सोमवार, 4 जून 2018

कितना झूठा था गाँव का मंजर/ कर्मानंद आर्य




कभी गाँव को सहज, सरल और स्वाभाविक मानते हुए यह किवदंती प्रचलित हो गई थी कि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है. दुनिया के सबसे प्यारे, सबसे अच्छे लोग गाँव में रहते हैं. शहर तो हमेशा की तरह लुटेरा था, इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जो कुछ ‘गंवार’ लोग बड़े नगरों में जाकर बस गए थे उनके लिए गाँव आज भी एक यूटोपिया की तरह रहा. शहर में वे शोषित थे. ‘रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे....’’टाइप. पर पता नहीं क्या करने चले जाते थे शहर? बुरे शहर को छोड़ नहीं पाते थे. पता नहीं वे कैसे खाये-पिए अघाये लोग थे. संभ्रांत परिवेश से आने वाले. वे कभी शहर के नहीं हो पाये. क्या सचमुच वे गरीब लोग थे? शहर में ऐसे लोगों की आबादी आज भी भी बहुत है. 

लगता है कितने नादान लोग थे वे. सच में गँवार. कैसा गाँव, कौन सा गाँव, दलित, वंचित, पिछड़ों, अगड़ों, पण्डितों, कुर्मियों और राजपूतों के गाँव? या वह गाँव जो दक्षिण में होने को लेकर अभिशप्त रहा. कितने उपन्यास, कितनी कहानियां, कितनी कवितायें लिखी जा चुकी हैं पर गाँव की मासूमियत का ठीक से देखना हो तो हमें ‘जूठन’ पढना चाहिए या ‘मुर्दहिया-मणिकर्णिका’. उन गांवों का सच अगर बर्दास्त न हो तो फिर हमें प्रेमचंद की तरफ आना चाहिये जहाँ शोषक वर्ग का एक भी सदस्य नायक के रूप में नहीं आता (प्रेमचंद ने तथाकथित किसी सवर्ण ब्राह्मण, राजपूत, बनिया को नायक नहीं बनाया, लगभग खलनायक बनाये गए हैं). अदम गोंडवी, महेश कटारे सुगम, कालीचरण स्नेही, मलखान सिंह, आशाराम जागरथ, अष्टभुजा शुक्ल, सीबी भारती, अरविन्द, विपिन बिहारी के गीतों, गजलों, दोहों का पढ़कर गाँव की जो एक तस्वीर उभरती है वह किसी रसिक से छुपी हुई नहीं है. भोजपुरी गीतों में गाँव का आस्वाद बिलकुल अलग है. शैवाल की ‘दामुल’ भी गाँव की कहानी है. लक्ष्मणपुर बाथे, खैरंलाजी, गोहाना, मिर्चपुर, सब्बीरपुर भी तो गाँव ही हैं. पर ये गाँव गंवारों के गाँव नहीं हैं. ‘बखेड़ापुर’ में हरेप्रकाश उपाध्याय ने जो तस्वीर उभारी है उस गाँव से कौन नहीं परिचित. ‘मैला आँचल’ परती परिकथा, बिल्लेसुर बकरिहा’ कितने नाम तो है. शानी, राही मासूम रजा, शिव प्रसाद सिंह अपनी कथाओं में कौन सी कहानियां छुपाते हैं? गाँव हमेशा से राग-द्वेष, हिंसा, नफरत के केंद्र रहे. पितृसत्ता, सामंतवाद, जातिवाद का खुला संस्करण ही गाँव कहलाता था. कितना धूर्त, पर दिखाई तो कोमल देता था. जमींदारों का नंगा नाच आज भी हो रहा है, शेष जनता आज भी सामंती शोषण का शिकार हो रही है. नए आर्थिक ढाँचे ने नए संबंधों को जन्म दिया है पर सबके मूल में नफरत और अहंकार के सिवा कुछ भी तो नहीं है. गाँव के अच्छे होने की तस्वीरे केवल यूटोपिया है. शोषकों का गाँव आज भी आदर्श गाँव है, नंगई और भुखमरी आज भी वहां नंगा नाच रही है. दानामांझी, बुधिया का सम्बन्ध किसी गाँव से ही रहा है. भात से वंचित रहकर मरने वालों की दुःख गाथा कोई शहरी कैसे समझ सकता है? किसान तो मरता है, कर्ज से मरता है, उसे इच्छायें मारती हैं पर वही किसान मर रहा है जिसके पास मरने लायक खेती है. जाने कितने खेतिहर किसान मजदूरी के लिए मर रहे हैं. प्रेमचंद ने गोदान में जिस होरी किसान का जिक्र किया था वस्तुतः वह किसान नहीं था. वह था ही मजदूर. उसे तो विनोबाभावियों, सहजानंदियों ने किसान बनाया. किसान तो कोई बड़ी खेती वाला महेंद्रसिंह टिकैत या अजीत सिंह टाइप ही हो सकता है. हमारे गाँव के जमींदार ने भी कितने लोगों का रास्ता रोका हुआ है पर लोग कहते हैं सरकार उसकी है, पुलिस उसकी है, प्रशासन उसका है. कितना झूठ है गाँव का मंजर, कभी मेरे गाँव चलिये फुलिया न्याय के लिए छटपटा रही है.



मेरा गाँव, मेरा देश
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हमारे अपने ही गाँव में
जाने कहाँ गुम हो गए हमारे लोग
कहीं उनकी अस्थियाँ मिली
कहीं मिले उनके जबड़े
कहीं लथपथ मिला ह्रदय
खून से भीगे मिले कपड़े
कोई उत्तर में मिला
कोई पूर्व में
पश्चिम कब्रगाह बन चुका है
कोई पास में मिला
कोई दूर में 
कोई नहर पर फ़ेंक दिया गया
कोई नदी में बह गया
कोई तालाब में सड़ते हुए पाया गया
जाने कितने लोग
गवाही देने के कारण मारे गए
कुछ ने तो नजरें ऊँची कर ली थी
यही था मौत का कारण
कोई मूंछ के लिए मारा गया
कोई पेट के घाव के कारण
किसी को सच कहने की बीमारी थी
कोई चाहता था बराबरी 
जो घर से निकले
वे लौट के आ न सके 
उनका इन्तजार करते करते मर गई बेवायें
भूख से छटपटाकर मर गए बच्चे
जो सामान्य समझ के लोग थे
जिन्हें पता था अपना हक-हकूक
वे कभी नहीं लौटकर आये
राम लौटे, कृष्ण लौटे
कहते हैं भगवान बुद्ध भी एक बार लौटकर
आये थे लुम्बिनी
कितने थे जो बुढापे में लौटे थे अपने पिंड   
फिर हमारे लोग लौटकर क्यों नहीं आये
उन्हें दिशा लील गई या
आसमान खा गया
उन्हीं के हिस्से में क्यों आयी मौत
कहाँ गए वे लोग
इस हत्यारे समय में
आखिर कोई उनका पता क्यों नहीं बताता

पे बैक टू सोशायटी
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इन दिनों हैं बिलकुल बेकार
बारह घंटे खटने वाले भगेलू चमार

पसलियों में अब सुस्ती आ गई
ट्रैक्टर आने से जिन्दगी हरिया गई
विज्ञान के कारण
दुनिया बदलने को आयी
तर्क ने गायब कर दी पंडित की पंडिताई

आज के ठाकुर खेत बेच कर खा रहे
दलितों की तरह मुंबई कमाने जा रहे

इतना तो ठीक
दुखरन पाण्डे का कलयुग आ गया
कहते हैं जो बकरी चराता था वो नौकरी पा गया

गाँव में नया ब्राह्मण आया 
इस साल भीखन साव के बेटे ने दुर्गा पूजा बैठाया
कलयुग में धर्म पलटी मार रहा
जयनंदन यादव का बेटा मन्त्र उच्चार रहा  

पर भीखन चमार एक बात दुहराते हैं
नौकरीशुदा अपने बेटों को बात बताते हैं
बेटा बहुत कठिन दिन गुजार कर हम यहाँ आये हैं
बाबा साहब की फोटो हम छाती से चिपकाये हैं

उनकी एक बात मत भूल जाना
पे बैक टू सोसायटी से अपना फर्ज निभाना
अमीरों के भारत को गरीबों का भारत बनाना
अपना फर्ज निभाना !!!!

बैलों जैसी मार  
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झेली नंगी पीठ पर
बैलों जैसी मार
नधे रहे ताजिंदगी
अपने मन को मार
खेत नहीं, खलिहान नहीं
दालान नहीं, अरघान नहीं
तोला भर बलिदान हुए तो
उसपर अपना नाम नहीं
धनिया की पाती चाही
होने लगी जुटान
ठाकुर ने ठगहारी मारी
निर्धन हुए जबान  
बभनौटी मौसम में 
ऐसे कैसे निभ पाएगी
क्षीण हुई कटि, सिर भारी है 
पीठ दरद से चिल्लाएगी
नकली साँसे लेकर हम भी
रहते हैं हैरान
हम ही मारे गए विरादर
जायेगी अब जान 
अंधियारे मौसम की थाती
पीठ हमारी सहलाएगी
याद मार की रह जायेगी
झेली नंगी पीठ......
बैलों जैसी मार

दलितों के गाँव से
..........................

इस परिदृश्य में कहीं नहीं हूँ मैं
एक खालीपन है
उजास की आशा लिए
झीलों, दर्रों, समुद्रों को पार करता हुआ
अभी तो पहुंचा हूँ
तुम्हारे दर पर
अभी कदम ही रुके हैं
साँसों का चलना
शुरू ही हुआ है
पहुंचते ही कह देना चाहता हूँ
मुझे कन्धों की विडम्बनाओं से मुक्त कर दो
जहाँ जाता हूँ कोई कंधा आगे कर देता है
हम कब से लंगड़े हैं
कोई संवेदना जगाता है
आसूं कहाँ से लाऊं
परिदृश्य में कहीं नहीं हूँ मैं 
थक हारकर आया हूँ
अब लौटना नहीं चाहता
चाहता हूँ तुम्हारा प्रेम बंटे न
गाँव तुम्हारा है, तुम गाँव के हो
पर यह गाँव हमारा भी बन जाए
जमीन हमारी भी हो जाए
खेत और पेड़ भी आयें हमारे हिस्से
अभी तो परिदृश्य में कहीं नहीं हैं हम




कचहरी
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मार खा लेना
चमड़ी उतरवा लेना
जरूरत पड़े तो रो गा लेना  
उससे भी न चले काम
दुःख देने लगे दुःख का नाम
साहेब की धूल को माथे पर चढ़ा लेना
मैडम की चरण-धूलि आँखों पर उठा लेना
कर लेना आत्महत्या
चले जाना हरिद्वार 
पर बेटे,
कभी कचहरी न जाना
मत ही जाना
बाप-दादा की परम्परा पर दाग मत लगाना
कचहरी हमारी न हुई
तुम्हारी क्या होगी
मालिक की बैठक से प्यारी क्या होगी
हम लुटे हैं, हम वहां भी लूटे जायेंगे
जो हमें सम्मान दे न सके
वे क्या न्याय दे पायेंगे
बेटा इक्कीसवीं सदी का मी लार्ड भी
मनुवाद का मारा है
मान ले बेटे
वह भी गंवार संस्कारी लोगों का राजदुलारा है
बेटा आग न मिले आग ले जाना
बेटा कभी कचहरी मत जाना   
कभी मत जाना


यह दीवार मेरी है
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ईंट की न सही
घास-पूस की सही
पर यह दीवार मेरी है
क्या कर रहे हो भाई
मेरी दीवार पर पेशाब करना मना है
उस बार आप खखार कर चुप हुए
इस बार आप थूक चुके हो
आपका लार दीवारों पर ताजा है 
समझा चुका हूँ आपको
शरीफजादों वाली ये हरकतें हमें पसंद नहीं
वे दिन अलग थे
हम चुप रह जाते हैं
हमारी तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं 
पर हम आपका हगना-मूतना समझ चुके हैं 
हम चुप नहीं रहेंगे
यह हमारी नियति नहीं 
कच्ची सही यह दीवार हमारी है
हमारी अस्मिता को छेड़कर
कौन नहीं हुआ जमींदोज
पर हमारी दीवार अभी बची हुई है 
हम भी बचे हुए हैं
केवल सुन्दर दिखने से कुछ नहीं होता
दीवारें सुंदर और मजबूत होनी चाहिए
बंद कीजिये अपना व्यापार
मनुष्य को मनुष्य और
दीवार को दीवार समझिये साहब  
समझिये साहब !!!!


हँस मत पगली
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अच्छे-अच्छे लोगों में
लोग बुरे मिल जायेंगे
इतना तो मत हँस पगली
लोग मजाक उड़ायेंगे

लोग कहेंगे कहवा-काफी
लोग कहेंगे घर की चाभी
लोग कहेंगे ऊसर-बांगर
कुछ बोलेंगे भाभी-वाभी

लोग मिज़ाज मिलायेंगे
इतना तो मत हँस पगली
पगले पागल हो जायेंगे

लोग कहेंगे पढ़ना छोड़
मेरे घर का विस्तर ओढ़
लोग कहेंगे आटा-दाल
चलते-फिरते कर दे निहाल

हँस मत पगली !!!
हँसने की पैमाइश बाकी है
होंठ हिला बस
हँसने की जस ख्वाइस बाकी है

हँस पगली!!
मत हँस पगली !!!  




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