सोमवार, 4 जून 2018

बिहार के शीर्ष दलित कवि : अजय यतीश





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07 अजय यतीश :
जन्म- 21 जून, 1959, ग्राम मदनपुर, औरंगाबाद, बिहार
शिक्षा- मैट्रिक, परिधापक (ड्रेसर)
प्रकाशन- चार दर्जन से अधिक कविताएँ, कहानियां आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
विशेष- किंकर हिंदी नाट्यकला मंच, देव, औरंगाबाद से अभिनय के लिए सम्मान प्राप्त, शौकिया बांसुरीवादन
संपर्क- पो. ढोरी डिस्पेंसरी(फुसरो), बोकारो (झारखण्ड)-825102, मोबाइल 9431323660

1. हाशिये पर खड़ा आदमी

आप तो थे अनपढ़
जी रहे थे ग़ुरबत की जिन्दगी
इतिहास कथाओं से थे अनजान
नहीं थी लिप्सा शोहरत की
भले ही यह बहाना था
पत्नी प्रेम का
लेकिन आप तो
बन गए प्रतीक पुरुष
बन गए मिशाल
दुनिया के सामने
यह अलग बात है
कि आपके जज्बे को कुछ लोग
जोड़ते हैं सिरी-फरहाद से
तो भी क्या बुरा है
कि आपने सारी दुनिया को
बताया कि हाशिये पर
खड़ा आदमी भी
दे सकता है दुनिया को मिशाल
पौरुषत्व का, इंसानी जज्बे का
और नैसर्गिक प्रेम का
इसीलिए तो दुनिया ने कहा आपको
माउन्टेन कटर
आप में कैसी थी
जज्बात की आंधी
दशरथ मांझी !



2. मध्य बिहार

हवा में उछलती मुट्ठियां
फिजा में गूंजती चीखें
गले में गोलियों का हार
यह है मध्य बिहार

ऐंठती अंतड़ियां
जलती झोपड़ियां
अबलाओं की चीत्कार
यह है मध्य बिहार

लाशों से पटे खेत
थरथराती कांपती रातें
जगह-जगह गोहार
यह मध्य बिहार!



3. झज्जर काण्ड

गगनभेदी नारों के बीच
चीखे लगी थी दबने
होने लगी थी गुम
नारे बाजी की भीड़
टूट पड़ी थी उन पर
काल के किसी पहाड़ की तरह
फिर उन पथराई आंखों में
खोजे जाने लगी थी धर्मान्तरित होने की तस्वीरें
आशान्वित हुई थी भीड़
चूँकि उनके अनुसार मिल चुके थे
पुख्ता सबूत
बाद इसके खून से सने हाथों को
किया जाने लगा था साफ
बड़े इत्मीनान से
खास रंग के रुमालों से


4. जारी रहेगी जंग उनकी

जिंदगी और मौत के बीच
उनके हारने तक उनके जीतने तक
क्यों भूख ही उनका मुद्दा है
और मौत ही उनकी मंजिल



5. वे जमींदोज हो गए

अंधेरी सुरंगों में
दूर झाड़ियों के पीछे से
कुछ पनीली आंखें
देख रही हैं उन्हें टकटकी लगाए चुपके से
खींच ले जाना चाहते हैं
उन लाशों को
जो उनके जिगर के टुकड़े थे कभी
कानून की नजरों से बचाकर
सुपुर्द--खाक करना है उन्हें
सिसकियों को करते हुए जज्ब

6. दामोदर नदी

दामोदर तुम
उदास क्यों हो ?
तुम्हारे जलकण और मांदर की थाप से
निकलती सुरीली धुनें
कभी मधुर संगीत बुना करती थी
और यहां के हरे भरे जंगलों में
सुगंध बिखराया करते थे तुम
ना जाने कितनी सभ्यता और संस्कृतियों को
तुमने जन्म दिया
कहां लुप्त हो गई अब वो
तुम्हारी तलहटियों में
झूमने और नाचने की कलाएं
कौन पी गया आकर
पुटुस उसकी झाड़ियां और पलाश के पत्तों पर
बिखरती शांति की बूंदें
महुवे की गंध से
धमधमाता वह
अब वह कौन भर गया
बारूदी गंध और फिजा में जहरीली हवायें



7. पेंग्विन

सर्द घने कोहरे को
चीरकर नीला आसमान
तुम्हें चूमने को चाहता है
शांत अंटार्कटिका समूह गान पर
मंद-मंद मुस्कराता है
धुंध की बाहों में लिपटाए
बचाए रखा है तुम्हें
दुनिया की नजरों से
अब तक
पर कुछ वहशी आंखें
जम चुकी हैं तुम पर
रहना सतर्क
प्रिय एडमिन!
मेरी तरह
कहीं हो जाओ,
तुम भी उन के पंजों में कैद
आजीवन तड़पते रहने के लिए



8. मजहब

पूछा गया था उससे उसका नाम
जवाब में उसके होंठ फड़फड़ाये थे,
पर आवाज उसके गले में ही
चिपक कर रह गई थी कहीं
तभी भीड़ को चीरता
एक खंजर
उसके सीने में उतर आया
इस तरह हुआ
एक देह
एक नाम
एक जात
एक मजहब अंत


9. भोर

वे दौड़ रहे हैं
हरी-नरम घासों पर
अपनी आंखें की रोशनी
कुछ और बनाने के लिए
सड़कों पर कर रहे हैं
मॉर्निंग वाक सेहत की खातिर
वह भी दौड़ रहा है हांफते-कराहते
ठेले को बीमार
बाजुओं से ठेलते-ढकेलते
लेकिन वह क्यों
दौड़ रहा है?
जा रहा है कहां?
भोर देखती है सब कुछ
और सिसक कर रह जाती है
फिर हो जाती है खामोश


10. उद्घोष

उफ यह भयानक उद्घोष
फिर गूंजा है आज
उड़ गए हैं
गुंबदों पर बैठे परिंदे
शहर हो गया है अचानक उदास
सड़कों पर बढ़ते कदम रुक गए हैं
जम गए हैं अचानक
ना जाने क्या होगा
अगले ही पल कैसा होगा

उफ यह कैसा उद्घोष?


प्रस्तुति : कर्मानंद आर्य 

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