डॉ कर्मानंद आर्य का पटना से रिश्ता रहा है। कारण, जब केन्द्रीय विश्वविद्यालय भारतीय भाषा केंद्र गया, पटना में स्थित था तो वे कोई 5 बरस या इससे अधिक का समय पटना में गुजार चुके हैं। वे इस विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर थे। अभी भी हैं, लेकिन अब गया में। इस दौरान पटना में उनके कई दोस्त बने, कई बिछड़ें। आज भी पटने में उनके बहुजनों से आत्मीय सम्बन्ध हैं।
जाने-अनजाने कई रिश्ते बनते, तो कई छूट जाते या टूट जाते हैं। (अभी हाल ही में वरिष्ठ रचनाकार ध्रुव गुप्त का fb पर एक पोस्ट पढ़ा जिसमें चंपारण ज़िला में उनके नौकरी के दौरान उनका एक अजाना रिश्ता बना। फिर वे दोनों बिसुर गए। और अचानक कोई 30 वर्षों के बाद उस रिश्ता का हाल ही में नवीकरण हुआ।) ऐसा बहुत लोगों के साथ होता है। हो सकता है। भले रिश्ते पुराने हो जाते हैं, यादें ताज़ी रहती हैं।
गत 26 मई को जब प्रोफेसर, कवि डॉ कर्मानंद आर्य सपत्नीक पटना पधारे तो दूसरा शनिवार के संयोजक होने के नाते उनके स्वागत में मुझे पटना स्टेशन जाना पड़ा। बता दूँ कि इसी वर्ष 18 फरवरी को डॉ रविता से डॉ आर्य की शादी हुई है। जेठ की दोपहरी में करीब 2:30 से 3 घण्टे के इंतजार के बाद उनके दीदार हुए। स्टेशन के बाहर का परिसर मुझे इन 3 घण्टों में कई युगों का साक्षात्कार करा गया। इसपर फिर कभी।
कार्यक्रम स्थल गाँधी मूर्ति, गाँधी मैदान पटना में हमें शाम 4:30 में पहुँचना था। और समय करीब था। बल्कि हो चला था। साथियों का फोन घनघनाने लगा। कई साथी कर्मानंद जी को अपने घर पर आमंत्रित करना चाह रहे थे। कुछ साथी मुझसे कवि का लोकेशन ले रहे थे। इधर डॉ रविता गन्ने का जूस पीना चाह रही थीं। पटना स्टेशन और बिस्कोमॉन भवन पटना के बीच गन्ने का जूस नहीं मिला। महसूस हुआ पटने का रस सूख रहा है। हरिलाल में हम तीनों राज कचौरी ठीक से खाना भी शुरू नहीं कर पाए थे कि करीब शाम 4:50 पर डॉ शिवनारायण जी का फोन आया। "मैं ज़मीन पर मैदान में बैठा हूँ, आप कहाँ हैं।" मैन कहा :- हरि (हरिलाल) की शरण में हूँ। आ रहा हूँ। करीब 5:10 में हम तीनों गाँधी मूर्ति के पास पहुंच चुके थे।
कार्यक्रम करीब 5:30 में शुरू होकर 7:45 तक समाप्त हो गया। बिस्कोमॉन के दर पर पीपल की छांव में हमसबने चाय की चुस्की ली। रविता जूस पीना पसंद कीं। करीब रात के 8:30 बज चुके थे। बारी-बारी हम सब बिछड़ गए। इस बीच कवि, चिंतक डॉ मुसाफ़िर बैठा जी का फोन कर्मानंद जी को आता रहा : "मेरे घर आइए।" "मेरे घर आइए।" जब भी उनका फोन आता आर्य जी सकते में पड़ जाते। मुझे थोड़ी-सी राहत मिलती। चूकि पत्नी और बच्चे घर से बाहर थे। ऐसी स्थिति में घर आने के लिए उनसे आग्रह करना भी ठीक नहीं था। मेरे घर में न कूलर है, न ए. सी. और कुछ लोग नव विवाहित दंपती को तन्हाई में छोड़ देना पसंद करते हैं। अंत में कर्मानंद जी ने मुसाफ़िर जी से कह दिया हम आपके घर कल आएँगे। मैंने सोचा करीब रात के 9 बजने को हैं, किसी रेस्तरां में खाना खाकर ही डेरा लौटेंगे।
कर्मानंद जी और रविता जी को जो पसंद हो, करेंगे। डेरा चलेंगे या होटल में ठहरेंगे। उन दोनों ने एक स्वर में कहा कि हम रेस्तराँ में खाना नहीं खाएँगे, आपके डेरा चलेंगे। रात 9:30 पर हम डेरा पहुँच चुके थे। पसीने से तरबतर कपड़े बदले। मुँह-हाथ धोया। मैं और कर्मानंद जी करीब रात 9:45 में सब्जी मंडी में था। बमुश्किल कद्दू और कुछ दूसरी सब्जी मिली। हम फौरन डेरा लौट गए। तबतक डॉ रविता रोटी बना ली थी। हमने रोटी, दाल कद्दू, भुजिया और अचार खाया। खाते-पीते रात के 11 बज चुके थे। बतरस में 30 मिनट बीत गए। अब हमें नींद सता रही थी। हम बिछावन पर आ गए। कब सो गया पता नहीं। सुबह डाइनिंग हॉल में बैठे-बैठे यही सोच रहा था कि आजकल नया जोड़ा अकेले रहना, होटल में खाना पसंद करता है। आखिर ये लोग किस मिट्टी के बने हैं। जीवन का आनंद कब लेंगे? लेकिन शायद मैं गलत सोच रहा था। अबके युवा जिंदादिली से घर-परिवार को भी पसंद कर रहे हैं। उनकी आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक चेतना प्रशंसनीय है। तीन दिनों के घरबास में उन दोनों ने अनजाने में कई गुण सिखा गए। कई सपने जगाकर, अहसास दिला गए।
27 मई 2018 को सुबह में डॉ मुसाफ़िर जी का फोन आया। आप सबका खाना यहीं है। जल्दी आइए। 27 मई रविवार को हमें सायन्स कॉलेज पटना परिसर में वाक परीक्षा प्रशिक्षण केंद्र पर "भारतीय जन लेखक संघ" के कार्यक्रम में दिन के 12 बजे से शामिल भी होना था। संघ की बैठक और विषय : 'आरक्षण एवं भारतीय संविधान' पर परिचर्चा और संवाद आयोजित की गई थी। इस संस्था के राष्ट्रीय महासचिव श्री महेंद्र नारायण पंकज अद्भुत व्यक्तित्व हैं। पेशे से शिक्षक हैं। कर्मठ, लगनशील और उत्साही हैं। आप जबतक कार्यक्रम में शामिल न होंगे वे आपको फोन करते रहेंगे। वे लोगों को बहुत प्यार करते हैं। इस प्यार से लोग खौफ भी खाते हैं। लेकिन आदमी अच्छे हैं।
मुसाफ़िर जी के घर हम दिन के करीब 11 बजे पहुँचे। वे अपने घर सड़क से साथ ले गए। जैसा कि लोग जानते हैं, महीनों से वे कई कठिनाइयों से गुजर रहे हैं, फिर भी चेहरे पर न शिकन है, न उदासी का भाव। जैसे कि जीवन के इस सुर को उन्होंने साध लिया हो। आत्मीयता के साथ उनके घर पर हमारा खैरमक़दम हुआ। नव दंपती का उन्होंने अपनी तरह से स्वागत किया। करीब 3 घण्टे कैसे निकल गया पता न चला। इन घण्टों में पारिवारिक, सामाजिक, वैचारिक और अन्य मुद्दों पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई। फल यह हुआ कि संपादक द्वय (मुसाफ़िर बैठा और कर्मानंद आर्य) के संपादन में बिहार-झारखंड के चुने हुए दलित कवियों का प्रकाशित होनेवाला कविताओं का संग्रह की पांडुलिपि बोधि प्रकाशन को भेज दी गई। आतिथ्य सत्कार और स्वादिष्ट भोजन के लिए मुसाफ़िर साहब सहित पूरे परिवार का आभार।
करीब दिन के 2:30 बजे हम भारतीय जन लेखक संघ के कार्यक्रम में पहुँचे। ...
करीब दिन के 2:30 बजे हम भारतीय जन लेखक संघ के कार्यक्रम में पहुँचे। ...
(कुछ तस्वीरें : डॉ मुसाफ़िर बैठा के घर की, भारतीय जन लेखक संघ के कार्यक्रम की और "घुटन" के लेखक, विद्वान प्रोफेसर डॉ रमाशंकर आर्य के घर की।)
अरविन्द पासवान :
जन्म- 18 फरवरी, 1973
शिक्षा : स्नातक प्रतिष्ठा (अँग्रेजी)।
प्रकाशन एवं प्रसारण : दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान एवं
वैशाली,
छपते-छपते, किरण वार्ता, दोआबा और नई धारा आदि पत्रिकाओं में कविताएँ
प्रकाशित एवं आकाशवाणी, पटना से प्रसारित।
अभिरुचि : रंगमंच से गहरा जुड़ाव, कई नाटकों में अभिनय एवं
निर्देशन। साहित्यिक संगोष्ठियों एवं सेमिनारों में
निरंतर भागीदारी।
सम्पादन सहयोग : साहित्य एवं संस्कृति की पत्रिका किरण
वार्ता में
पता : 202 एम. ई. अपार्टमेंट ईस्ट बोरिंग कैनाल रोड पटना
संपर्क- मोबाइल- 7352520586, इमेल paswanarvind73@gmail.com
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