शनिवार, 19 मई 2018

महिषासुर : मिथक और परम्परायें/ कर्मानंद आर्य

पुस्तक समीक्षा

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‘महिषासुर एक जननायक’ की अपार सफलता के बाद ‘फारवर्ड बुक्स’ एवं ‘दी मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन’ ने अपनी दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘महिषासुर मिथक व परम्परायें’ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत की है. बहुजन तबकों खासकर आदिवासियों, पिछड़ों और दलितों के सांस्कृतिक प्रतिरोध के निर्माण में इस पुस्तक को मील का पत्थर माना जाना चाहिए. यह पुस्तक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि देवों और असुरों की लड़ाई में यह असुरों की तरफ से प्रस्तुत साक्ष्यों और उसकी परम्पराओं को तथ्यों और तर्कों के आधार पर पुष्ट करती है. यह हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या महिषासुर ही अनार्यों के पूर्वज हैं? बिहार-झारखण्ड, बंगाल और उड़ीसा का जनमानस इन प्रश्नों के बारे में क्या सोचता है? क्या महिषासुर और उनकी परम्पराओं को किसी और संस्कृति, सभ्यता और जीवन पद्धति के रूप में स्वीकारा जाय?  क्या महिषासुर और दुर्गा की लड़ाई साहित्य की कल्पना मात्र है या उसका कोई साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक सन्दर्भ भी है? प्रस्तुत पुस्तक इन बहुत सारे प्रश्नों का नृवंशशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करती है. यह लांछित एवं अपमानित किये गए असुर, राक्षस, दैत्यों की उस गौरवशाली परम्परा को रेखांकित करने वाली पुस्तक है जिसे सांस्कृतिक वर्चस्व के कारण ब्राह्मणवादी ताकतों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था. जिस संस्कृति की क्षीण या स्फुट परम्परायें ही दिखाई पड़ती हैं.
दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में जिन चार महाक्रान्तियों का जिक्र किया है उनके मूल में कहीं न कहीं युद्ध हैं. तो क्या युद्धों की संस्कृति या विजेताओं की संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति मान लिया जाय? क्या किसी संस्कृति के कोई दूसरे पहलू भी हुआ करते हैं? क्या हम अभी तक युद्धों से नियंत्रित होते रहे हैं. क्या युद्धविहीन संस्कृतियाँ हमारी संस्कृति नहीं है? यह पुस्तक इसी सांस्कृतिक अध्ययन के बहुजन पक्ष का पुनराख्यान प्रस्तुत करती है. पुराणों के वाग्जाल में फँसी हुई असुरों की महान परम्परा और प्रतिरोध का जीवंत दस्तावेज है यह पुस्तक. यह पुस्तक बताती है कि असुर, नाग, यक्ष, द्रविड़, आर्य आदि अनेक प्रजातियों वाले इस देश में सांस्कृतिक विविधतायें एक नहीं हैं अपितु उनमें कई ऐसे मोड़ हैं जहाँ वे एक दूसरे के साथ मिलती हुई मुटभेड भी करती दिखाई देती हैं. समूह के एक ऐसे छोटे वर्ग ‘द्विज’ या ‘अभिजन’ ने अद्विज या बहुजन तबकों को को नकार कर कैसी सामाजिक श्रेणियों की निर्मिति की है यह पुस्तक इस विडंबना को समझने की महत्वपूर्ण सामग्री से भरी हुई है.

360 पृष्ठों की यह पुस्तक छह खण्डों में विभाजित है. ‘यात्रा वृतांत’ नामक अपने पहले खंड में सम्पादक ने यात्राओं के बहाने उपशीर्षक ‘महोबा में महिषासुर’ ‘छोटानागपुर में असुर’ ‘राजस्थान से कर्नाटक वाया महाराष्ट्र-तलाश महिषासुर की’ के अवशेषों और मान्युमेन्ट को यात्रावृतांत के रूप में रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है. पुस्तक बताती है कि कैसे बहुजन-श्रमण संस्कृति को नष्ट करते हुए ‘मार्कंडेय पुराण’ जैसे कपोल-कल्पित ग्रन्थ रचे गए. कैसे असुरों की संस्कृति विश्वदृष्टि संपन्न और श्रम से परिपूर्ण होकर ब्राह्मण-द्विज परम्पराओं से सर्वथा भिन्न है. कैसे आजादी के बाद भी सांस्कृतिक-सामाजिक गुलामी का शिकंजा लगातार कसता जा रहा है? दलितों आदिवासियों की कला संस्कृति, साहित्य भाषा और परम्परा को क्यों हीनताबोध के साथ देखने की परम्परा का निर्माण होता रहा है? कैसे हमारे समय के निर्माता उसे राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करते हुए गोटी सेंक पाने में सक्षम हो रहे हैं. पुस्तक इन प्रश्नों का एक सार्थक जबाब है.
जैसे-जैसे बहुजन संस्कृति का निर्माण हो रहा है वैसे-वैसे वैकल्पिक शक्तियाँ अपनी पुरजोर ताकत लगा रही हैं कि इन आन्दोलनों को कैसे क्षीण किया जाय. छद्म हिन्दू इसे महिषासुर और महिषासुरमर्दिनी के बीच हुए युद्ध के निहितार्थ से परे इसे धार्मिक चश्मे से देखकर परेशान हैं. अपरोक्ष रूप से साहित्यिक पत्रिकाओं पर रोक के उदाहरण भी हमारे सामने आये हैं. इसलिए यह पुस्तक और महत्वपूर्ण हो जाती है कि यह गोंडी पुनेम दर्शन, दुर्गासप्तसती का असुरपाठ, महिषासुर-एक खोज, बिहार में असुर परम्परायें और डॉ. आंबेडकर और असुर नामक अपने पाठों में पाठकों के मध्य ऐतहासिक और सांस्कृतिक सामग्री को विस्तार से प्रस्तुत करती है. पुस्तक तीसरा खंड, महिषासुर आन्दोलन किसका और किसके लिए जैसे उपशीर्षकों में विभाजित है. इस खंड के मूल में महिषासुर आन्दोलन की सैद्धांतिकी को अलग-अलग कोणों से देखा गया है. खंड चार को ‘असुर : संस्कृति व समकाल’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है. असुरों का जीवन उत्सव, शापित असुर: शोषण का राजनैतिक अर्थशास्त्र, कौन हैं वेदों के असुर? आदि उपशीर्षकों के अंतर्गत तथ्यों की पड़ताल की गई है. खंड पांच में महिषासुर आन्दोलन को साहित्यिक नजरिये से देखा गया है और परिशिष्ट में महिषासुर आन्दोलन की झलकियों को जीवन्तता के साथ प्रस्तुत किया गया है.
झारखण्ड के गुमला जिले के अमतीपानी नामक एक गाँव के असुर बहुत इलाके की बात करते हुए पुस्तक बताती है कि कैसे असुर समुदाय के लोग खनन मजदूर बनने को बाध्य हो चुके हैं. रेडियेशन और विकिरण कैसे उनके अन्धकार भरे जीवन में और अन्धकार घोल रहे हैं. समकालीन विमर्श ने अपनी लोकप्रियता के जो प्रतिमान गढ़े हैं उन्हीं प्रतिमानों को यह पुस्तक वर्चस्ववादी ताकतों के सामने धमक के साथ प्रस्तुत कर रही है. कुल मिलाकर एक पठनीय किताब पाठकों के सम्मुख है.

पुस्तक का नाम : महिषासुर मिथक व परम्परायें
सम्पादक : प्रमोद रंजन
प्रकाशक :  ‘फारवर्ड बुक्स’ एवं ‘दी मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन’ दिल्ली, वर्धा
कुल पृष्ठ : 360
मूल्य : 850 रूपये (हार्ड बाउंड)

समीक्षक : डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक, भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी

दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया

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