बिहार की सीमा से
लगते हुए उत्तरप्रदेश की सीमा लगती है. वैसे तो सांस्कृतिक रूप से उत्तर-प्रदेश और
बिहार में बहुत अंतर नहीं है पर एक ख़ास अंतर की तरफ जब मेरा ध्यान जाता है तो कई
सवाल मन के भीतर उठते चले जाते हैं. गंगा जैसी पवित्र मानी जाने वाली नदी जब बनारस
की पवित्र भूमि छोड़कर बिहार की सीमा में प्रवेश करती है तब उसका महत्व घट जाता है.
वह मोक्ष दायिनी गंगा नहीं रह जाती. तब वह एक अपवित्र नदी सी लगती है जिसे
कर्मनाशा का नाम दे दिया जाता है जो अंततः गंगासागर में जाकर मिलती है. क्या कारण
है कि गंगा बिहार में प्रवेश करते ही अपवित्र हो जाती है? क्यों यहाँ फिर मोक्ष का
कोई मेला नहीं लगता? कहीं बिहार की भूमि का असुरों (कीकटों) की भूमि का होना तो
नहीं? क्या कारण है कि उत्तर-प्रदेश में भगवान राम-कृष्ण पैदा हुए. पर बिहार में
कोई भी भगवान पैदा नहीं हुआ? यहाँ अगर हुआ कोई तो समाजसुधारक पहले भगवान बाद में
हुआ. बिहार के साथ विडंबना यही है कि उसे कला और साहित्य में भी असुर बनाकर रखा
गया. दलित लेखन में भी इसी का असर दिखाई देता है. आज लेखन का केंद्र दिल्ली है और
वहां भी दलित लेखन में कई गुट और धाराएं हैं. बिहार के गिने-चुने लेखकों को ही
राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बन पायी है पर बिहार का दलित लेखन अपनी संभावनाओं से
निराश नहीं करता है. वह हमारे बीच एक संभावना का संचार तो करता ही है.
बिहार के बारे में बीबीसी
हिंदी की एक खबर के मुताबिक बिहार में 10 करोड़ से ज़्यादा आबादी में दलितों की
संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है. “1980 के दशक तक जो बिहार में
तीन बड़े आंदोलन देखने को मिले, वह थे वामपंथी आंदोलन,
समाजवादी आंदोलन और उसके बाद नक्सल आंदोलन. तीनों
ही आंदोलन में जो मुद्दा प्रमुखता से सामने आया,
वह है सामाजिक प्रतिष्ठा की लड़ाई और जातीय अपमान
और ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ लड़ाई. वामपंथी आंदोलन में सबसे अहम भूमिका जिन वर्गों
की रही, उनमें सबसे ज़्यादा
दबे-कुचले वर्ग के लोग हैं. यही लोग खेतों और उद्योगों में मज़दूरी करते हैं,
और मेहनतकश कहलाते हैं.” उत्तर प्रदेश को जहां 1995
में मायावती के रूप में पहली दलित मुख्यमंत्री मिली,
वहीं बिहार में दलित नेता भोला पासवान शास्त्री 1968
में ही मुख्यमंत्री पद हासिल कर चुके थे. 1972
तक अलग-अलग समय पर उन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री पद
संभाला. पर सवाल वही है कि क्या सचमुच में दलितों का कोई भला कर पाया? क्या बिहार
के दलित साहित्य पर इसका कोई व्यापक प्रभाव पड़ा? या समाज के ढाँचे में दलित हाशिये
की चीज बनकर रह चुके हैं.
एक राज्य जहाँ
हजारो लोग हर साल जातीय हिंसा और घृणा के कारण क़त्ल कर दिए जाते हैं. हर साल हजारो
लड़कियां शोषण उनकी गरीबी के कारण होता है. वे वर्णीय सोच की शिकार होती हैं.
खौफनाक एसिड अटैक का वह घिनौना मंजर जो आँखों से कभी ओझल नहीं होता. हजारो लोग
अपनी मौलिक शिक्षा से वंचित कर दिए जाते हैं. आपको कुछ याद आ रहा है क्या? कितनी
बच्चियों का जीवन नष्ट किया इस मानसिक हत्या ने. क्या आपको याद है सरकारी स्कूल
में बने मिड डे मील खाकर उन्नीस बच्चे दुनिया देखे बगैर चले जाते हैं. एक बीमार
आदमी को चारा काटने वाली मशीन में डालकर सिर्फ इसलिए काट दिया जाता है क्योंकि वह
बीमारी की अवस्था में काम करने से मना करने की गुस्ताखी करता है. एक आदिवासी
नाबालिक का रिटायर्ड आईएएस शरीरिक मानसिक शोषण करता है, अखबार में खबर आती है और
फिर फलक पर से गायब हो जाती है. रणवीर सेना वाली भूमि. शोषण, दमन, अत्याचार, लूट,
खौफ की वारदातों के बीच जीने वाले एक बड़े समुदाय वाला प्रदेश जो स्वयं पर सुशासन
का दंभ भरता हुआ रणक्षेत्र बना रहता है. समाज का ढांचा घोर सामंती जहाँ स्त्रियों
को वस्तु से अधिक कभी नहीं देखा गया. उच्च वर्गों की अपेक्षा दलित महिलायें आत्म
निर्भर हैं.
इन सबके साथ वही
प्रदेश जहाँ एक दलित किसी बड़े पहाड़ को काटकर आम लोगों के लिए रास्ता बना देता है.
वही प्रदेश जहाँ अभी से कुछ दिन पहले एक चूहा खाने वाले समुदाय का व्यक्ति
मुख्यमंत्री बनाया जाता है और वह सिर्फ इसलिए विद्रोह कर देता है कि उसे कठपुतली
सरकार का हिस्सा नहीं होना है. शोषण के साथ-साथ इस प्रदेश में प्रतिरोध की एक
सशक्त धारा हमेशा मौजूद रही है. चाहे यहाँ वामपंथ का उभार हो, नक्सलबाड़ी आन्दोलन
लोग करो या मरो की स्थिति तक पहुँच जाता है. साहित्य और समाज में उक्त हत्याओं के
खिलाफ बहुत कम अभिव्यक्तियाँ प्राप्त होती हैं. बिहार के रचनकार जो साहित्य और
संवेदना की पींगे भरते हैं उन्हें भी यह विषय दिखाई नहीं देता. क्यों नहीं दिखाई
देता यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है. उससे भी बड़ा प्रश्न है कि क्या सचमुच
लेखक अपने हितों-अहितों को संज्ञान में रखकर रच रहा है? क्या उसके रचने में उसका
सॉफ्ट कार्नर तो आड़े नहीं आ रहा. बिहार का दलित लेखन काफी मुखर है.
बिहार में ज्ञात
अज्ञात सैकड़ो दलित लेखक निरंतर अपना लेखन कर रहे हैं. कईयों ने तो बहुत ही प्रभूत
मात्रा में लेखन किया है. बिहार मूल के द्विवेदी युगीन कवि हीरा डोम की ‘अछूत की
शिकायत’ कविता को कौन नहीं जानता? लोगों का मानना था कि वे पटना के रहने वाले थे.
भिखारी ठाकुर के लेखन की जमीन दलितों, वंचितों की पीड़ा से कैसी अछूती रह सकती है. सामंतों
के गढ़ में आंबेडकर भले न आये हों पर उनके विचारों को बिहार में कौन रोक सकता था? गांधी
के निरंतर आगमन ने भी यहाँ के दलित लेखन को बल प्रदान किया. बिरसा मुंडा, तिलका
मांझी, सिद्दू-कान्हू, गोची मांझी, जयप्रकाश नारायण, भोलापासवान शास्त्री, बाबू
जगजीवन राम, भोलाराम तूफानी, भोला राउत, बामसेफ आदि राजनैतिक-सामाजिक विचारकों के
कारण भी यहाँ दलित रचनाशीलता की जमीन उर्बर हुई. सेनाओं के प्रदेश के रूप में
विख्यात बिहार में प्रतिरोध का वामपंथ जिस रूप में उभरकर आया था उसे यान मिर्डल की
किताब ‘भारत के आसमान में लाल तारा’ पढ़कर ठीक से जाना जा सकता है. उस बिहार के
लेखन में अगर ‘नक्सली साहित्य’ की झलक दिखाई दे तो हम इससे भी इनकार नहीं कर सकते.
जगदेव प्रसाद, ललई सिंह यादव का लेखन आज क्यों प्रासंगिक हो रहा है इसपर भी हमें
विचार करना होगा.
सवाल सामंतशाही और
पितृसत्ता का है : बिहार में जिस तरह
का सामाजिक और आर्थिक वितरण है उसमें या तो किसी के पास सब कुच है या किसी के पास
कुछ भी नहीं है. बिहार में नक्सलवादी मूवमेंट के उभार में आर्थिक रूप से पिछड़ापन
बहुत बड़ा कारण रहा है. बिहार की दलित जातियों में दो प्रतिशत से भी कम लोगों के पास
खेत है. वे जमीदारों के खेतों में मजदूरी करते हैं. आर्थिक विपन्नता और सामंतशाही
होने के कारण यहाँ दलितों का जो शोषण होता है वह यहाँ की मीडिया ख़बरों में आसानी
से देखा जा सकता है. अभी फिलहाल ही एक दलित को चारा काटने वाली मशीन में डालकर
इसलिए काट दिया गया क्योंकि बीमारी की अवस्था में वह काम के लिए मना कर रहा था.
गया स्थित रोडरेज की घटना मात्र एक उदहारण है. सत्ता के नशे में डूबे हुए लोग किस
तरह अत्याचार के हिमायती हो सकते हैं यह घटना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. जरुरी नहीं
कि कोई सवर्ण दबंग ही यहाँ काम करे, यह काम यहाँ की पिछड़ी जाति की कोई दबंग जाति
भी कर सकती है. जिस तरह का शोषण समाज में है उस तरह का प्रतिरोध साहित्य में दर्ज
नहीं होता. अगर होता है तो उसकी आवाज दबी रह जाती है. उसे बाहर की दुनिया ठीक से
देख नहीं पाती है. अगर हम बिहार केन्द्रित दलित साहित्य को देखेंगे तो हमें यहाँ
की सामाजिक विषमता साफ़-साफ़ दिखाई देगी.
यह दुखद है कि दलित
वैचारिकी को समर्पित बिहार में कोई एक भी प्रतिष्ठित पत्रिका नहीं है. अगर कारणों
की पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि अब प्रकाशन और उसकी दूसरी जरूरतों का क्षेत्र
बिहार से अलग दिल्ली जैसा प्रदेश हो गया है. ऊपर से सरकार दलित हितों के लिए काम
करने वाली पत्रिकाओं को न के बराबर अनुदान देती है इसका मुख्य कारण है कि सरकारी
संस्थाओं में अभी दलितों की कोई पैठ नहीं है. इस उपक्रम को बढाने के लिए सरकार की
कोई मनसा भी नहीं दिखाई देती. साहित्य समाज का दर्पण तो है पर वह दर्पण किसका है
यह समझना जरुरी होगा? क्यों यहाँ दलित हितों की तरह बहुजन हितों की भी कोई पत्रिका
दिखाई नहीं देती है. बुद्धशरण हंस, ‘आंबेडकर मिशन पत्रिका, चितकोहरा पटना से
निकालते हैं जो बिहार में दलित समाज की एक मात्र पत्रिका है. बुद्ध शरण हंस बहुत
मनोयोग और मिशनरी भाव से इस पत्रिका को निकाल रहे हैं. उनका यह काम प्रशंसनीय है.
रचनाशीलता में
बिहार का कोई सानी नहीं है. यहाँ पर हम संक्षेप में कुछ विशिष्ठ रचनाकारों के
बारें में कुछ आवश्यक जानकारियाँ पाठको के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं. ऐसा नहीं
है कि बिहार में दलित लेखन हो नहीं रहा है या उनकी अभिव्यक्तियों से बाह्य लोगों
को कोई परहेज है पर जिस तरह का प्रश्रय महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश, दिल्ली के लेखकों का दिखाई देता है उस मामले में बिहार
अभी भी पिछड़ा हुआ है. विगत कई सालों से बीबीसी हिंदी और उसकी जैसी कई वेबसाईटों
द्वारा किये गए सर्वे के अनुसार बिहार के रचनाकारों की रचनायें सर्वश्रेष्ठ
किताबों में जगह नहीं पा रही हैं. अधिकतर लेखक दिल्ली या उसके आसपास हैं. जैसे
दिल्ली के कुछ लोगों को जोड़कर दलित साहित्य अकादमी पूरे देश का होने का दावा करती
है वैसे क्या बीबीसी या अन्य संस्थाओं का भी हाल है. क्यों कोई बिहार के रचनाकारों
को अपने खांचे में फिट नहीं पाता है? बुद्धशरण हंस, मुसाफिर बैठा, बिपिन बिहारी,
रामश्रेष्ठ दीवाना, अशोक प्रियदर्शी, डॉ रमाशंकर आर्य, जैसे अनेको ज्ञात अज्ञात
लेखकों की लेखनी लगतार लिख रही है. बिहार में डॉ. रमाशंकर आर्य की आत्मकथा ‘घुटन’
पहली दलित आत्मकथा है पर उसे साहित्य जगत में उस तरह की पहचान नहीं मिली जैसे जूठन
और मुर्दहिया के लेखकों को मिली. कारण जो भी हों पर एक तरह का भाव दिखाई देता है
और एक गहरी फांक भी. परन्तु यह सच है कि डॉ रमाशंकर आर्य बिहार में दलितों की जो
अलग-अलग जातियां उपजातियां हैं उनका बहुत सूक्ष्म ढंग से चित्रण करते हैं. यहाँ
दलित जातियों की हायरार्की देखने लायक है. एक बड़ी बात और उनकी आत्मकथा में दिखाई
देती है जो कि यह है कि बिहार में बहुजन कही जाने वाली कुछ ओबीसी जातियाँ सवर्णों जैसा
व्यवहार करने में कहीं पीछे नहीं हैं. आत्मकथा में लिखते हैं कि उनके गाँव में
कुर्मी जाति ही सवर्ण है जो अपने से छोटी जाति के लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार
करती है.
बिपिन बिहारी और
मुसाफिर बैठा ऐसे दलित लेखक हैं जो देश के विभिन्न प्रतिष्ठानों में अपनी धाक
जमाये हुए हैं. बिपिन बिहारी की कविता, कहानी, लघु कहानी, उपन्यास जैसी विधाओं में
अभी तक चौदह से अधिक किताबें प्रकाशित है. उनकी रचनात्मकता का कोई सानी नहीं. उनका
उपन्यास में जहाँ दलितों के बीच उभरे मध्यवर्ग और उनकी आकांक्षाओं का विश्लेषण है
वहीँ उनकी कहानियां वंचित समाज की पीड़ा को एक वृहत्तर फलक तक ले जाती हैं. उनकी
कहानियों के मुख्य पात्र समाज के वंचित समुदायों से उठने वाले लोग है. दलितों के
शोषण, दमन और अत्याचार को उनकी कहानियों के मूल में देखा जा सकता है. मुसाफिर बैठा
के अब तक दो किताबें प्रकाशित हुई हैं. बैठा सच कहने में विश्वास रखते हैं इसी
कारण से उनकी कवितायें कहानियां में चुभन और क्रूरता शमन के शब्द अधिक उभरते हैं.
वे आंबेडकर के जातितोड़ो मिशन को आगे बढाने का कान कर रहे हैं.
विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य
विषयक पाठ्यक्रम :
साहित्य और समाज की
ही तरह विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में भी दलित बहुजन साहित्य का बहुत अभाव
दिखाई देता है. सामाजिक दबाव और नए ज्ञान के सृजन के लिए अब बिहार के
विश्वविद्यालय अब अपने पाठ्यक्रमों में अम्बेडकरवादी साहित्य को पढ़ाने का संकल्प
ले रहे हैं पर यह अन्य राज्य के विश्वविद्यालयों की अपेक्षा बहुत कम है. हाँ बिहार
का मात्र एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय इस मामले में अपने पाठ्यक्रमों में ज्ञान के
इन क्षेत्रों को पहले से ही समाहित किये हुए हैं. मगध विश्वविद्यालय, पटना
विश्वविद्यालय, जगजीवन राम शोध संस्थान, सामाजिक अध्ययन केंद्र, पटना आदि भी अपने
पाठ्यक्रम को इसी क्रम में सजा रहे हैं.
दलित या बहुजन :
राजेन्द्र यादव और
हंस के सार्थक प्रयासों के कारण तथा देश में बदली हुई परिस्थियों के कारण यह
आवश्यकता महसूस हुई कि ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता की लड़ाई दलित और पिछड़ी जातियों को
मिलकर लड़ना चाहिए. एक अच्छी और सच्ची समाजवादी सरकार के लिए और साधनों में बराबरी
के लिए, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक बराबरी के लिए दलित बहुजन की एकता पर जोर
दिया गया. नारायणा गुरु, ज्योतिबा फुले, पेरियार, बिरसा, आंबेडकर को मिलाकर यहाँ
के मूल निवासियों का एक सर्किल बनता है जिन्हें अब इकट्ठा करने का समय है. मंडल
आन्दोलन ने सामाजिक भागीदारी के इस दायरे को थोड़ा और बढ़ा दिया. रचनात्मकता के स्तर
पर देखें तो दलितों की अपेक्षा पिछडी जातियों के लेखक संख्या में और भी कम मिलते
हैं. लेखकों को अँगुलियों पर रखकर गिनाया जा सकता है. फारवर्ड प्रेस पत्रिका और
प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह के प्रयासों से कुछ पिछड़ी जाति के लेखकों के कामों को
फलक पर लाने की कोशिश की गई जिसमें फणीश्वरनाथ रेणु, प्रेमकुमार मणि, मधुकर सिंह,
सुनीता गुप्ता, अरुण नारायण, रमेश रितम्भर आदि लेखकों की एक सरणी बनती नजर आती है
पर सचमुच यह रेखा बहुत महीन और हलकी है. अब बहुजन में दलितों पिछड़ों के एकीकरण का
काम ‘सबाल्टर्न’ पत्रिका कर रही है.
दलित जातियों के शोषण में वे किसी से कम नहीं
हैं. आर्थिक संसाधनों पर कब्ज़ा और अधिक संख्याबल के कारण वे दलितों के अत्याचार
में बखूबी शामिल रहती हैं. जातीय दंभ के कारण वे मारपीट पर उतारू रहते हैं. इस
आलेख के मुकम्मल होने के लिए और अधिक पृष्ठों की जरूरत होगी तभी मुकम्मल रूप से
इसपर बात की जा सकती है. यहाँ हम संक्षेप में कुछ जानकारियाँ आप तक पहुंचा रहे
हैं.
दयानन्द बटोही :
सुरंग, कफ़न खोर,
यातनाओं के जंगल (कहानी संग्रह) यातना की आँखें-नवगीत संग्रह, मथा दर्द (कविता
संग्रह), साहित्य के आईने में (निबंध संग्रह), साहित्यकारों के साथ (संस्मरण), युग-पुरुष
डॉ. आंबेडकर, सम्पादक – सारथी (मगही) संग्रह आदि प्रकाशित हैं. ख्यात दलित लेखक,
कहानियाँ,
कविताएँ,
कहानी संग्रह,
उपन्यास पाठ्यक्रमों में लगी हैं,
उनपर एमफिल एवं पीएचडी शोध हुए हैं. शिक्षा अधिकारी
रहकर रिटायर हुए.
द्रोणाचार्य सुनें:
उनकी परम्पराएँ सुनें / दयानन्द ‘बटोही’ लिखते हैं :
कोई नहीं अछूत होता
है जन्म से,
यहीं हम बनाते हैं’
अन्धे स्वार्थ में
लीन हो
मैं भी तो मानता
हूँ तुम अछूत नहीं हो
लेकिन स्वार्थ के
वशीभूत हो कहता है अछूत हो।
मेरी रग-रग
तुम्हारी गुरु-भक्ति की टकराहट से
गद्गद है!
मौन हो मैं
तुम्हारी गुरु-भक्ति को मानत हूँ
तुमने घाव दिये,
दर्द दिया
फिर भी मैंने शाप
नहीं, वरदान माना
बुद्धशरण हंस :
पूर्व आईएएस,
प्रख्यात बौद्ध एवं अम्बेडकरवादी चिन्तक-लेखक,
प्रथम प्रकाशित दलित कहानीकार. 1978 में प्रकाशित
कहानी संग्रह ‘देव साक्षी है’ हिंदी दलित साहित्य का प्रथम कहानी संग्रह है. देव साक्षी, तीन
महाप्राणी (कहानी संग्रह), शोषितों की समस्या और समाधान, मनुस्मृति काला कानून,
शिक्षा नीति, अछूतोद्धार, डॉ. आंबेडकर के विचार, क्या हिन्दू होना गर्व की बात है,
काश हम हिन्दू न होते, ज्योतिराव फुले जीवनी, को रक्षति वेदाः जैसी अनेक
महत्वपूर्ण किताबें हैं. ये पटना में
अम्बेडकर मिशन नामक संस्था चलाते हैं एवं अम्बेडकरवादी विचारों की मासिक पत्रिका ‘अम्बेडकर मिशन पत्रिका’
का 25 वर्षों से निरंतर प्रकाशन कर रहे हैं.
मुसाफ़िर बैठा :
चर्चित दलित लेखक.
एक काव्य संग्रह प्रकाशित. एक काव्य संग्रह,
एक अनुवाद पुस्तक एवं एक आलोचना पुस्तक प्रकाशन की
प्रक्रिया में है.बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में कार्यरत.
‘मुसाफिर बैठा’
बिलकुल अलग मिज़ाज के कवि है. वे चर्चित दलित लेखक
हैं. ’बीमार मानस का गेह’नामक उनका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. वे बिहार में
दलित अस्मिता और बेबाकी से अपनी बात रखने वाले कबीरी परम्परा के एक मात्र कवि हैं.
अभी हाल में ही उन्होंने ‘ बिहार-झारखण्ड : चुनिन्दा दलित कवितायें’
नामक सग्रह के सम्पादन का कार्य करके अपनी मेधा का
परिचय दिया है. ‘डर का घर’ नामक अपनी कविता में मुसाफिर लिखते हैं कि :
जिसे तुम कहते हो
देवालय/ वह है फकत
स्वार्थ और लोभ के
गारे मिट्टी से बना/ डर का घर
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
विपिन बिहारी :
प्रसिद्ध दलित
कथाकार, अबतक नौ कहानी
संग्रह एवं चार उपन्यास, एक लघुकथा संग्रह एवं एक काव्य संग्रह प्रकाशित. इनकी भी कई
कहानियाँ, कविताएँ,
कहानी संग्रह,
उपन्यास पाठ्यक्रमों में लगी हैं,
उनपर एमफिल एवं पी-एचडी शोध हुए हैं. अभी रेलवे में
कार्यरत हैं. हिंदी के वरिष्ठ कथाकार विपिन बिहारी पिछले दो दशकों से हिंदी कथा
लेखन के क्षेत्र में सक्रियता से डंटे हुए हैं. अभी तक उनके नौ से अधिक कहानी
संग्रह यथा ‘अपना मकान’
‘पुनर्वास’
‘आधे पर अंत’
‘राजमार्ग पर गोलीकांड’
‘आगे रास्ता बंद है’
‘चील’ ‘बोझमुक्त’ ‘तिलस्म’ व ‘दो ध्रुवीय’ तथा पांच से अधिक उपन्यास- ‘एक स्वप्नदर्शी की मौत’
‘हमलावर’
‘धन धरती’
‘अपने भी’
एक कविता संग्रह- ‘जलती रहे मशाल’, एक लघुकथा संग्रह : ‘नीव की पहली ईंट’ प्रकाशित हो चुका है. अभी हाल ही में उनका छठा उपन्यास ‘मरोड़’ कदम प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित होकर फलक पर आया है.
उत्तर आधुनिकता के
इस दौर में जब तलवारें अपना रूप बदल चुकी हैं,
इतिहास,
विचारधारा,
आलोचना के अंत की घोषणा की जा चुकी है,
सत्ता और समाज में दलितों की भागीदारी बढ़ रही है तो
‘मरोड़’
जैसी कृतियों का आना स्वाभाविक है. अपने पहले
उपन्यासों से अगल विपिन जी के इस उपन्यास का आस्वाद बिलकुल अलग है. समाज का
वर्चश्वशाली तबका नई लड़ाइयों को ज्ञान और तकनीकि से लड़ रहा है तब दलितों को और
अधिक सावधान रहने की जरूरत की तरफ इशारा है यह उपन्यास. दलितों के भोगे और कमाए गए
सत्यों पर अब मुख्यधारा का कब्ज़ा होता जा रहा है जो सदियों से शोषण के अभिप्राय
रहे हैं. जातीय शोषण का यह रूप ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता है. उनकी प्रारंभिक
कविताओं में इसी तरह के शोषण का प्रतिकार हमें दिखाई देता है. उनकी कविता ‘मेरा शम्बूक’ से कुछ पंक्तियाँ देखिये :
तुम कहते हो / ‘राम’ है / मैं कहता हूं ‘राम’ नहीं है
तुम कहते हो ‘राम’ नहीं है / तो शम्बूक भी नहीं
लेकिन जब तक /
तुम्हारा ‘राम’
बना रहेगा / बना रहेगा
मेरे जेहन में /
मेरा शम्बूक भी
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
अरविन्द पासवान :
युवा कवि आलोचक और
वैशाली की धरती को नया आयाम देने वाले कवि अरविन्द पासवान उन विरल कवियों में से
एक हैं जो साहित्य संगीत और कला को एक साथ साध रहे हैं. अभी तक उनका कोई मुकम्मल
कविता संग्रह तो नहीं छपा है पर उनकी कवितायें अपने कथ्य और शिल्प में अपने
अनूठेपन के कारण आकर्षित करती हैं. ‘बाज’ ‘अमंगदेई’ ‘रोहित वेमुला’ जैसी न जाने
सामयिक विषयों पर उनकी कितनी कवितायें प्रकाशित होकर सहृदयों को प्रभावित कर चुकी
हैं. वे जितने बड़े मानस के कवि हैं उतना ही विशाल उनका ह्रदय भी है. पटना में उनका
घर विगत कुछ सालों से नवोदित ‘कवियों’ का आशियाना है. पटना से प्रकाशित सबसे
पुरानी पत्रिका ‘नई धारा’ के जून अंक में आयी उनकी कविताओं ने तो धमाल ही मचा दिया
है. उनकी कवितायें ‘लप्रेक’ शैली की छोटी किन्तु मार्मिक कवितायें हैं. रंगमंच एवं
संगीत से गहरा जुड़ाव, कई नाटकों में अभिनय एवं निर्देशन,
रेलवे में अधिकारी हैं. ‘दोआबा’ के जुलाई 2017 अंक
में प्रकाशित उनकी कविता ‘अमंग देई’ कविता से एक बानगी :
यह अलग बात है अमंग
देई कि /
हमारा शहर अभी आपकी
तरह मुर्दा नहीं हुआ है
वह इतना संवेदनशील
ज़रूर है कि /
अपने एंडरॉएड स्मार्टफोन
के 13 मेगापिक्सल कैमरे से
आपकी तस्वीर
विभिन्न पोजों में खींचकर /
फेसबुक और
व्हाट्सऐप पर पोस्ट कर सकता है
कर सकता है ईमेल
समाचार पत्रों को /
फैला सकता है ख़बर
पूरी दुनिया में/इंटरनेट के जाल से
(दोआबा, जुलाई 17, वर्ष-11, अंक 22)
कर्मानंद आर्य :
युवा कवि एवं
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
गया, बिहार में हिंदी साहित्य के सहायक प्राध्यापक,
एक काव्य संग्रह पाण्डुलिपि प्रकाशन प्रतियोगिता
में चयनित होकर बोधि प्रकाशन से प्रकाशित ‘अयोध्या और मगहर के बीच’
कविता संग्रह,
दीपक अरोड़ा पांडुलिपि प्रकाशन योजना के तहत चयनित
और प्रकाशित ‘डरी हुई चिड़िया का
मुकदमा’ कविता संग्रह,
मंत्रिमंडल सचिवालय,
राजभाषा विभाग,
बिहार सरकार के ‘पांडुलिपि प्रकाशन योजना’
में पुरस्कृत एवं प्रकाशित, ‘अस्मितामूलक साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’
आलोचनात्मक पुस्तक,
द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन,
नई दिल्ली-वर्धा,
महाराष्ट्र से प्रकाशित, 'कविता बिहार : प्रतिनिधिक दलित स्वर'
बिहार झारखण्ड के दलित रचनाकारों की कविताओं का
सामूहिक कविता संकलन का संचयन-सम्पादन किया है. एक कविता
अंतिम अरण्य :
मैं चौराहे पर खड़ा / एक नंगा व्यक्ति हूँ
जिसे दिशाएँ लील लेना चाहती हैं
जिसके पास स्वयं को ढकने के लिए आवरण नहीं
जो तलाश रहा है आज भी एक वस्त्र
सूखे हलक में दबी हुई आवाज / जो कह रहा है
मेरे केश क्यों कटवा दिए गए / मेरा जनेऊ कहाँ है
मेरा ह्रदय क्यों बदल दिया गया / मेरी आँखें कहाँ
है
अपने संबंधों और परिस्थियों से लड़ते हुए
वे खंडित पात्र कहाँ है / कहाँ है सुन्दरी,
कहाँ
हैं मैत्रेय सुरा
कहाँ हैं हमारी स्मृतियाँ / वे बुद्ध कहाँ है,
जो
सदियों नायक रहे
क्या आप नन्द
को जानते हो / तब आप सत्ता में
एक पिछड़े व्यक्ति का विक्षोभ भी समझते होंगे
कहाँ है वह व्यक्ति / जिसे अपने मौलिक अधिकारों के
लिए मर जाना पड़ा
कहाँ है वह आदमी / जो सदियों से हाशिये पर पड़ा है
कहाँ है वह व्यक्तित्व / जिसे दिशा लील गई
मैं वही मनुष्य,
ढूंढ
रहा हूँ अपने ही पद चिन्ह !!!
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
बाबूलाल मधुकर :
मगही-हिंदी कवि,
पूर्व सदस्य,
बिहार विधान परिषद्,
मगही के मशहूर कथकार,
1974 के जेपी आन्दोलन के दौरान बाबा नागार्जुन आदि
के साथ सड़क, नुक्कड़,
चौक-चौरोहों पर अपनी कविताओं का पाठ किया.
मसीहा मुस्कुराता है :
मेरे चारों ओर शिविर लगे हुए हैं
जहाँ नयी नयी तालीमें दी जा रही हैं
दिशाओं में शोर है - इतिहास बदला जा रहा है
पालित मूल्यों के पाए ढाए जा रहे हैं
कोई मसीहा जनम ले रहा है
मैं एक अदना आदमी की हैसियत से
शिविर को देख रहा हूँ / ग्लोब पर खड़ा होकर
जमीन को देख रहा हूँ / जब कभी मेरी अंतड़ियों की
ऐंठन से
आह और कराह निकलती है / तभी मेरी कौम की बस्तियों
में
फुँफकार के अपराध में / आग लगती रही है
मसीहा मुस्कुराता रहा है / और लोग तमाशबीन की तरह
देखते रहे हैं / और मैं/ चौराहे पर खड़ा होकर
अपनी जमात की तलाश / कर रहा हूँ/ तलाश!
(बिहार झारखण्ड : चुनिन्दा
दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
प्रह्लाद चंद्र दास :
ख्यात हिंदी कथाकार,
दो कहानी संग्रह प्रकाशित,
एक प्रतिष्ठित निजी औद्योगिक कम्पनी से उच्च पद से
सेवानिवृत्त हुए. ‘पुटुस के फूल’, ‘पराये लोग’ नामक कहानी संग्रह प्रकाशित. आपकी
बौद्धिक चेतना को आपकी कविताओं में देखा जा सकता है. ‘बेलछी की विधवा’ नामक एक कविता देखिये :
मेरी गोद में किलकारता एक बच्चा है / स्तन में है
दूध
और मैं विधवा हूं! / मैंने चूड़ियां तोड़ी हैं
सिंदूर पोंछा है / और सपने बिसरे हैं / पर,
मैं रोती नहीं / रोने से, / बेटा मेरा रोना सीखता है
रोना वीरों के नाम / कलंक लगता है
और मुझे इसे वीर बनाना है / पुनः,
रोने से / सहानुभूति की आड़ में
भूखे भेड़िए घिर आते हैं
मेरी चारों तरफ! / मैंने उन्हें पहचाना है,
उन भेड़ियों को / जिन्होंने मुझे विधवा बनाया है
जिनके हाथ में दुनिया का कारखाना है
(बिहार झारखण्ड : चुनिन्दा
दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
रमाशंकर आर्य :
आत्मकथा ‘घुटन’ के रचयिता,इन्हें बिहार से प्रथम दलित आत्मकथाकार होने का श्रेय प्राप्त
है. काँटों के बीच (कविता संग्रह), मोक्ष की अवधारणा (विचार), आश्रयहीन होता
हिन्दू धर्म (विवेचना), डॉ. आंबेडकर के विचार जैसी कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का लेखन
किया है. पूर्व उपकुलपति, वीर कुंअर सिंह विश्वविद्यालय,
आरा, बिहार. वर्तमान में,
पटना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के
प्राध्यापक. पटना विश्वविद्यालय के अम्बेडकर चेयर के हेड एवं सामाजिक वहिष्करण
निवारण केंद्र, पटना के अध्यक्ष, विश्वविद्यालय पीठ के निदेशक हैं.
देवनारायण पासवान ‘देव’ :
देवनारायण पासवान देव बहुत बड़े फलक के रचनाकार हैं. उन्होंने
अनेक विधाओं की रचना की है. हालाँकि उनके लेखन में हार्डकोर दलित साहित्य की तरह
की वैचारिकता कम है पर रचनायें चेतना संपन्न हैं. उन्होंने एक दर्जन से अधिक
किताबें लिखी हैं जिनमें से प्रमुख रूप से ‘विजेता कौन’ एवं ‘मस्जिद में हुई अजान’
(नाटक), जय शूद्राचार्य (पौराणिक कथावार्ता), काव्य में उदात तत्व (समीक्षा),
झोपड़ी के लाल:रामकरण पाल, आखिरी नमाज, (कहानी), कालजयी कवि और कविता(समीक्षा), रति,
काम और प्रेम, सत्यनारायण कथा, यही बाकी निशां होगा, दिल के आईने में, संघर्ष आज
भी जारी है जैसे महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं.
जिया लाल आर्य :
‘सरदार उद्धम सिंह’
जैसी करीब तीन दर्जन पुस्तकों के लेखक,
इनमें से चार कहानी संग्रह एवं चार कविता संग्रह
शामिल. सेवानिवृत्त आईएएस, राज्य निर्वाचन आयुक्त समेत बिहार सरकार के गृह सचिव भी रहे.
ग़ज़ल
नसीहत देने वाले तो मिले हर मोड़ पर,
लेकिन
नसीहत का अमल करते नहीं कोई मिला अब तक
करो नि:स्वार्थ सेवा,
के
प्रवाचक तो मिले अनगिन
मुखौटों के बिना मानुष नहीं कोई मिला अब तक
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
राकेश प्रियदर्शी :
युवा कवि,
एक काव्य संग्रह प्रकाशित एवं एक प्रकाशनाधीन है.
बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में कार्यरत हैं. नहीं बुझेगी शीर्षक कविता से :
सोख लो तुम मेरे हिस्से का समुद्र,
आंसू पीकर अपना,
रह
जाउंगा मैं
छीन लो मेरे हिस्से की छत तुम,
आकाश ओढ़कर सो जाऊंगा मैं
खत्म कर दो मुझे,
मार
डालो मुझे,
पर आग जो दिल में है,
जलती ही रहेगी,
नहीं बुझेगी कभी,
जलती रहेगी सदियों तक
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
परमानन्द राम :
‘एकलव्य’ खंडकाव्य प्रकाशित,
एक कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य,
डाक विभाग में पटना जी.पी.ओ. में कार्यरत हैं. उनकी
एक गजल से कुछ अशआर :
तुम पग बढ़ाओगे आसमां तेरा घर होगा
तेरी ही धड़कनों का जहां में असर होगा
कैद मत कर धड़कनों को जहां में सांस ले
तू जिंदगी प्यार से जीतो आसान सफर होगा
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
कृत्यानंद कलाधर :
एक साहित्यिक पत्रिका
का संपादन, सरकारी नौकरी. उनकी
एक कविता :
लौटा दो मुझे :
लौटा दो मुझे-ये रक्तिम होंठ/ सुर्ख गाल
नन्ही आंखों की चमक / बूढ़े बाप का आसरा
और बहिन की चूड़ियां / लौटा दो मुझे - निरा आकाश
खेतों की लहलहाती फसलें पहाड़ो की स्निग्ध ऊंचाइयां
नदियों का निर्मल पानी
और सूरज की बेशुमार रौशनी
लौटा दो मुझे-अंगार भरे वक्ष/ गर्वोन्नत मस्तक
खिलती जवानियाँ / फड़कती पेशियाँ
और खुशी से बढ़े हाथ / लौटा दो मुझे- मेरी संस्कृति
मेरा देश/ मेरा गाँव / मेरा घर।
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
विनोद कुमार चौधरी :
इनके तीन काव्य
संग्रह प्रकाशित हैं. बिहार सरकार में उपपुलिस महानिरीक्षक पद पर तैनात हैं. .
आप कौन हैं?
अक्सर यह ख्याल आता है -आप कौन हैं?
हमारे नाम अनेक हैं - कोई शूद्र कहता है,
कोई
अछूत
कोई कहता है हरिजन,
कोई
सोलकन
कोई अनुसूचित जाति का कह के पुकारता है
कोई दलित की संज्ञा देता है
और कोई महादलित के विशेषण से नवाजता है
और कोई तो हमारी जाति विशेष का नाम लेकर
अपमान के गर्त तक ले जाना चाहता है
अनेक नाम हैं हमारे / जो कालांतर में दिए गये
इंसान से कमतर की कोटि में रखने को
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
अजय यतीश :
दृष्टिवान कवि,
एक प्रतिष्ठित कम्पनी में नौकरी
मध्य बिहार :
हवा में उछलती मुट्ठियां / फिजा में गूंजती चीखें
गले में गोलियों का हार / यह है मध्य विहार
ऐंठती अंतड़िया / जलती झोपड़ियां
अबलाओं की चीत्कार / यह है मध्य विहार
लाशों से पटे खेत / थरथराती कांपती रातें
जगह-जगह गोहार / यह मध्य बिहार
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
वीरचन्द्र दास :
‘धृतराष्ट्र की
आँखें’ नामक एक कहानी संग्रह प्रकाशित है. कवि-कथाकार एवं हाईस्कूल से सेवानिवृत्त
शिक्षक हैं. अपनी लम्बी किन्तु शानदार कविताओं के लिए जाने जाते हैं.
अंबेडकर दोहवाली :
धर्मग्रंथ के सामने,
कैसे
हों हम नत |
गौ, ब्राह्मण के खातिर,
बहुजन
की दुर्गत ||
धर्म की भूल-भुलैया में,
अंधभक्ति
गलफांस |
मुक्ति का संदेशा ले बहुजन,
जो
है बाबा पास ||
वर्ग चेतना जाग उठी,
अपना
दीपक आप |
बाबा के साहित्य से ही,
भागेगा
संताप ||
तत्वज्ञान के नाम पर,
दलदल
में फँसे हैं लोग |
बाबा राह विवेक का,
आग
धुआँ संयोग ||
वेद देव को टालकर,
अवैदिक
का मान |
गरज पड़ी तो बेच दिया अपना ही भगवान ||
ज्ञान धरोहर है नहीं,
दौड़े
आए पास |
बिना किए उद्योग के,
फल
की कैसी आस ||
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
रामलषण राम ‘रमण’ :
बिहार सरकार में
शिक्षा मंत्री सहित कई विभागों के मंत्री रह चुके हैं. वर्तमान में बिहार विधान
परिषद् के सदस्य. मैथिली एवं हिंदी में कविता,
कहानी, संस्मरण सहित अनेक विधाओं में पुस्तकें प्रकाशित
शाम को रावण कहते हो :
जिसे सुबह में राम हो कहते,
शाम को रावण कहते हो।
मानव होकर क्यों कर प्यारे-
ईर्ष्या-द्वेष में बहते हो।
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
जयप्रकाश फाकिर :
एक प्रखर
अम्बेडकरवादी युवा बुद्धिजीवी हैं, लेखक हैं. शिक्षा –
बी टेक (मैकेनिकल इंजी,
आई आई टी,
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा),
सम्प्रति –
भारत सरकार के कैग कार्यालय में अधिकारी, कवितायें
और स्फुट लेखन प्रकाशित
चंद्रभूषण चन्द्र :
युवा कवि हैं. पटना
विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से पी-एचडी.,
हाईस्कूल में शिक्षक हैं.
सौरभ आर्य :
प्रतिष्ठित आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है,
इसी पढ़ाई के दौरान एक हिंदी काव्य संग्रह प्रकाशित.
एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में साइप्रस देश में अभी काम करते हैं. विदेशों में घूमना
इस युवा टेक्नोक्रैट का शौक है. 35 से अधिक देशों का भ्रमण कर चुके हैं.
लकीर के फकीर :
क्यों लाएं बदलाव हम / जो चलता आ रहा
वो चलता रहे / क्यों लाएं बदलाव हम
ये परम्परा रही / गंदी ही सही
क्यों लाएं बदलाव हम / बदलाव जंग छेड़ता है
दिल के रिश्ते तोड़ता है / क्यों लाएं बदलाव हम
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
कपिलेश प्रसाद :
नौकरी त्याग कर
राजनीतिक सक्रियता के सोशल एक्टिविस्ट हैं.
बुचरू पासवान :
मूलतः मैथिली लेखक,
कई किताबें प्रकाशित. वर्तमान में विद्यापति सेवा
संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष हैं. शिक्षा –
पी-एचडी. प्लस-टू उच्च विद्यालय के प्राचार्य पद से
सेवानिवृत्त
महेन्द्र नारायण राम :
मैथिली एवं हिंदी
में एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के रचयिता. शिक्षा- पीएचडी.,
अभी बिहार सरकार में शिक्षा अधीक्षक हैं. मैथिली
अकादमी के अध्यक्ष एवं मैथिली सलाहकार समिति एवं साहित्य अकादमी,
दिल्ली के सदस्य रह चुके हैं.
भीमशरण हंस :
बिहार सरकार में
बिहार प्रशासनिक सेवा में उच्चाधिकारी रह चुके हैं. सेवानिवृत्ति के बाद सोशल
एक्टिविस्ट के बतौर भी एक पहचान है इनकी.
रामेश्वर प्रसाद :
एक निजी स्कूल में
शिक्षक एवं सामाजिक कार्यकर्ता, प्रखर अम्बेडकरवादी
दिलीप राम :
कई पुस्तकें
प्रकाशित. इस वर्ष यानी 2017 में एक कवि के साथ सह-हिंदी-मैथिली-भोजपुरी काव्य
संग्रह प्रकाशित हुआ है. शिक्षा- पी-एचडी. पटना विश्वविद्यालय में हिंदी के
प्रोफेसर.
जिंदगी :
दिल के दरवाजे पर खड़ी / अरमानों से सजी दुल्हन
जिंदगी / बेबसी का पट खोल / टुकुर-टुकुर ताकती
हो जाती है आत्मविभोर! / आह!
टूटी खाट / फूटी छप्पर / सूखी रोटी
भूखा पेट / तन पर नहीं बसन-कवच कोई
चिलचिलाती धूप में -अरमानों की बिलबिलाती चेतना
खाती पछार / अच्छा आशा की पकड़े टूटी डोर
सीने में जलन -कंधे पर दुखों का भार / पैरों में
जंजीर
आंखों में बेबसी अपार / जिंदगी स्ट्रेचर पर लदी / मौत
के लिए तड़पती
निराशा की नगरी में / आर्थिक विसंगतियों से भरी
खाली स्लाइन सेट की बोतलों से / जिंदगी का थोथा रस
मांगती
अंतिम सांसें गिनती / और / सदा के लिए आँखें मूंद
लेती है / जिंदगी।
(बिहार झारखण्ड : चुनिन्दा
दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
सूर्यनारायण ‘सूरज’ :
एक काव्य संग्रह
प्रकाशित हैं, एक काव्य संग्रह
प्रकाशन की प्रक्रिया है. बिहार विधान सभा में कार्यरत हैं. एक राजनेता परिवार से
हैं.
बिहार में दलित स्त्री
रचनाशीलता की धमक :
चाहे साहित्य हो या
समाज बिहार में स्त्रियों की भागीदारी कम दिखाई देती है. हिंदी के रचनात्मक लेखन
में तो हमें घोर निराशा हाथ लगती है जहाँ एक भी दलित स्त्री दिखाई नहीं देती है.
स्त्रीवाद के विभिन्न खानों, दलित स्त्रीवाद के विभिन्न प्रतिमानों में बिहार की
स्त्री अभी चूल्हें तक खोयी हुआ है. राजनीति में भी उसने कोई कमाल किया हो ऐसा
नहीं देखा जाता. मुख्यमंत्री नितीश कुमार के सार्थक प्रयासों से स्त्रियों की
भागीदारी समाज में बढ़ी है. स्कूली शिक्षा प्राप्त कर रही लड़कियों को मिलने वाली
प्रोत्साहन राशि हो, शराब बंदी का अभियान हो या राजनीति में पंचायत स्तर पर
महिलाओं की पचास प्रतिशत भागीदारी का सवाल हो निस्संदेह स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी
है. शिक्षा के गुणात्मक सुधार के कारण बिहार की आधी आबादी कहीं पीछे नहीं है पर
अभी भी लगता है उसकी मंजिल कहीं और आगे हैं. बिहार में घोर सामंती समाज और
पितृसत्ता की जकडन को बिहार की बेटियां दशरथ माझी के हथौड़े से लगतार तोड़ रही हैं
और उम्मीद है वे एक दिन कोई न कोई रास्ता जरुर निकाल लेंगी.
कावेरी :
ख्यात दलित लेखिका
जो कि प्रथम प्रकाशित स्त्री दलित उपन्यासकार भी हैं. इनकी भी कई कहानियाँ,
कविताएँ,
कहानी संग्रह,
उपन्यास पाठ्यक्रमों में लगी हैं,
उनपर एमफिल एवं पीएचडी शोध हुए हैं. नौकरी में रही
हैं. एक दलित स्त्री के रूप में शिक्षा पाने में संघर्ष झेलीं और अपने को साबित
किया.
दर्द :
शादी ब्याह का दर्द सालता है / पिताजी ढूंढ रहे हैं
वह भटक रहे हैं /घर-घर दर-दर / मैं कुर्ती हूं बेटी
के लिए
हाथ में घटा पड़ गया है / उनके मैं पूछ रही हूं
बताओ यह पीला कभी हुआ था हाथ तुम्हारा
पिताजी ने ही किया होगा पीला / नए पथ की खोज में
तुम हो परेशान / मैं पढ़ रही हूं चढ रही हूं पहाड़
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
रंजु राही :
सोशल एक्टिविस्ट,
सामाजिक कार्यों में गहरी संलग्नता बंद आंखों में तूफान
लिए बैठी हूं
तुम मेरी आंखों में
ढूंढते हो मदिरा
और मैं अपने
इन बंद आंखों में
तूफान लिए बैठी हूं / तुम चाहते हो मैं लिखूं
कुछ प्यार के नगमे / कुछ मनुहार की बातें
वह मदहोश रातें / और एकाकार की यादें
और मैं अपने दिल में उबलते जज्बात से
विद्रोह की आगाज किए बैठी हूं
अब यह राम का साम्राज्य नहीं कि / रुखसत कर दो
अकेले मुझे बियाबान में / और मैं दे दूं
अग्निपरीक्षा
मैं तो संग तेरे जलने का / सामान किये बैठी हूँ
आजाद भारत में हूँ / आजाद ख्यालात हैं
देह पर हमारी / हमारा अधिकार है
तेरी हर चुनौती स्वीकार मुझे / मैं अपने हाथ
संविधान लिए बैठी हूँ।
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
माया :
गृहिणी,
काव्य अभिव्यक्ति प्रभावशाली पिता की तरह
पिता दोहरे नहीं हुए थे / दोहरे से हुए थे
अपने पुरखों पूर्वजों की तरह / दुर्बल हुए थे क्षीण
हुई थी काया
रौशनी कम हुई थी आँखों की / नम थीं आँखें और कोये
सजल
आवाज में कंपकपी थी / उनके शरीर की तरह
जैसे होता है पिताओं में / पिता की तरह
पिता की उम्र ज्यादा लम्बी और / कभी कभी दीर्घ होती
है
पिता बनना उम्र के एक फासले को पार करना है
एक दूरी तय करने जैसा / पिता की उम्र में लोग
पिता जैसे दिखते हैं / सफ़ेद बाल घनी मूछें
भर्रायी भरी आवाज आदि / परन्तु इतना ही काफी नहीं
होता
जरूरी होता है निर्दोष निर्लिप्त / निर्विकार चेहरा
जहाँ जीवन विश्राम आराम करता है / जो हर आयु वर्ग
के लोगों को
सन्देश देता है / पिता की उम्र में पिता बनने का
और पिता सदृश व्यवहार करने का / पिता की यही सदृशता
पिता को महान बनाती है / पिता की तरह।
(बिहार झारखण्ड :
चुनिन्दा दलित कवितायें, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
ऋचा :
ख्यात मगही कवि
बाबूलाल मधुकर की पुत्री. हिंदी में कविताएँ लिखती हैं एवं मगही में कहानियां.
दमदार अभिव्यक्ति.
सविता कुमारी :
उदीयमान कवयित्री,
पटना के एक दैनिक समाचार पत्र में पत्रकार
अंजु बौद्ध :
अम्बेडकरवादी सोशल
एक्टिविस्ट हैं. अनेक स्त्रीवादी संगठनों से जुड़ी हुई हैं. पटना के एक स्वास्थ्य
संस्थान में नौकरी
राखी आनन्द :
शिक्षिका एवं
सामाजिक कार्यकर्ता
जहाँ दमन होता है,
मुक्ति की शुरुआत वहीँ से होती है. इस मामले में अपना बिहार कहीं भी पीछे नहीं
रहेगा. यह तो सच है कि बिहार में दलित
रचनाशीलता की भाव-भूमि बहुत उर्वर है. जनांदोलन का उभार,
चेतना का उदय और आंबेडकर के साहित्य का ही परिणाम
होगा कि बिहार के रचनाकारों तक अब सबकी दृष्टि जायेगी. हीरा डोम की कविता फिर अपनी
भाषा में बिगुल फूंकेगी.
(यह आलेख हिंदी की साहित्यिक पत्रिका 'अंग चंपा' में प्रकाशित है)
डॉ. कर्मानंद आर्य
भारतीय भाषा केंद्र
हिंदी
दक्षिण बिहार
केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
मो. 8863093492
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