सोमवार, 4 जून 2018

कितना झूठा था गाँव का मंजर/ कर्मानंद आर्य




कभी गाँव को सहज, सरल और स्वाभाविक मानते हुए यह किवदंती प्रचलित हो गई थी कि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है. दुनिया के सबसे प्यारे, सबसे अच्छे लोग गाँव में रहते हैं. शहर तो हमेशा की तरह लुटेरा था, इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जो कुछ ‘गंवार’ लोग बड़े नगरों में जाकर बस गए थे उनके लिए गाँव आज भी एक यूटोपिया की तरह रहा. शहर में वे शोषित थे. ‘रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे....’’टाइप. पर पता नहीं क्या करने चले जाते थे शहर? बुरे शहर को छोड़ नहीं पाते थे. पता नहीं वे कैसे खाये-पिए अघाये लोग थे. संभ्रांत परिवेश से आने वाले. वे कभी शहर के नहीं हो पाये. क्या सचमुच वे गरीब लोग थे? शहर में ऐसे लोगों की आबादी आज भी भी बहुत है. 

लगता है कितने नादान लोग थे वे. सच में गँवार. कैसा गाँव, कौन सा गाँव, दलित, वंचित, पिछड़ों, अगड़ों, पण्डितों, कुर्मियों और राजपूतों के गाँव? या वह गाँव जो दक्षिण में होने को लेकर अभिशप्त रहा. कितने उपन्यास, कितनी कहानियां, कितनी कवितायें लिखी जा चुकी हैं पर गाँव की मासूमियत का ठीक से देखना हो तो हमें ‘जूठन’ पढना चाहिए या ‘मुर्दहिया-मणिकर्णिका’. उन गांवों का सच अगर बर्दास्त न हो तो फिर हमें प्रेमचंद की तरफ आना चाहिये जहाँ शोषक वर्ग का एक भी सदस्य नायक के रूप में नहीं आता (प्रेमचंद ने तथाकथित किसी सवर्ण ब्राह्मण, राजपूत, बनिया को नायक नहीं बनाया, लगभग खलनायक बनाये गए हैं). अदम गोंडवी, महेश कटारे सुगम, कालीचरण स्नेही, मलखान सिंह, आशाराम जागरथ, अष्टभुजा शुक्ल, सीबी भारती, अरविन्द, विपिन बिहारी के गीतों, गजलों, दोहों का पढ़कर गाँव की जो एक तस्वीर उभरती है वह किसी रसिक से छुपी हुई नहीं है. भोजपुरी गीतों में गाँव का आस्वाद बिलकुल अलग है. शैवाल की ‘दामुल’ भी गाँव की कहानी है. लक्ष्मणपुर बाथे, खैरंलाजी, गोहाना, मिर्चपुर, सब्बीरपुर भी तो गाँव ही हैं. पर ये गाँव गंवारों के गाँव नहीं हैं. ‘बखेड़ापुर’ में हरेप्रकाश उपाध्याय ने जो तस्वीर उभारी है उस गाँव से कौन नहीं परिचित. ‘मैला आँचल’ परती परिकथा, बिल्लेसुर बकरिहा’ कितने नाम तो है. शानी, राही मासूम रजा, शिव प्रसाद सिंह अपनी कथाओं में कौन सी कहानियां छुपाते हैं? गाँव हमेशा से राग-द्वेष, हिंसा, नफरत के केंद्र रहे. पितृसत्ता, सामंतवाद, जातिवाद का खुला संस्करण ही गाँव कहलाता था. कितना धूर्त, पर दिखाई तो कोमल देता था. जमींदारों का नंगा नाच आज भी हो रहा है, शेष जनता आज भी सामंती शोषण का शिकार हो रही है. नए आर्थिक ढाँचे ने नए संबंधों को जन्म दिया है पर सबके मूल में नफरत और अहंकार के सिवा कुछ भी तो नहीं है. गाँव के अच्छे होने की तस्वीरे केवल यूटोपिया है. शोषकों का गाँव आज भी आदर्श गाँव है, नंगई और भुखमरी आज भी वहां नंगा नाच रही है. दानामांझी, बुधिया का सम्बन्ध किसी गाँव से ही रहा है. भात से वंचित रहकर मरने वालों की दुःख गाथा कोई शहरी कैसे समझ सकता है? किसान तो मरता है, कर्ज से मरता है, उसे इच्छायें मारती हैं पर वही किसान मर रहा है जिसके पास मरने लायक खेती है. जाने कितने खेतिहर किसान मजदूरी के लिए मर रहे हैं. प्रेमचंद ने गोदान में जिस होरी किसान का जिक्र किया था वस्तुतः वह किसान नहीं था. वह था ही मजदूर. उसे तो विनोबाभावियों, सहजानंदियों ने किसान बनाया. किसान तो कोई बड़ी खेती वाला महेंद्रसिंह टिकैत या अजीत सिंह टाइप ही हो सकता है. हमारे गाँव के जमींदार ने भी कितने लोगों का रास्ता रोका हुआ है पर लोग कहते हैं सरकार उसकी है, पुलिस उसकी है, प्रशासन उसका है. कितना झूठ है गाँव का मंजर, कभी मेरे गाँव चलिये फुलिया न्याय के लिए छटपटा रही है.



मेरा गाँव, मेरा देश
..................................

हमारे अपने ही गाँव में
जाने कहाँ गुम हो गए हमारे लोग
कहीं उनकी अस्थियाँ मिली
कहीं मिले उनके जबड़े
कहीं लथपथ मिला ह्रदय
खून से भीगे मिले कपड़े
कोई उत्तर में मिला
कोई पूर्व में
पश्चिम कब्रगाह बन चुका है
कोई पास में मिला
कोई दूर में 
कोई नहर पर फ़ेंक दिया गया
कोई नदी में बह गया
कोई तालाब में सड़ते हुए पाया गया
जाने कितने लोग
गवाही देने के कारण मारे गए
कुछ ने तो नजरें ऊँची कर ली थी
यही था मौत का कारण
कोई मूंछ के लिए मारा गया
कोई पेट के घाव के कारण
किसी को सच कहने की बीमारी थी
कोई चाहता था बराबरी 
जो घर से निकले
वे लौट के आ न सके 
उनका इन्तजार करते करते मर गई बेवायें
भूख से छटपटाकर मर गए बच्चे
जो सामान्य समझ के लोग थे
जिन्हें पता था अपना हक-हकूक
वे कभी नहीं लौटकर आये
राम लौटे, कृष्ण लौटे
कहते हैं भगवान बुद्ध भी एक बार लौटकर
आये थे लुम्बिनी
कितने थे जो बुढापे में लौटे थे अपने पिंड   
फिर हमारे लोग लौटकर क्यों नहीं आये
उन्हें दिशा लील गई या
आसमान खा गया
उन्हीं के हिस्से में क्यों आयी मौत
कहाँ गए वे लोग
इस हत्यारे समय में
आखिर कोई उनका पता क्यों नहीं बताता

पे बैक टू सोशायटी
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इन दिनों हैं बिलकुल बेकार
बारह घंटे खटने वाले भगेलू चमार

पसलियों में अब सुस्ती आ गई
ट्रैक्टर आने से जिन्दगी हरिया गई
विज्ञान के कारण
दुनिया बदलने को आयी
तर्क ने गायब कर दी पंडित की पंडिताई

आज के ठाकुर खेत बेच कर खा रहे
दलितों की तरह मुंबई कमाने जा रहे

इतना तो ठीक
दुखरन पाण्डे का कलयुग आ गया
कहते हैं जो बकरी चराता था वो नौकरी पा गया

गाँव में नया ब्राह्मण आया 
इस साल भीखन साव के बेटे ने दुर्गा पूजा बैठाया
कलयुग में धर्म पलटी मार रहा
जयनंदन यादव का बेटा मन्त्र उच्चार रहा  

पर भीखन चमार एक बात दुहराते हैं
नौकरीशुदा अपने बेटों को बात बताते हैं
बेटा बहुत कठिन दिन गुजार कर हम यहाँ आये हैं
बाबा साहब की फोटो हम छाती से चिपकाये हैं

उनकी एक बात मत भूल जाना
पे बैक टू सोसायटी से अपना फर्ज निभाना
अमीरों के भारत को गरीबों का भारत बनाना
अपना फर्ज निभाना !!!!

बैलों जैसी मार  
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झेली नंगी पीठ पर
बैलों जैसी मार
नधे रहे ताजिंदगी
अपने मन को मार
खेत नहीं, खलिहान नहीं
दालान नहीं, अरघान नहीं
तोला भर बलिदान हुए तो
उसपर अपना नाम नहीं
धनिया की पाती चाही
होने लगी जुटान
ठाकुर ने ठगहारी मारी
निर्धन हुए जबान  
बभनौटी मौसम में 
ऐसे कैसे निभ पाएगी
क्षीण हुई कटि, सिर भारी है 
पीठ दरद से चिल्लाएगी
नकली साँसे लेकर हम भी
रहते हैं हैरान
हम ही मारे गए विरादर
जायेगी अब जान 
अंधियारे मौसम की थाती
पीठ हमारी सहलाएगी
याद मार की रह जायेगी
झेली नंगी पीठ......
बैलों जैसी मार

दलितों के गाँव से
..........................

इस परिदृश्य में कहीं नहीं हूँ मैं
एक खालीपन है
उजास की आशा लिए
झीलों, दर्रों, समुद्रों को पार करता हुआ
अभी तो पहुंचा हूँ
तुम्हारे दर पर
अभी कदम ही रुके हैं
साँसों का चलना
शुरू ही हुआ है
पहुंचते ही कह देना चाहता हूँ
मुझे कन्धों की विडम्बनाओं से मुक्त कर दो
जहाँ जाता हूँ कोई कंधा आगे कर देता है
हम कब से लंगड़े हैं
कोई संवेदना जगाता है
आसूं कहाँ से लाऊं
परिदृश्य में कहीं नहीं हूँ मैं 
थक हारकर आया हूँ
अब लौटना नहीं चाहता
चाहता हूँ तुम्हारा प्रेम बंटे न
गाँव तुम्हारा है, तुम गाँव के हो
पर यह गाँव हमारा भी बन जाए
जमीन हमारी भी हो जाए
खेत और पेड़ भी आयें हमारे हिस्से
अभी तो परिदृश्य में कहीं नहीं हैं हम




कचहरी
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मार खा लेना
चमड़ी उतरवा लेना
जरूरत पड़े तो रो गा लेना  
उससे भी न चले काम
दुःख देने लगे दुःख का नाम
साहेब की धूल को माथे पर चढ़ा लेना
मैडम की चरण-धूलि आँखों पर उठा लेना
कर लेना आत्महत्या
चले जाना हरिद्वार 
पर बेटे,
कभी कचहरी न जाना
मत ही जाना
बाप-दादा की परम्परा पर दाग मत लगाना
कचहरी हमारी न हुई
तुम्हारी क्या होगी
मालिक की बैठक से प्यारी क्या होगी
हम लुटे हैं, हम वहां भी लूटे जायेंगे
जो हमें सम्मान दे न सके
वे क्या न्याय दे पायेंगे
बेटा इक्कीसवीं सदी का मी लार्ड भी
मनुवाद का मारा है
मान ले बेटे
वह भी गंवार संस्कारी लोगों का राजदुलारा है
बेटा आग न मिले आग ले जाना
बेटा कभी कचहरी मत जाना   
कभी मत जाना


यह दीवार मेरी है
............................................

ईंट की न सही
घास-पूस की सही
पर यह दीवार मेरी है
क्या कर रहे हो भाई
मेरी दीवार पर पेशाब करना मना है
उस बार आप खखार कर चुप हुए
इस बार आप थूक चुके हो
आपका लार दीवारों पर ताजा है 
समझा चुका हूँ आपको
शरीफजादों वाली ये हरकतें हमें पसंद नहीं
वे दिन अलग थे
हम चुप रह जाते हैं
हमारी तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं 
पर हम आपका हगना-मूतना समझ चुके हैं 
हम चुप नहीं रहेंगे
यह हमारी नियति नहीं 
कच्ची सही यह दीवार हमारी है
हमारी अस्मिता को छेड़कर
कौन नहीं हुआ जमींदोज
पर हमारी दीवार अभी बची हुई है 
हम भी बचे हुए हैं
केवल सुन्दर दिखने से कुछ नहीं होता
दीवारें सुंदर और मजबूत होनी चाहिए
बंद कीजिये अपना व्यापार
मनुष्य को मनुष्य और
दीवार को दीवार समझिये साहब  
समझिये साहब !!!!


हँस मत पगली
............................

अच्छे-अच्छे लोगों में
लोग बुरे मिल जायेंगे
इतना तो मत हँस पगली
लोग मजाक उड़ायेंगे

लोग कहेंगे कहवा-काफी
लोग कहेंगे घर की चाभी
लोग कहेंगे ऊसर-बांगर
कुछ बोलेंगे भाभी-वाभी

लोग मिज़ाज मिलायेंगे
इतना तो मत हँस पगली
पगले पागल हो जायेंगे

लोग कहेंगे पढ़ना छोड़
मेरे घर का विस्तर ओढ़
लोग कहेंगे आटा-दाल
चलते-फिरते कर दे निहाल

हँस मत पगली !!!
हँसने की पैमाइश बाकी है
होंठ हिला बस
हँसने की जस ख्वाइस बाकी है

हँस पगली!!
मत हँस पगली !!!  




दलित साहित्य में तीन पीढ़ियों का लेखन : कर्मानंद आर्य


'दूसरा शनिवार' में कवि कर्मानंद आर्य के काव्य पाठ का आयोजन



मर जाते हैं लोग
छाती पर रखा हुआ कोयला दहकता रहता है
(कविता : 'बंत सिंह' से)
आज फिर शनिवार आ गया। गत 26 मई, शनिवार शाम को "दूसरा शनिवार" की कविता-गोष्ठी में हम सभी युवा कवि कर्मानंद आर्य को सुनने के लिए पटना गाँधी मैदान की गाँधी मूर्ति के पास इकट्ठे हुए थे।
हिन्दू धर्म के मिथक के अनुसार शनिवार "खरमण्डल" वाल दिन है। सदियों से लोग इसे मानते आ रहे हैं। लोगवाग इस दिन कोई अच्छा काम नहीं करते हैं। एक परम्परा है। इस परम्परा का सांकेतिक विरोध करते हुए साहित्यसेवकों ने इस बैनर का नाम रखा : "दूसरा शनिवार", जिन्होंने भी इस नाम का चयन किया इसके पीछे उनके क्या उद्देश्य थे नहीं कह सकता, लेकिन फिलहाल वे बधाई के पात्र हैं। हलाँकि शनिवार को अधिकांश दफ़्तर बंद भी होते हैं। इस ख्याल से यह दिन समयानुकूल भी है। जबकि यथास्थिति से इन्कार भी सकारात्मकता के पथ का अनुसरण है। अगुआ वही हो सकता है जो परम्परा-भंजक होगा। 


18 फरवरी 2018 को सादे समारोह में हरिद्वार में डॉ रविता और डॉ कर्मानंद आर्य का आदर्श विवाह हुआ। गोष्ठी में कर्मानंद आर्य की पत्नी ★ डॉ. रविता, ★ घनश्याम, ★ रामनाथ शोधार्थी, ★ समीर परिमल, ★ सुजीत कुमार राय, ★ संजय कुमार ‘कुंदन’, ★ राजकिशोर राजन, ★ शहंशाह आलम, ★ डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा, ★ श्वेता शेखर, कृष्ण समिद्ध, ★ कुंदन आनंद, ★ रामप्रवेश पासवान, ★ अरविन्द पासवान, ★ शिवनारायण, ★ हेमंत दास ‘हिम’, ★ प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा, ★ संजय कुमार सिंह, ★ अक्स समस्तीपुरी, ★ पंखुरी सिन्हा और आपकी ★ बड़ी बहन एवं ★ नरेन्द्र कुमार उपस्थित हुए। खासियत यह कि दो आम श्रोता भी इस कठिन काल में कविता गौर से सुन रहे थे, जबकि गाँधी मैदान में हजारों की भीड़ होती है।
कार्यक्रम की शुरुआत एक-दूसरे के परिचय के आदान-प्रदान से हुई। अतिथि कवि के परिचय के साथ मंच पर कविता-पाठ के लिए आमंत्रित करते हुए संचालक ने कवि के बारे में कहे गए दो साहित्यिक मनीषियों के शब्दों को उद्धरित किया :
"हाल के वर्षों में जिन कवियों ने अपनी प्रतिभा और रचनाशीलता से सम्पूर्ण हिन्दी जगत को प्रभावित और विस्मित किया है उनमें कर्मानंद आर्य अग्रणी हैं। संभवतः कर्मानंद सरीखा आज कोई दूसरा कवि नहीं है। इसका एक कारण तो लोक और शास्त्र का अद्भुत समाहार है जो कभी भी इन कविताओं को एक निश्चित तापमान से विचलित नहीं होने देता। उदाहरण स्वरुप 'डरी हुई चिड़िया का मुकदमा' कविता को लिया जा सकता है जो एक ही सांस में वाल्मीकि से लेकर अभी की शताब्दी तक की यात्रा तय करते हुए आज का प्रथम अनुष्टुप बन जाती है। यहां प्रायः हर कविता अपने समय का बिम्ब है। कर्मानंद आर्य आज के साथ हिंदी कविता में दलित स्वर, समवेत स्वर या धरती के समस्त वंचितों के सुख-दुख संघर्ष का वृंद गान बन जाता है। यह भावी का संकेत भी है और एक नए संधान भी।"
■ अरुण कमल ■
साहित्य अकादमी प्राप्त
"कविताएं कवि के विचार-बोध का आईना हैं तो भाव-बोध की प्रतिमा भी, जो कवि की ज्ञानात्मक सम्वेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के रासायनिक घोल में रची-बसी हैं। यह युवा कवि की निजता और मौलिकता की ओर इशारा करती हैं। यह कवि की पहचान का संग्रह साबित होगा। कवि का जीवन संघर्ष ही उसका रचनात्मक संघर्ष बनकर प्रस्फुटित हुआ है। कबीर जैसी प्रश्नाकुलता वह बीज-भाव है जो कवि को अपने समय-समाज के प्रश्नों और चुनौतियों से मुठभेड़ करते हुए बड़े खतरनाक ढंग से कविता के भीतर घुसने का जोखिम भरा साहस पैदा करता है। वंचित समाज के शोषण, दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध ये कविताएँ प्रखर प्रतिरोध एवं गहरे इतिहास-बोध की कविताएँ हैं जो मनुष्य को मनुष्य समझने की माँग करती हैं।"


■ चौथीराम यादव ■
बहुजन चिंतक, रचनाकार
और आलोचक
फिर कवि डॉ कर्मानंद आर्य कविता-पाठ के लिए आमंत्रित हुए।
कर्मानंद आर्य ने अपने दोनों संग्रहों ‘अयोध्या और मगहर के बीच’ एवं ‘डरी हुई चिड़िया का मुकदमा’ से सधी हुई आवाज़ में इन कविताओं का सुंदर पाठ किया :
● इस बार नहीं बेटी, ● वसंतसेना, ● घायल देश के सिपाही, ● जनरल डायर, ● नामदेव ढसाल, ● गाय नहीं बकरी माँ है, ● अयोध्या और मगहर के बीच, ● पिछड़े लोगों की भाषा, ● अंतिम अरण्य, ● प्रतिमान, ● मुसहरी : आरक्षण मेरे लिए नहीं है 'पटना, बच्चे, बेटियाँ, माएँ, पिता और पुनः पटना ● बंत सिंह, ● सच, ● एहसास, ● देह और ● डरी हुई चिड़िया का मुकदमा।


नरेंद्र कुमार के शब्दों में : "उनकी कविताएं आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि सभी पक्षों को लेकर थीं। पढ़ी गयी कविताओं में कुछ प्रेम विषयक थीं।"
दूसरा शनिवार की गोष्ठी के फॉरमेट के अनुसार कविता पाठ के बाद कवि की कविताओं पर बात न हो सकी। अध्यक्षता कर रहे डॉ शिवनारायण जी की अनुमति से मुजफ्फरपुर से अचानक आईं कवयित्री पंखुरी सिन्हा की कविताओं को भी सुनने का अवसर प्राप्त हुआ।
फिर भी कवि राजकिशोर राजन ने कहा कि आर्य की कविताएं सुनने और देखने में जितनी सहज हैं, वाकई हैं नहीं। कविताओं पर ठहर कर ही बात की जा सकती है। कविताओं का असर यह है कि यह अपने जद से बाहर निकलने नहीं देती।


उपस्थित कवयित्रियों, शायरों और कवियों ने अपनी कविताएँ सुनायीं। कार्यक्रम मुसलसल शाम करीब 5 बजे से 7:30 तक चला।
एकबार फिर से हम अतिथि कवि कर्मानंद आर्य, उनकी पत्नी और आप सबका आभार प्रकट करते हैं। आभार इसलिए भी कि इस लू में लोग जबकि घर में दुबके पड़े हैं, हम गाँधी मैदान पटना की सरजमीं पर कविता सुन और सुना रहे हैं। इस भीषण गर्मी की ज्यादतियों का भी एक तरह से विरोध है।
अध्यक्षता : डॉ शिवनारायण
संचालन/संयोजन : अरविन्द पासवान
धन्यवाद ज्ञापन : नरेन्द्र कुमार
इस तरह कवि, पाठक और श्रोता कई प्रश्न धर गए, और कई सवाल संग-साथ लिए गए।
(फ़ोटो : डॉ रविता जी और मेरे रेड MI नॉट 3 के सौजन्य से।)
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कुछ विनोद और कुछ विचार के पल : दूसरा शनिवार : अरविन्द पासवान


डॉ कर्मानंद आर्य का पटना से रिश्ता रहा है। कारण, जब केन्द्रीय विश्वविद्यालय भारतीय भाषा केंद्र गया, पटना में स्थित था तो वे कोई 5 बरस या इससे अधिक का समय पटना में गुजार चुके हैं। वे इस विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर थे। अभी भी हैं, लेकिन अब गया में। इस दौरान पटना में उनके कई दोस्त बने, कई बिछड़ें। आज भी पटने में उनके बहुजनों से आत्मीय सम्बन्ध हैं।

 जाने-अनजाने कई रिश्ते बनते, तो कई छूट जाते या टूट जाते हैं। (अभी हाल ही में वरिष्ठ रचनाकार ध्रुव गुप्त का fb पर एक पोस्ट पढ़ा जिसमें चंपारण ज़िला में उनके नौकरी के दौरान उनका एक अजाना रिश्ता बना। फिर वे दोनों बिसुर गए। और अचानक कोई 30 वर्षों के बाद उस रिश्ता का हाल ही में नवीकरण हुआ।) ऐसा बहुत लोगों के साथ होता है। हो सकता है। भले रिश्ते पुराने हो जाते हैं, यादें ताज़ी रहती हैं।


गत 26 मई को जब प्रोफेसर, कवि डॉ कर्मानंद आर्य सपत्नीक पटना पधारे तो दूसरा शनिवार के संयोजक होने के नाते उनके स्वागत में मुझे पटना स्टेशन जाना पड़ा। बता दूँ कि इसी वर्ष 18 फरवरी को डॉ रविता से डॉ आर्य की शादी हुई है। जेठ की दोपहरी में करीब 2:30 से 3 घण्टे के इंतजार के बाद उनके दीदार हुए। स्टेशन के बाहर का परिसर मुझे इन 3 घण्टों में कई युगों का साक्षात्कार करा गया। इसपर फिर कभी।


कार्यक्रम स्थल गाँधी मूर्ति, गाँधी मैदान पटना में हमें शाम 4:30 में पहुँचना था। और समय करीब था। बल्कि हो चला था। साथियों का फोन घनघनाने लगा। कई साथी कर्मानंद जी को अपने घर पर आमंत्रित करना चाह रहे थे। कुछ साथी मुझसे कवि का लोकेशन ले रहे थे। इधर डॉ रविता गन्ने का जूस पीना चाह रही थीं। पटना स्टेशन और बिस्कोमॉन भवन पटना के बीच गन्ने का जूस नहीं मिला। महसूस हुआ पटने का रस सूख रहा है। हरिलाल में हम तीनों राज कचौरी ठीक से खाना भी शुरू नहीं कर पाए थे कि करीब शाम 4:50 पर डॉ शिवनारायण जी का फोन आया। "मैं ज़मीन पर मैदान में बैठा हूँ, आप कहाँ हैं।" मैन कहा :- हरि (हरिलाल) की शरण में हूँ। आ रहा हूँ। करीब 5:10 में हम तीनों गाँधी मूर्ति के पास पहुंच चुके थे। 


कार्यक्रम करीब 5:30 में शुरू होकर 7:45 तक समाप्त हो गया। बिस्कोमॉन के दर पर पीपल की छांव में हमसबने चाय की चुस्की ली। रविता जूस पीना पसंद कीं। करीब रात के 8:30 बज चुके थे। बारी-बारी हम सब बिछड़ गए। इस बीच कवि, चिंतक डॉ मुसाफ़िर बैठा जी का फोन कर्मानंद जी को आता रहा : "मेरे घर आइए।" "मेरे घर आइए।" जब भी उनका फोन आता आर्य जी सकते में पड़ जाते। मुझे थोड़ी-सी राहत मिलती। चूकि पत्नी और बच्चे घर से बाहर थे। ऐसी स्थिति में घर आने के लिए उनसे आग्रह करना भी ठीक नहीं था। मेरे घर में न कूलर है, न ए. सी. और कुछ लोग नव विवाहित दंपती को तन्हाई में छोड़ देना पसंद करते हैं। अंत में कर्मानंद जी ने मुसाफ़िर जी से कह दिया हम आपके घर कल आएँगे। मैंने सोचा करीब रात के 9 बजने को हैं, किसी रेस्तरां में खाना खाकर ही डेरा लौटेंगे। 







कर्मानंद जी और रविता जी को जो पसंद हो, करेंगे। डेरा चलेंगे या होटल में ठहरेंगे। उन दोनों ने एक स्वर में कहा कि हम रेस्तराँ में खाना नहीं खाएँगे, आपके डेरा चलेंगे। रात 9:30 पर हम डेरा पहुँच चुके थे। पसीने से तरबतर कपड़े बदले। मुँह-हाथ धोया। मैं और कर्मानंद जी करीब रात 9:45 में सब्जी मंडी में था। बमुश्किल कद्दू और कुछ दूसरी सब्जी मिली। हम फौरन डेरा लौट गए। तबतक डॉ रविता रोटी बना ली थी। हमने रोटी, दाल कद्दू, भुजिया और अचार खाया। खाते-पीते रात के 11 बज चुके थे। बतरस में 30 मिनट बीत गए। अब हमें नींद सता रही थी। हम बिछावन पर आ गए। कब सो गया पता नहीं। सुबह डाइनिंग हॉल में बैठे-बैठे यही सोच रहा था कि आजकल नया जोड़ा अकेले रहना, होटल में खाना पसंद करता है। आखिर ये लोग किस मिट्टी के बने हैं। जीवन का आनंद कब लेंगे? लेकिन शायद मैं गलत सोच रहा था। अबके युवा जिंदादिली से घर-परिवार को भी पसंद कर रहे हैं। उनकी आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक चेतना प्रशंसनीय है। तीन दिनों के घरबास में उन दोनों ने अनजाने में कई गुण सिखा गए। कई सपने जगाकर, अहसास दिला गए। 



27 मई 2018 को सुबह में डॉ मुसाफ़िर जी का फोन आया। आप सबका खाना यहीं है। जल्दी आइए। 27 मई रविवार को हमें सायन्स कॉलेज पटना परिसर में वाक परीक्षा प्रशिक्षण केंद्र पर "भारतीय जन लेखक संघ" के कार्यक्रम में दिन के 12 बजे से शामिल भी होना था। संघ की बैठक और विषय : 'आरक्षण एवं भारतीय संविधान' पर परिचर्चा और संवाद आयोजित की गई थी। इस संस्था के राष्ट्रीय महासचिव श्री महेंद्र नारायण पंकज अद्भुत व्यक्तित्व हैं। पेशे से शिक्षक हैं। कर्मठ, लगनशील और उत्साही हैं। आप जबतक कार्यक्रम में शामिल न होंगे वे आपको फोन करते रहेंगे। वे लोगों को बहुत प्यार करते हैं। इस प्यार से लोग खौफ भी खाते हैं। लेकिन आदमी अच्छे हैं।
मुसाफ़िर जी के घर हम दिन के करीब 11 बजे पहुँचे। वे अपने घर सड़क से साथ ले गए। जैसा कि लोग जानते हैं, महीनों से वे कई कठिनाइयों से गुजर रहे हैं, फिर भी चेहरे पर न शिकन है, न उदासी का भाव। जैसे कि जीवन के इस सुर को उन्होंने साध लिया हो। आत्मीयता के साथ उनके घर पर हमारा खैरमक़दम हुआ। नव दंपती का उन्होंने अपनी तरह से स्वागत किया। करीब 3 घण्टे कैसे निकल गया पता न चला। इन घण्टों में पारिवारिक, सामाजिक, वैचारिक और अन्य मुद्दों पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई। फल यह हुआ कि संपादक द्वय (मुसाफ़िर बैठा और कर्मानंद आर्य) के संपादन में बिहार-झारखंड के चुने हुए दलित कवियों का प्रकाशित होनेवाला कविताओं का संग्रह की पांडुलिपि बोधि प्रकाशन को भेज दी गई। आतिथ्य सत्कार और स्वादिष्ट भोजन के लिए मुसाफ़िर साहब सहित पूरे परिवार का आभार।
करीब दिन के 2:30 बजे हम भारतीय जन लेखक संघ के कार्यक्रम में पहुँचे। ...
(कुछ तस्वीरें : डॉ मुसाफ़िर बैठा के घर की, भारतीय जन लेखक संघ के कार्यक्रम की और "घुटन" के लेखक, विद्वान प्रोफेसर डॉ रमाशंकर आर्य के घर की।)

अरविन्द पासवान :
जन्म- 18 फरवरी, 1973
शिक्षा : स्नातक प्रतिष्ठा (अँग्रेजी)।
प्रकाशन एवं प्रसारण : दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान एवं वैशाली,  
छपते-छपते, किरण वार्ता, दोआबा और नई धारा आदि पत्रिकाओं में कविताएँ
प्रकाशित एवं आकाशवाणी, पटना से प्रसारित।
अभिरुचि : रंगमंच से गहरा जुड़ाव, कई नाटकों में अभिनय एवं   
निर्देशन। साहित्यिक संगोष्ठियों एवं सेमिनारों में निरंतर भागीदारी।
सम्पादन सहयोग : साहित्य एवं संस्कृति की पत्रिका किरण वार्ता में
पता : 202 एम. ई. अपार्टमेंट ईस्ट बोरिंग कैनाल रोड पटना
संपर्क- मोबाइल- 7352520586, इमेल paswanarvind73@gmail.com

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