियों को अपने पक्ष में ध्रुवीकरण किया। पापा कहते हैं कि दलित जातियों को ब्राह्मणवाद शव्द की जगह जातिवाद शब्द का प्रयोग करते हुए हर जातियों के गरीबों को पक्ष में लेते हुए यह समझाना चाहिए कि व्यक्ति की जाति और धर्म के सहारे गरीबों का उनकी जातियों के धनी और बाहुबली नेता उनका हर मायने में शोषण करते हैं।
    
पापा डा.आम्बेडकर के जातिप्रथा उन्मूलन और राजकीय समाजवाद को दलितों की लड़ाई का बेहतर लक्ष्य मानते हैं। वे यह भी कहते हैं कि वर्ग-संघर्ष की लड़ाई में जातिवाद बहुत बड़ा रोड़ा है। भारत के कम्युनिस्ट सांस्कृतिक लड़ाई में खुद को समर्थ नहीं बना पाए हैं। भारत के कम्युनिस्ट अधिकतर सवर्ण व ब्राह्मण हैं। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टियों पर कब्ज़ा कर रखा है, किन्तु सर्वहारा संस्कृति का न पालन करते हैं, न उसको विकसित ही कर सके हैं।
    
पापा का मानना है कि पूँजीवाद को उखाड़ फेंककर समाजवाद को स्थापित किए बिना किसी भी तरह का शोषण ख़त्म नहीं किया जा सकता है और न मनुष्य का विकास ही होगा। मनुष्य का विकास पूँजीवाद ने रोक रखा है। दुनिया के सौ लोग पूरी संपत्ति का निन्नानवे प्रतिशत अनुत्पादक निजी कब्जे में रख रखते हैं।
    
पापा की अभिरुचि लिखने-पढने-भाषण देने में अधिक है। उन्होंने लगभग अभी तक दस हजार पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें पढ़ डाली हैं। घर पर लगभग पाँच हजार पुस्तकें आलमारियों में होंगी। जब से हम सब होश संभाले हैं तीन बार पत्रिकाएं बेंची गईं। हर बार तीन कुंतल से अधिक पात्र-पत्रिकाओं को बेंचा गया है।
     

श्वेता आनंद
08.05.2018

(आर डी आनंद का परिचय उनकी बेटी श्वेता आनंद ने उपलब्ध कराया)





 क्या लिखूँ क्या छोड़ दूँ
(आत्मकथा)
आर डी आनंद


















समर्पण
परदादा श्री रामानंद
दादा श्री हरदयाल
बाबा श्री खदेरू, श्री सोमई और श्री शुकई
दादा श्री रामगरीब, बाबू श्री रामासरे, चाचा श्री रामचरण





                               महुआडाबर से बुझावकपुर

महुआडाबर 1857 तक बस्ती ज़िला के बहादुरपुर ब्लॉक में मनोरमा नदी के तट पर मौजूद एक ऐतिहासिक गाँव था। 10 जून 1857 को यहां के ग्रामीणों ने फैजाबाद से दानापुर बिहार के लिए गांव से गुज़र रहे ब्रिटिश फ़ौज के सात अफ़सरों- लेफ्टिनेंट लिण्डसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट काकल व सार्जेन्ट बुशर को जमकर मारा। ग्रामीणों की पिटाई से छ अंग्रेज़ अधिकारी तो मर गए किन्तु सार्जेन्ट बुशर जान बचाकर भाग निकला। वह सीधा अपने कैम्प पहुंचा और वरिष्ठ अधिकारीयों को स्थिति से अवगत कराया। छ अंग्रेज अधिकारी की मौत से उस वक़्त अंग्रेजी हुकूमत की चूले हिल गई. उन्हें लगा कि कहीं इसकी आग पूरे देश में न भड़क जाए। अंग्रेजों ने इसको दबाने का पूरा प्रयास किया। 20 जून, 1857 को बस्ती के डिप्टी मैजिस्ट्रेट विलियम्स पे.पे. ने, तब हथकरघा उद्योग का केंद्र रहे लगभग पांच हजार की आबादी वाले महुआडाबर को घुड़सवार सैनिकों से चारों तरफ से घिरवाकर आग लगवा दी थी। मकानों, मस्जिदों और हथकरघा केंद्रों को जमींदोज करवा दिया था और उस जगह पर एक बोर्ड लगवा दिया जिस पर लिखा था 'गैर चिरागी'. इसका मतलब 'इस जगह पर कभी चिराग नहीं जलेगा'। इस घटना में सैकड़ों की बलि चढ़ गई, कितनी माँओ की गोदे सूनी हो गयी, कितनो का सुहाग उजड़ गया, कितने बच्चे यतीम हो गए। उसके बाद पांच क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया था। इसमें भैरोपुर गांव के गुलाम खान, गुलजार खान पठान, नेहाल खान पठान, घीसा खान पठान व बदलू खान पठान को गिरफ्तार कर लिया। इन पांचों क्रांतिकारियों को छ फौजी ऑफिसर्स मारने व गांव को अंग्रेजों के खिलाफ भड़काने का आरोप लगाते हुए 18 फरवरी 1858 को फांसी दे दी गई। गाँव को आग में झोंकने वाले अंग्रेज़ी अफ़सर जनरल विलियम पे.पे. को इसके लिए सम्मानित किया गया. अंग्रेज़ी हुकूमत ने इतना ही नहीं किया बल्कि गाँव का अस्तित्व मिटाने के लिए देश के नक्शे, सरकारी रिपोर्ट व गजेटियर से उसका नाम ही मिटा डाला, बल्कि, अपनी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए उस स्थान से 50 किलोमीटर दूर बस्ती-गोण्डा सीमा पर गौर ब्लाक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से एक नया गाँव बसा दिया, जो अब भी आबाद है .

      मेरे परदादा रामानंद का जन्म 1865 में बभनान वाले महुआडाबर में हुआ था. महुआडाबर में ही 1890 में दादा हरदयाल का जन्म भी हुआ। उनके पिता रामानंद अपने बाल-बच्चों के साथ 50/60 वर्षों तक उस गाँव में गुजर-बसर किए और फिर मेरे दादा हरदयाल ने 1930 में अपनी 40 वर्ष की प्रौढावस्था में अपने 65 वर्ष के बूढ़े पिता रामानंद, 15, 17 और 20 वर्ष के बच्चों को लेकर अपने क्रांतिकारी गाँव "महुआडाबर" से विपरीत और विसंगति परिस्थिति के कारण थान्हा ख़ास और बुझावकपुर के लिए प्रस्थान किया। वे सबसे पहले 2-4 वर्ष तक कायस्थों के गाँव थान्हा ख़ास में रहे. उसके बाद बुझावाकपुर आ गए. इनको बुझावकपुर लाने के माध्यम के रूप में कोई कायस्थ जरूर रहा होगा क्योंकि इनका सम्बन्ध यह प्रमाणित करता है कि बुझावकपुर आने के बाद वे बगल के गाँव खिदरीपुर में एक कायस्थ के घर हरवाही करते थे। अक्सर, मैं अपनी दादी, अपने पिता और गाँव के बूढ़े बुजुर्गों से अपने खानदान और गाँव के इतिहास के बारे में पूछा करता था। मेरे सबसे नज़दीकी पट्टीदार श्री लौटन मास्टर के पिता श्री अलगू (बांठे) बाबा थे। वे श्रेष्ठतम गाँव के बुजुर्गों में से एक थे। वे बताते थे कि मेरे बाबा शुकई महुआडाबर से आए थे। छेदी भैया काफी नुक्ताचीं व्यक्ति थे। वे भी बताते थे कि मेरे बाबा महुआडाबर से आए थे। दादी को दीन-दुनिया के बारे में बहुत कुछ ज्ञात नहीं था किंतु मेरे पिता जी बताते थे कि बाबा महुआडाबर से आए थे। मेरे बड़े पिता जी मुझे बीमारी की हालात में देखने फैज़ाबाद 12 मार्च 2018 को आए थे। उनसे बातचीत के दौरान मैंने अपने खानदान के इतिहास की बहुत सी जानकारियाँ हासिल की। उन्होंने भी बताया कि बाबा महुआडाबर से आए थे। मेरे पिता जी और बड़े दादा राम गरीब, दोनों ने यह बात बताया कि श्री हरदयाल अपने तीनों बेटों खदेरू, सोमई और शुकई को लेकर सबसे पहले हर्रैया तहसील के पास थान्हा ख़ास गाँव में आए थे किंतु 2-4 वर्ष के उपरांत वे वहाँ से भी लालाओं के सवर्णीय आतंक से पीड़ित होकर प्रस्थान कर बुझावकपुर चले आए थे। मेरे बाबा शुकई (जन्म लगभग 1915) 15 वर्ष, सोमई (जन्म लगभग 1913) 17 वर्ष और खदेरू (जन्म लगभग 1910) 20 वर्ष के रहे होंगे। मेरे पिता राम आसरे का जन्म 13 जनवरी 1939 था. मेरे ज्ञात वंशजों के नाम इस प्रकार है:
श्री रामानंद (बुझावाकापुर-बस्ती)
श्री हरदयाल: (बुझावकपुर-बस्ती)
1) खदेरू, 2) सोमई, 3) शुकई
1) खदेरू: (बुझावकपुर-बस्ती)
1) फुलवा: (धौरहरा-बस्ती,घुरहू की माँ), 2) दुखना
2) सोमई-धुमरा: (बुझावकपुर-बस्ती)
1) सुखराजी (पाठकपुरवा,नेतवरी-बस्ती),
2) दुखराजी-भगदर: (बरासाएँ-बस्ती-मिट्ठू की माँ-) ह्रदयराम, रामू, श्यामू, सोभित
3) बसकाली-चौथी: (तेढ़वा-बस्ती) 
1) संचराज: (टेढ़वा-बस्ती) सुभाष, सीता, गीता, बिंदु, सूरसती, रवि, रेनू, अर्जुन
2) शांति-बुधिराम: (मझियारिया-बस्ती) कंचन, विनोद, शिवकुमार, कुसुमा, गुड़िया, मंजू, मनोज, सनोज, मनीषा
3) तिलका-सुखराम: (कलवारी-बस्ती) श्यामू, राजेश, अवधेश, किरन
4) रामफेर-सुनीता: (टेढ़वा-बस्ती) उमा, अनिल, सुनील, रीमा, विजय, रीना, मोहन
5) चंद्रावती: (रेतासी-बस्ती) फूलचंद, लालचंद

4) राम गरीब-रमपता: (टेढ़वा-बस्ती)
1) हृदयराम: (टेढ़वा-बस्ती)-कोई नहीं
2) रामधीरज-सुकना: (टेढ़वा-बस्ती) मंजू-(जीतीपुर, सिंगीनारी-बस्ती:अर्जुन, झिन्नु, मुन्नू), मोनिका, सोनिका
3) प्रभावती-बाबूराम: (पंडितपुरवा,अमारी-बस्ती): ब्रजेश-गुड़िया-पप्पू, दुर्गेश, सुमन
4) प्रकाश: (टेढ़वा-बस्ती)-कोई नहीं
5) इंद्रावती-शिव प्रसाद: (भटपुरवा-बस्ती)-कोई नहीं
6) रोहित-सुनीता: (टेढ़वा-बस्ती) रविन्दर, सेविका, गोविन्द 
7) सोनी-दीपक: (कलानी-बस्ती) अमित, खुशबू, पायल
8) राकेश कुमार-निरहा: (टेढ़वा-बस्ती) प्रेम, लाली, प्रिया, संजू, संदीप 
9) सुनीता (गीता)-बुधिराम:(पाठकपुरवा,नेतवरी-बस्ती) सूरज, प्रियंका, मीनू, सोनू, काजल

3) शुकई-विपता: (बुझावकपुर-बस्ती)
1) रामपति-राम अचल (छपिया मलिक-बस्ती) वंश कोई नहीं।
2) प्राणपति-संतराम: (नई बस्ती-लखनऊ)
1) प्रेमलता-हरिशंकर : (सुजानपुरा-लखनऊ) नेहा, आदित्य, नैंसी, रोज 
2) रविंद्र कुमार-अनीता: (नई बस्ती-लखनऊ) प्रिंस

3) राम आसरे-धर्मा रानी (बुझावकपुर-बस्ती) 
1) आर डी आनंद-शारदा आनंद: (बुझावकपुर-बस्ती) प्रशांत आनंद, श्वेता आनंद, साक्षी आनंद, सिद्धांत आनंद
2) राम सागर-गायत्री सागर: (बुझावकपुर-बस्ती) प्रभात सागर, अंकिता सागर, अवंतिका सागर, प्रवेश सागर, सर्वेश सागर, अंशिका सागर
3) पंकज आनंद-कमलेश आनंद: (बुझावकपुर-बस्ती) आनंद
4) पारसनाथ सत्यार्थी-लक्ष्मी सत्यार्थी: (बुझावकपुर-बस्ती) प्रतिकर्ष आनंद, प्रकृति आनंद
5) राकेश कुमार-अवंतिका नीलम: (बुझावकपुर-बस्ती) अक्षांश आनंद
6) संयोगिता-अवधेश कुमार: (खाजावां-टांडा) मोहित, एकता
7) स्नेहलता-दिनेश कुमार: (धर्मूपुर-बस्ती) आयुस, स्नेहा

4) रामचरण-लक्ष्मी: (बुझावकपुर-बस्ती) हेमलता, रमेश कुमार, विंध्यवासिनी, राजेश कुमार
...........................
ज्ञात कुल योग=15
...........................

                  

                बुझावकपुर के एक किमी दक्षिण धिरौली बाबू बस्ती जिले का एक एतिहासिक गांव है। यह मुख्यालय से पश्चिम में छावनी बाजार से सिर्फ 6 किलोमीटर दूर और अमोढ़ा बाजार से 4 किमी दूर घाघरा नदी के तट पर स्थित है। घिरौलीबाबू निवासी कुलवंत सिंह, हरिपाल सिंह, बलवीर सिह, रिसाल सिंह, रघुवीर सिंह, सुखवंत सिह, रामदीन सिंह रामगढ़ गांव में अंग्रेजों का मुकाबला करने की रणनीति बनाने के लिए 17 अप्रैल 1858 को बुलायी गयी बैठक में शामिल थे। इन सभी को अंग्रेज सेना ने पकड़कर छावनी थान्हा के पीपल के वृक्ष पर फासी पे लटका दिया। घिरौलीबाबू के क्रांतिकारियों ने घाघरा नदी में नौसेना का निरीक्षण करने आये अंग्रेज अफसर को पकड़ के मार दिया था किन्तु उसकी पत्नी को छोड़ दिया, जिसकी सूचना मिलते ही गोरखपुर के जिलाधिकारी ने पूरे ग्राम को जला देने और भूमि जब्त करने का ऑर्डर दे दिया। आज भी धिरौली बाबू में कुलवंत सिंह एवं रिसाल सिंह के वंशज रणजीत सिंह, कृष्ण कुमार सिंह एवं हरिपाल सिंह तथा रामदीन सिंह के वंशज रहते है।



अमोढ़ा बस्ती एवं गोरखपुर का सरयूपारी क्षेत्र प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन काल से मगध, कोशल तथा कपिलवस्तु जैसे ऐतिहासिक एवं धार्मिक नगरों, मयार्दा पुरूषोत्तम राम तथा भगवान बुद्ध के जन्म व कर्म स्थलों, महर्षि श्रृंगी, वशिष्ठ, कपिल, कनक जैसे महान सन्त गुरूओं के आश्रमों, हिमालय के ऊॅचे-नीचे वन सम्पदाओं को समेटे हुए, बंजर, चारागाह , नदी-नालों, झीलों-तालाबों की विशिष्टता से युक्त एक आसामान्य स्थल रहा है। इसके अलावा यहाँ एक प्रसिद्ध रामरेखा मंदिर है जो राम और सीता के सबसे प्राचीन हिंदू मंदिर में से एक है। एक किमदंती के अनुसार राम ने अपने 14 वर्षों के बनवास के दौरान यहाँ विश्राम किया था। अमोढ़ा के मूल निवासी कायस्थ थे। वे सत्तारूढ वंश के रूप में 14वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से ही काबिज हुए थे। इस वंश के संस्थापक राय जगत सिंह एक युद्धप्रिय लेखक थे। कहा जाता है कि वह पूर्व के दिनों में अवध के गवर्नर के यहां राज्यसेवा में थे। इनका मुख्यालय सुल्तानपुर हुआ करता था। एक दूसरी अनुश्रूति के अनुसार, वह गोण्डा के डोमरिया डीह के डोम राजा के परवर्ती थे। वे ब्राहमण पुत्री से शादी करने के कारण अक्षम्य अपराध के क्षमा याचक भी रहे। 1376 मे राय जगत सिंह ने डोमराजा को हराया था। उन्हें अमोढ़ा का राज पारितोषिक रूप में मिला था। कल्हण परिवार के अधिष्ठाता तथा सुल्तानपुर के अमेठी के बंधलगोती के आने तक उनके पास अमोढ़ा राज का स्वामित्व बना रहा. अमोढा जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसका पुराना नाम अमोढ़ा है। यह पुराने दिनों में राजा जालिम सिंह का एक प्रांत था। अमोढ़ा कस्बे का स्वतंत्रता संग्राम से पुराना रिश्ता है। यहां के अंतिम राजा जंगबहादुर सिंह की मृत्यु 1855 में हुई थी। राजा जालिम सिंह ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए उन्हें नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया. अमोढ़ा के राजपुरोहित परिवार के वंशज पंडित बंशीधर शास्त्री ने काफी खोजबीन कर अमोढ़ा के सूर्यवंशी राजाओ की 27 पीढ़ी का व्यौरा खोजा है जिसके मुताबिक इसकी 24 वी पीढ़ी में जालिम सिंह सबसे प्रतापी राजा थे। उन्होने 1732 -1786 तक राज किया । इसी वंश की छव्वीसवीं पीढ़ी में राजा जंगबहादुर सिंह ने 1852 तक राज किया । अमोढ़ा राज के खंडहर आज भी अपनी जगह खड़े हैं और रानी अमोढ़ा की बलिदानी गाथा का बयान करते हैं। वर्ष 915 के पहले अमोढ़ा में भरों का राज था, जिसे पराजित कर सूर्यवंशी राजा कंसनारायण सिंह ने शासन किया। उनके पांच पुत्र थे जिसमें सबसे बड़े कुवर सिंह ने अपना किला पखेरवा में स्थापित किया । आज भी यह उनके किले के नाम से ही मशहूर है। अमोढ़ा के किले और राजमहल के नीचे से पखेरवा तक चार किलोमीटर सुरंग होने की बात भी कही जाती है। अमोढ़ा के इर्द गिर्द के 42 गांव अपने आगे कुवर लगाते है। आज भी राजा जालिम सिंह के वंशज चौदह कोस की दूरी में फैले हुए हैं।


                   छावनी बाजार बस्ती-अयोध्या राजमार्ग पर बस्ती से लगभग 35 किमी.की दूरी पर स्थित है। उत्तर मुगल काल में यह अमोढ़ा राज्य के अन्तर्गत आता था, जो बहुत समय तक अवध के नबाबों द्वारा नियंत्रित होता था। गोरखपुर जब नार्थ वेस्टर्न प्राविंसके अधीन अंग्रेजों को मिला तब भी यह क्षेत्र ब्रिटिश सरकार का भाग नहीं रहा। अमोढ़ा के राजा जालिम सिंह और उनकी पत्नी तलाश कुंवरि अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त किये थे। अमोढ़ा राज्य से लोहा लेने के लिए अंग्रेजों ने बस्ती अयोध्या राजमार्ग पर छावनी में सेना का एक शिविर स्थापित किया था। पड़ोसी गांव खेमरिया में सेना की बैरकें व शिविर बनाये गये थे। ब्रिटिश सरकार की फौजों को लगाने के कारण ही इस स्थान को छावनी के नाम से ही जाना जाने लगा। चूँकि यह अवध तथा ब्रिटिश सरकार की सीमा पर था इसलिए इस पर अंग्रेजों की विशेष निगाहें लगी रहती थी। अनेक अंग्रेजों की कब्रें व स्मारक भी सरकार ने यहां बनवाये हैं। उ. प्र. लोक निर्माण विभाग ने लेफ्टिनेन्ट एच. बी. ट्राय का मकबरा, उसके नाम की पट्टिका के साथ बनवा रखा है। यहां लेफिनेंट कर्नल हगवड फोर्ट का स्मारक भी बना हुआ बताया जाता है। इसी के पास शहीद स्मारक समिति बस्ती के संयोजक श्री सत्यदेव ओझा के प्रयास से धर्मराज सिंह के स्मारक का निमार्ण कराया गया है। हगवड फोर्ट की हत्या से पूरे इलाके में अंग्रेजों का आक्रोश बढ गया था। इसी समय बेलवा के इलाके से कई बागी आ धमके थे। इन लोगों ने जोरदार मोरचा खोल रखा था। इससे कर्नल राक्राफट बहुत भयभीत हो गया था कि आगे बढ़ने का साहस ही छोड़ दिया। यह अप्रैल 1857 के अंत में कप्तानगंज वासप लौट आया था। यहां अन्य अंग्रेज सौनिकों के मकबरे विना नाम के बनवाये गये हैं। छावनी बाजार के पीपल के पेड़ पर अंग्रेजों के भय से भारतीय स्वतंत्रता के आन्दोलनकारियों की लाशें कई दिनों तक  लटकती रहीं। इस वृक्ष को स्मारक स्वरूप सीमेंट के एक चबूतरे से घेर दिया गया है। यहां संगमरमर के दो शिलापट्टों पर शहीदों के नामों को लिखवाया गया हैं । एक पट्ट पर 9 नामों से युक्त है जिसे बभनगांवां, अमोढ़ा के श्रीराम सिंह ने तथा दूसरे पर क्र. सं. 10 से 19 तक के शहीदों के नाम मुरादीपुर, बस्ती के हरिभान सिंह ने उत्कीर्ण कराया है। उत्कीर्णकर्तोओं ने अपने नाम भी उल्लखित कराये हैं। यहां के कुछ बागियों का पलायन भी हुआ था। ग्राम रिघौरा के विन्ध्यवासिनी प्रसाद सिंह, सिकन्दर पुर के गुरूप्रसाद लाल, भुवनेश्वरी प्रसाद और लक्ष्मी शंकर के खानदान की सम्पत्ति बगावत के आरोप में जप्त हो गयी थी । यहां बलिदानी परिवार की संख्या हजारों में है, परन्तु इनका कोई क्रमिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। संज्ञायित सूची इस प्रकार है- 1.कैप्टन अवधूत सिंह, बभनगांवा ,अमोढ़ा, बस्ती, 2. श्री ईश्वरी शुक्ल, बेलाड़े, बस्ती, 3. श्री कुलवन्त सिंह, धिरौली बाबू ,बस्ती, 4. श्री सुग्रीम सिंह, नद्दूपुर ( गुन्डा कुंवर ), 5. श्री सन्त बक्श सिंह, चनोखा, डुमरियागंज, बस्ती, 6. श्री जयसिंह, अटवा,बस्ती, 7. श्री धर्मराल सिंह, राम गढ़, 8. सरदार मुहेम सिंह, जौनपुर,9. सूबेदार भवन सिंह, गोण्डा, 10. श्री हरिपाल सिंह, धिरौली बाबू, बस्ती, 11. श्री बनबीर सिंह, धिरौली बाबू ,बस्ती, 12. श्री रिसाल सिंह, धिरौली बाबू ,बस्ती, 13. श्री रघुबीर ,धिरौली बाबू ,बस्ती, 14. श्री सुखवन्त सिंह, धिरौली बाबू, बस्ती, 15. श्री राम दीन सिंह, धिरौली बाबू ,बस्ती, 16. श्री जय नरायन सिंह, भानपुर बाबू ,डुमरिया गंज, बस्ती, 17. श्री राम जियावन सिंह, करनपुर, पैकोलिया, बस्ती, 18. श्री लखपत राय, दौलतपुर, बस्ती,19. श्री मुसर्रफ खां, जौनपुर.

बुझावाकापुर, धिरौली बाबू, अमोढा और छावनी बस्ती जिले में पड़ता है. पुराने ज़माने में बस्ती का मूल नाम  'वैशिश्ठी' था। वैशिश्ठी नाम वसिष्ठ ऋषि के नाम से बना है। वर्तमान जिला बहुत पहले निर्जन और वन से ढका था लेकिन धीरे-धीरे क्षेत्र बसने योग्य बन गया था। वर्तमान नाम बस्ती राजा कल्हण द्वारा चयनित किया गया था, यह घटना जो शायद 16वीं सदी में हुई थी। 1801 में बस्ती तहसील मुख्यालय बन गया था और 1865 में यह नव स्थापित जिले के मुख्यालय के रूप में चुना गया था। छठी शताब्दी में गुप्त शासन की गिरावट के साथ बस्ती भी धीरे-धीरे उजाड़ हो गया, इस समय एक नया राजवंश मौखरी हुआ, जिसकी राजधानी कन्नौज थी, जो उत्तरी भारत के राजनैतिक नक्शे पर एक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण किया और इसी राज्य में मौजूद जिला बस्ती भी शामिल था।
सन 1225 में इल्तुतमिश का बड़ा बेटा, नासिर-उद-दीन महमूद, अवध के गवर्नर बन गया और इसने भार लोगो के सभी प्रतिरोधो को पूरी तरह कुचल डाला। 1323 में, गयासुद्दीन तुगलक बंगाल जाने के लिए बहराइच और गोंडा के रास्ते गया। शायद, वह जिला बस्ती के जंगल के खतरों से बचना चाहता था और वह आगे अयोध्या से नदी के रास्ते गया। 1479 में, बस्ती और आसपास के जिले, जौनपुर राज्य के शासक ख्वाजा जहान के उत्तराधिकरियो के नियंत्रण में था। बहलूल खान लोधी अपने भतीजे काला पहाड़ को इस क्षेत्र का शासन दे दिया था, जिसका मुख्यालय बहराइच को बनाया था, जिसमें बस्ती सहित आसपास के क्षेत्र भी थे। इस समय के आसपास, महात्मा कबीर प्रसिद्ध कवि और दार्शनिक इस जिले में मगहर में रहते थे।


प्रमुख राजपूत कुलों (जैसे -रायबरेली के बैशवाड़ा से बैस राजपूत) के आगमन से पहले, इन जिलों में स्थानीय हिंदू और हिंदू राजा थे और कहा जाता है कि इन्हीं शासकों द्वारा भार, थारू, दोमे और दोमेकातर जैसे आदिवासी जनजातियों और उनके सामान्य परम्पराओ को खत्म कर दिया गया, ये सब कम से कम प्राचीन राज्यों के पतन के बाद और बौद्ध धर्म के आने के बाद हुआ। इन हिंदुओं में भूमिहार ब्राह्मण, सर्वरिया ब्राह्मण और विसेन राजपूत शामिल थे। पश्चिम से राजपूतों के आगमन से पहले इस जिले में हिंदू समाज का राज्य था। 13वीं सदी के मध्य में श्रीनेत्र पहला नवागंतुक था जो इस क्षेत्र में आकर स्थापित हुआ, जिनका प्रमुख चंद्रसेन पूर्वी बस्ती से दोम्कातर को निष्कासित किया था। रायबरेली प्रान्त डौंडियाखेड़ा के बैशवाड़ा से आकर कुछ बैस राजपूत पूरे हेमराज गाँव में बस गए । गोंडा प्रांत के कल्हण राजपूत स्वयं परगना बस्ती में स्थापित हुए थे। कल्हण प्रांत के दक्षिण में नगर प्रांत में गौतम राजा स्थापित थे। महुली में महसुइया नाम का कबीला था जो महसो के राजपूत थे। अन्य विशेष उल्लेख राजपूत कबीले में चौहान का था। यह कहा जाता है कि चित्तौङ से तीन प्रमुख मुकुंद भागे थे जिनका जिला बस्ती की अविभाजित हिस्से पर (अब यह जिला सिद्धार्थ नगर में है) शासन था। 14वीं सदी की अंतिम तिमाही तक बस्ती जिले का एक भाग अमोढ़ा पर कायस्थ वंश का शासन था।


अकबर और उनके उत्तराधिकारी के शासनकाल के दौरान जिला बस्ती, अवध सुबे के गोरखपुर सरकार का एक हिस्सा बना हुआ था। जौनपुर के गवर्नर के शासनकाल के शुरू के दिनों में यह जिला विद्रोही अफगानिस्तान के नेताओं जैसे अली कुली खान, खान जमान का शरणस्थली था। 1680 में मुगल काल के दौरान औरंग़ज़ेब ने एक दूत (पथ के धारक) काजी खलील-उर-रहमान को राजस्व का नियमित भुगतान प्राप्त करने के लिए गोरखपुर भेजा था। खलील-उर-रहमान ने ही गोरखपुर से सटे जिलो के सरदारों को मजबूर किया था कि वे राजस्व का भुगतान करे। इस कदम का यह परिणाम हुआ कि अमोढ़ा और नगर के राजा, जिन्होंने हाल ही में सत्ता हासिल की थी, राजस्व का भुगतान को तैयार हो गये और टकराव इस तरह टल गया। इसके बाद खलील-उर-रहमान ने मगहर के लिए रवाना हुआ जहाँ उसने अपनी चौकी बनाया तथा राप्ती के तट पर बने बांसी के राजा के किले पर कब्ज़ा कर लिया। नव निर्मित जिला संत कबीर नगर का मुख्यालय खलीलाबाद शहर का नाम खलील उर रहमान से पड़ा, जिसका कब्र मगहर में बना है। उसी समय एक प्रमुख सड़क गोरखपुर से अयोध्या का निर्माण हुआ था. फरवरी 1690 में, हिम्मत खान (शाहजहाँ खान बहादुर जफर जंग कोकल्ताश का पुत्र, इलाहाबाद का सूबेदार) को अवध का सूबेदार और गोरखपुर का फौजदार बनाया गया, जिसके अधिकार में बस्ती और उसके आसपास का क्षेत्र था। 

एक महान और दूरगामी परिवर्तन तब आया जब 9 सितम्बर 1772 में सआदत खान को अवध सूबे का राज्यपाल नियुक्त किया गया जिसमे गोरखपुर का फौजदारी भी था। उसी समय बांसी और रसूलपुर पर सर्नेट राजा का, बिनायकपुर पर बुटवल के चौहान का, बस्ती पर कल्हण शासक का, अमोढ़ा पर सुर्यवंश का, नगर पर गौतम का, महुली पर सुर्यवंश का शासन था, जबकि अकेला मगहर पर नवाब का शासन था, जो मुसलमान चौकी से मजबूत बनाया गया था। नवंबर 1801 में नवाब शुजा उद दौलाह का उत्तराधिकारी सआदत अली खान ने गोरखपुर को ईस्ट इंडिया कंपनी को आत्मसमर्पण कर दिया, जिसमे मौजूद जिला बस्ती और आसपास के क्षेत्र का भी समावेश था। रोलेजे गोरखपुर का पहला कलेक्टर बना था। इस कलेक्टर ने भूमि राजस्व की वसूली के लिए कुछ कदम उठाये थे लेकिन आदेश को लागू करने के लिए मार्च 1802 में कप्तान माल्कोम मक्लोइड ने मदद के लिए सेना बढ़ा दिया था।
बस्ती के पर्यटक स्थलों में से अमोढ़ा, बाबा मोछेस्वर नाथ, छावनी बाजार, रामरेखा मन्दिर, देवकली का हनुमान मंदिर, संत रविदास वन विहार, भादेश्वर नाथ, मखौडा, श्रंगीनारी, गणेशपुर, केवाड़ी मुस्तहकम, नगर बाजार, चंदू ताल, बराह छत्तर, अगौना, पकरी भीखी और महादेवा मंदिर आदि है।

बाबा मोछेस्वर नाथ मंदिर बस्ती से 25 किलोमीटर दूरी पर स्थित लालगंज थाना क्षेत्र के जगन्नाथपुर ग्राम सभा में पड़ता है। यहां पर एक शिव मंदिर है जो राम के समय के प्रसिद्ध ऋषि महर्षि उद्दयालक के द्वारा स्थापित किया गया था और यह उनकी तपोभूमि है साथ ही यहां पर तीन नदियों (मनवर,कुआनो तथा सरस्वती) का संगम होने के कारण हर वर्ष मार्च या अप्रैल के महीने में पाँच दिवसीय विशाल मेले का आयोजन किया जाता है और भारी संख्या में लोग इसमें भाग लेते हैं। इस मेले का सबसे प्रसिद्ध चीज देशी केला है और यहां हर वर्ष लाखों रुपये की केलों का कारोबार होता है।
संत रविदास वन विहार (राष्ट्रीय वन चेतना केन्द्र) कुआनो नदी के तट पर स्थित है। यह वन विहार जिला मुख्यालय से केवल एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित गणेशपुर गांव के मार्ग पर है। यहां पर एक आकर्षक बाल उद्यान और झील स्थित है। इस बाल उद्यान और झील की स्थापना सरकार द्वार पिकनिक स्थल के रूप में की गई है। वन विहार के दोनों तरफ से कुवाना नदी का स्पर्श इस जगह की खूबसूरती को और अधिक बढ़ा देता है। संत रविदास वन विहार स्थित झील में बोटिंग का मजा भी लिया जा सकता है। सामान्यत: अवकाश के दौरान और रविवार के दिन अन्य दिनों की तुलना में काफी भीड़ रहती है। 

भदेश्वर नाथ कुआनो नदी के तट पर, जिला मुख्यालय से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भद्रेश्‍वर नाथ भगवान शिव को समर्पित मंदिर है। माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना रावण ने की थी। प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के अवसर पर यहां मेले का आयोजन किया जाता है। काफी संख्या में लोग इस मेले में सम्मिलित होते है।
मखौडा जिला मुख्यालय के पश्चिम में लगभग 57 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान रामायण काल से ही काफी प्रसिद्ध है। राजा दशरथ ने इस जगह पर पुत्रेस्ठ यज्ञ किया था। जिससे राम के उदभव का कारण स्थल यही स्थान कहा जाता है। मखौडा कौशल महाजनपद का एक हिस्सा था।
श्रंगीनारी अयोध्या धाम से लगभग 30 किमी की दूरी पर स्थित ऋषि श्रंगी का आश्रम व तपोस्थली है।
गनेशपुर बस्ती जिला का एक छोटा सा गांव है। यह पश्चिम में मुख्यालय से सिर्फ 4 किलोमीटर दूर और कुआनो नदी के तट पर स्थित है। यह पुराने मूल के पिंडारियो के उत्पत्ति का स्थान है।
बेहिल नाथ मंदिर बनकटी विकास खंड के बस्ती शहर से 16वें किमी पर स्थित प्राचीन कालीन है। कहा जाता है कि यह बौद्ध काल का मंदिर है। अष्टकोणीय अर्घा में स्थापित शिवलिंग अपने आप में अनूठा है। इस स्थान पर प्राचीन टीले हैं जिनकी खुदाई हो तो यहां का संपन्न इतिहास के बारे में पता चलेगा।
थालेश्वरनाथ मंदिर बनकटी से तीन किलोमीटर उत्तर थाल्हापार गांव में स्थित यह मंदिर प्राचीन कालीन है। गांव से पंद्रह मीटर ऊचाई पर स्थित यह मंदिर पर्यटन विभाग की सूची में दर्ज है तथा यहां पर्यटकों के ठहरने के लिए सरकार की ओर से चार कमरे भी बनाए गए हैं।
लोढ़वा बाबा शिवमंदिर भानपुर तहसील के बडोखर बाजार में स्थित इस मंदिर पर शिवरात्रि के दिन विशाल मेला लगता है।
कर्ण मंदिर बस्ती चीनी मिल के पार्श्व में स्थित है. यह शिवमंदिर भी प्राचीनतम मंदिरों में शुमार है
समय माता का मंदिर यह मंदिर भानपुर तहसील से सोनहा मार्ग की तरफ 1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है
केवाड़ी मुस्तहकम बस्ती जिले से 29 किलोमीटर दूर रामजानकी रास्ते पर स्थित यह छोटा सा गाँव चिलमा बाज़ार के बगल में स्थित है। यह गाँव अध्यापकों की मातृभूमि कही जाती है। जिसको शुरुआत श्री रामदास चौधरी ने भटपुरवा इंटर कॉलेज की स्थापना 1963 में की और उनके इस शुभ कार्य को सफलता की उचाइयों पर श्री शिव पल्टन चौधरी ने बखूबी पहुँचाया |
नगर बाजार जिला मुख्यालय से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित नगर एक छोटा सा गांव है। नगर गांव की पश्चिम दिशा में विशाल झील चंदू तल स्थित है। यह मछली पकड़ने और निशानेबाज़ी करने के लिए प्रसिद्ध है। इसके अलावा यह गांव गौतम बुद्ध के जन्म स्थल के रूप में भी जाना जाता है। चौदहवीं शताब्दी में यह स्थान गौतम राजाओं का जिला मुख्यालय बन गया था। उस समय का प्राचीन दुर्ग आज भी यहां देखा जा सकता है। जिला मुख्यालय से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके पूर्व में चन्दो ताल है
अगौना अगुना जिला मुख्यालय मार्ग में राम जानकी मार्ग पर बसा हुआ है। अगौना प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार श्री राम चन्द्र शुक्ल की जन्म भूमि है।
बराह छतर ज़िला मुख्यालय से पश्चिम में लगभग 15 किमी की दूरी पर कुवांना नदी के तट पर स्थित है। यह जगह मुख्य रूप से बराह मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। बराह छतर लोकप्रिय पौराणिक पुस्तकों में वियाग्रपुरी रूप में जाना जाता है। इसके अलावा बराह को भगवान शिव की नगरी के नाम से भी जाना जाता है।


चंदो ताल जिला मुख्यालय से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। माना जाता है कि प्राचीन समय में इस जगह को चन्द्र नगर के नाम से जाना जाता था। कुछ समय पश्चात् यह जगह प्राकृतिक रूप से एक झील के रूप में बदल गई और इस जगह को चंदो ताल के नाम से जाना जाने लगा। यह झील पांच किलोमीटर लम्बी और चार किलोमीटर चौड़ी है। माना जाता है कि इस झील के आस-पास की जगह से मछुवारों व कुछ अन्य लोगों को प्राचीन समय के धातु के बने आभूषण और ऐतिहासिक अवशेष प्राप्त हुए थे। इसके अलावा इस झील में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पक्षियों की अनेक प्रजातियां भी देखी जा सकती है। ये ताल नगर बाजार से पूर्व में सेमरा चींगन गांव तक पहुंचा हुआ है

पकरी भीखी गांव गर्ग जातियों का एक समूह है, जिनसे पाँच गांव का उदय हुआ - पकरी भीखी, जिनवा, बाँसापार, पचानू, आमा। पकरी भीखी का नाम भीखी बाबा के नाम का अंश है। बस्ती जिले से 15 किलोमीटर कि दूरी पर उत्तर दिशा में नेपाल बार्डर को जाने वाली सड़क पर स्थित है। एक तरफ से तालाब और दूसरी तरफ दूर तक फैले हुए खेत हैं।

महादेवा मंदिर बस्ती जिले से 20 किलोमीटर पश्चिम दिशा में कुवानो नदी के घाट पार एक विशाल बरगद के नीचे महादेव का मंदिर है। प्रति वर्ष शिवरात्रि के पावन पर्व पर विशाल मेला लगता है। इस दिन चारो तरफ से बहुत से लोग अपनी मनोकामना के साथ महादेव का दर्शन करते हैं। इस मंदिर का इतिहास बहुत ही पुराना है। किवदन्ती है कि देवरहवा बाबा का कुछ दिनों तक यहाँ धर्मस्थली रही है।



शेष अगली किश्त में जारी ................



1 टिप्पणी:

  1. डॉ. कर्मानंद आर्य जी को मैंने अवलोकनार्थ अपनी आत्मकथा भेजी थी। साथी को अस्मिता की आवाज पर यह अस्त्मकथा प्रकाशित करना उचित और अच्छा लगा, उन्होंने इसे स्थान दिया। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने इस में अपने जीवन के उतार-चढ़ाव के साथ समाज विकास के क्रम को अंकित करना अपनी नैतिक और भौतिक जिम्मेदारी समझी; इसलिए, आप सभी को पचास वर्षों के इतिहास में बदलते समीकरण, सामाजिक स्तर और राजनितिक-आर्थिक बदलाव भी परिलक्षित होंगे। दलित जीवन के दैहिक और मानसिक स्थिति का भयावह रूप तो दिखेगा ही, साथ ही यह भी दिखेगा कि दलितों ने अनेक सांस्कृतिक बदलाव के लिए चुनौतिपूर्ण शाहस किया तथा आज वह शादी-व्याह किसी ब्राह्मण से न कराकर स्वयं करता है व किसी बौद्ध भिक्षु से आयोजित करवाता है। राम-राम की जगह जय भीम उसका अभिवादन मन्त्र हो गया। इस वर्ग ने ईश्वर और देवी-देवता को यह कहते हुए नकार दिया कि सदियों-सदियों तक ईश्वर और देवी-देवता ने दलितों का कोई भला नहीं किया। इसलिए नहीं कि वह पक्षपाती है बल्कि उसका अस्तित्व सचमुच नहीं है। सरस्वती जो शिक्षा की देवी है ने क्यों दलित वर्ग को शिक्षा से महरूम रखा? इसलिए कि सरस्वती का अस्तित्व नहीं है। स्वस्वती की आड़ में भारत का ब्राह्मण अन्य सवर्णों सहित दलित कौम को मनुस्मृति जैसे ग्रथ लिखकर शिक्षा से वंचित रखा। दलित वर्ग की तरह मैंने भी महसूस किया कि शिक्षा के बिना मेरा विकास नहीं होगा। अतः, मैंने सुनिश्चित किया कि अधिक से अधिक शिक्षा ग्रहण कर मैं मुख्य धारा का व्यक्ति बनूँगा। और, सिर्फ दलित क्या, पूरे वंचित समाज को शोषण से मुक्ति आंदोलित करूंगा। भारत का मजदूर जहाँ जातियों में विभक्त है वहीं वर्गीय एकता के बिना देश में शोषण-विहीन समाज की स्थस्पना भी नहीं किया जा सकता है। इसलिए, मैंने आंबेडकरवाद के साथ मार्क्सवाद के महत्त्व को समझते हुए दलित और शोषित के समन्वय के लिए वैचारिक क्रान्ति में सहयोगी की भूमिका में कार्य निष्पादित करने लगा।
    आत्मकथा के इस अंश को प्रकाशित करने के लिए डॉ. कर्मानंद आर्य जी को बहुत-बहुत साधुबाद।

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