शनिवार, 19 मई 2018

जब-जब लोहिया बोलता है / डॉ. कर्मानंद आर्य



‘सारा देश टूटा हुआ है. देश की आत्मा टूट गई है. मैं जानना चाहता हूँ कि क्या इतिहास में कोई और भी देश ऐसा रहा है जो इतना टूटा है जितना हिन्दुस्तान?’
-    राममनोहर लोहिया

डॉ. राममनोहर लोहिया भारतीय राजनीति के ऐसा पुरोधा थे जिन्होंने महज कुछ सालों में ही भारतीय राजनीति और समाज को झकझोर कर रख दिया था. अपने समय के दिग्गजों पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक से उन्होंने जिस तरह के तीखे सवाल पूछे वह भारतीय राजनीति की उनकी जिजीविषा को दर्शाता है. उन्होंने तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस को उखाड़ फेकने का उद्बोधन देते हुए युवाओं से कहा था कि जिन्दा कौमें पांच साल तक इन्तजार नहीं करती. उत्तर भारत में आज भी आप राजनीतिक रुझान रखने वाले किसी युवा से बात करें तो वो इस नारे का जिक्र ज़रूर करेगा- 'जब जब लोहिया बोलता है, दिल्ली का तख़्ता डोलता है.
डॉ. राममनोहर लोहिया ने बिहार की राजनीति को बहुत गहरे रूप में प्रभावित किया था. जयप्रकाश नारायण और लोहिया ही ऐसे व्यक्तित्व थे जिनसे प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मीरा कुमार आदि की राजनीति पर गहरा प्रभाव था. उत्तरप्रदेश की समाजवादी राजनीति में मुलायमसिंह यादव लोहिया को अपना आदर्श घोषित करते हैं. लोहिया जनसामान्य के नेता ही नहीं जननायक थे. उन्होंने ही श्री मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन की शुरुआत कराई थी. सच कहें तो वे भारतीय दलितों और पिछड़े हुए लोगों के नेता थे. वे दलितों और पिछड़ों की भागीदारी के लिए संघर्ष करते हुए अक्सर कहते थे कि योग्यता न होने पर ऐसे वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए. प्रतिनिधत्व से उनमें योग्यता आ जायेगी. कुछ विवादों को छोड़ दें तो बिहार में लोहिया की विरासत को लालूप्रसाद यादव ने संभाला.
मार्क्सवाद और समाजवाद के बीच की एक मुकम्मल कड़ी थे लोहिया. वे महान व्यक्तित्व का विराट ह्रदय लेकर पैदा हुआ थे. जेल की सलाखों ने उनके जीवन की रही सही कमी को भी पूरा कर दिया था. यातना के दिनों में निर्माण की जो भावभूमि उनके भीतर पनपी थी वह सीलन भरी कोठरियों में कभी नहीं खत्म हो पायी. कष्टों ने उनकी इच्छाओं को और बलवती ही किया. अपनी निजी स्वार्थों को तिलांजली देते हुए आजीवन उन्होंने कोई वैचारिक समझौता नहीं किया. उपनिवेशी शासन से तो वे लगातार लड़ते रहे पर राजनीतिक आजादी के बाद भी उनकी लड़ाई सत्ता से कभी कम नहीं हुई. वे आजाद भारत में भी लगातार संघर्ष करते रहे. उन्हें उन्हीं दरों की बार-बार सांकल बजानी पड़ी जिसे वे अपनी हदों तक नापसंद करते रहे. आम आदमी के जुड़े हुए सरोकारों के लिए न जाने कितनी बार झेलों की मर्मान्तक पीड़ा और वेदना में डूबते उतराते रहे. गांधी, आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण आदि का घालमेल से एक व्यक्तिव जो उभरता है वह है लोहिया.  
लोहिया वैचारिक रूप से न मार्क्सवादी थे और न ही मार्क्सविरोधी. इसी तरह से वे न गांधीवादी थे और न ही गांधी से अलग होकर कुछ सोच पाए. उनका जन्म उपनिवेश की जमीन पर हुआ था और मार्क्स जिस पृष्ठभूमि से आते थे वह शोषकों की जमात थी पर लोहिया उनसे विमुख भी नहीं हो पाए. मार्क्स का सारा दर्शन मूल्य, शोषण, लाभ, अतिरिक्त मूल्य, उत्पादन और उत्पादन की शक्तियों को एक ख़ास भौतिकवादी दर्शन के आधार पर देखने का था पर लोहिया जानते थे कि मार्क्स की सर्वांग दृष्टि को भारतीय समुदायों पर लागू नहीं किया जा सकता. कल मार्क्स ने जिस भौतिकवादी दृष्टि से इतिहास की व्याख्या की है उस दृष्टि को लोहिया अधूरी और अपूर्ण मानते थे.

मार्क्स व डॉ. लोहिया में अंतर यह है कि जहाँ मार्क्स वर्ग संघर्ष के आधार को अंतिम सत्य मान लेता है वहीं डॉ. लोहिया वर्ग संघर्ष के आधार पर जाति, भाषा, संपत्ति आदि की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं. जाति और धर्म के अंतर पर डॉ. लोहिया ने बहुत गंभीरता से विचार किया है. उन्होंने ‘इतिहास चक्र’ में स्पष्ट किया है कि कैसे जाति का रूपांतरण वर्ग और वर्ग का रूपांतरण जाति में होता है. केवल समाज के भीतर ही वर्ग संघर्ष सीमित नहीं है यह दो समाजों दो राष्ट्रों के बीच भी काम करता है. डॉ. लोहिया मानते हैं कि मार्क्स ने अर्थ को प्रधानता देकर इतिहास और मनुष्य की जो व्याख्या की है वह एकांगी है. आर्थिक तुष्टि सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक आकांक्षाओं की प्रतिपूर्ति नहीं कर सकता. इसीलिए भारतीय समाज को वे गांधीवादी नजरिये से देखने के पक्षधर दिखाई देते हैं.
       डॉ. लोहिया विज्ञानवादी थे. धर्म का सम्बन्ध ईश्वर, पूजा पाठ, नैतिकता, आस्था, विश्वास आदि के साथ होता है. लोहिया यद्यपि नास्तिक थे, ईश्वरवादी नहीं थे, मंदिर में उनकी आस्था नहीं थी पर वे आस्तिकों से कहीं अधिक श्रेष्ठ थे. हालाँकि पौराणिक मिथकों से वे कई बार प्रेरित भी होते थे. वे धर्म-कर्म से बहुत ऊपर थे पर मार्क्स की तरह वे धर्म को अफीम नहीं मानते थे. वे जानते थे कि राम की अयोध्या सरयू के किनारे थी. कुरु, मौर्य और गुप साम्राज्य गंगा के किनारे पनपे तथा मुग़ल व सौरसेनी नगर व राजधानियां यमुना के किनारे बसीं.
              (ओंकार शरद, लोहिया के विचार, पेज संख्या 244)
डॉ. लोहिया ने कहा था – लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरे मरने के बाद, लेकिन किसी दिन सुनेंगे जरुर. आज नए नेतृत्व और लोगों में नई खूबियों की जरुरत है. बहुत आराधना हो चुकी, फूल चढ़ाना उर यशोगान भी हो चुका........नेता रहेंगे, अनेक नेता रहेंगे, एक नेतृत्व भी रहेगा. वह असली नेता लोगों पर अधिक जादू कर सकेगा.....लेकिन नया नेतृत्व और नए लोग राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर के नहीं, गाँव के स्तर के होंगे- राममनोहर लोहिया. लोहिया कहते थे कि एक ऐसी दुनिया की संकल्पना हमारा उद्देश्य है जहाँ कोई दासता न हो, कोई जातिवाद न हो और अनावाश्यक भेदभाव न हो. समाज की विषमता और गैर बराबरी ख़त्म हो जाए. समाज में नैतिक व्यवस्था का पालन हो, संवैधानिक उपायों को अपनाया जाय, राजनीतिक जनतंत्र की जगह सामाजिक जनतंत्र की बात हो.
डॉ. लोहिया ने एक बात बार-बार कही कि वह केवल एक ही व्यक्ति से प्रभावित रहे और वह व्यक्तित्व गांधी हैं. आधा आदमी जिससे वे प्रभावित हुए वे थे नेहरु, वह नेहरु जिसे वे आजादी के पहले कर्मठ रूप में जानते थे. गांधी के प्रति लोहिया का आकर्षण स्वाभाविक था क्योंकि गांधीजी केवल जीवन के व्याख्याता नहीं थे वे दर्शन के साथ कर को जोड़कर भी देखते थे. स्पष्ट है गांधी का दर्शन केवल किताबी नहीं था. वह कर्म से निसृत था और कर्मशील होने की प्रेरणा देता था. कर्म प्रधान होने के नाते वह मूलतः आचरण की कसौटी पर किसी भी सिद्धांत की परख करता था. दोनों सामाजिक ढाँचे में बनिया वर्ग से आते थे, विदेश में शिक्षित थे, दोनों ने साथ मिलकर आजादी के लिए संघर्ष किया था पर वे गांधी से जितने पास थे उतने ही दूर भी थे. दोनों के विचार और मौलिक चिंतन में काफी फर्क भी है. भाषा के मामले में दोनों का चिंतन समान था. वे गांधी जी कि तरह ही हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान करना चाहते थे. उन्होंने कहा था अंग्रेजी डेढ़ मिनट में नहीं, बल्कि एक सेकेण्ड में जायेगी. झटके में ये सब चीजे हुआ करती हैं, धीरे-धीरे नहीं हुआ करती. (लोहिया : एक प्रमाणिक जीवनी, ओंकार शरद, पेज 160)
गांधी जी वर्ण व्यवस्था को प्राकृतिक व्यवस्था मानते थे अतः वे इसे स्वीकार करते थे लेकिन जातिवाद का समर्थन नहीं करते थे. जबकि डॉ. लोहिया वर्ण और जाति प्रथा दोनों को अस्वीकार करते थे. वे वर्ण और जाति को एक मानकर चलते थे. डॉ.लोहिया मानते थे कि वर्ण और वर्ग का एक साथ खात्मा होना चाहिए तभी मनुष्य की मुक्ति है. वे जानते थे कि अस्पृश्यता सामाजिक विषमता का मूल कारण है. लोहिया कानून द्वारा इस महापाप और अन्याय को दूर करने की हिमायत आजीवन करते रहे. वे पूंजी के वितरण को लेकर डॉ. आंबेडकर के पास अधिक दिखाई देते हैं. सामाजिक न्याय की दृष्टि में गांधी के विचार लोहिया के विचारों से बहुत पीछे रह जाते हैं. डॉ. लोहिया दलितों और पिछड़ों की कम से कम साठ फीसदी भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं. डॉ. आंबेडकर, डॉ. लोहिया और गांधी सामाजिक धरातल पर एक जगह काम कर रहे थे पर तीनों की वैचारिकता में अपना मेटाफर यूज करते हैं. डॉ. आंबेडकर का जीवनदर्शन जिसका अन्वेषण जीते-जागते समाज में शोषण व उत्पीड़न के मध्य स्थित उस आदमी के लिए किया गया है जो स्वयं चैतन्य नहीं है पर लोहिया का जीवन धरातल कहीं और व्यापक मनुष्यता के लिए है. हालाँकि दोनों का सामाजिक दर्शन यथार्थवादी और पूर्ण मानवतावादी है. व्यावहारिक और लौकिक है. दोनों इस सिद्धांत पर कायम हैं कि मनुष्य को न्याय, स्वतंत्रता, समता और भ्रातित्व के लिए संघर्ष की जरूरत है.
       डॉ. लोहिया प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के अंतर्गत मजबूत आर्थिक ढांचा चाहते थे. उसके लिए उन्होंने विकेंद्रीकरण की नीति को प्रोत्साहन दिया. वे चाहते थे कि उत्पादन के साधनों और स्रोतों पर वितरण के माध्यमों  और साधनों पर बुनियादी इकाइयों का स्वामित्व और अधिकार बना रहे. वे गांवों की पारंपरिक संरचना में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के हिमायती थे. वे गांवों में छोटी मशीनों के लगाये जाने के हिमायती तो थे ही. डॉ. लोहिया मानते थे कि जाति व्यवस्था में आर्थिक सामाजिक ढांचा पर विजयी वर्ग ने पराजित वर्ग को नष्ट करके उनके अधिकारों को सीमित कर दिया है. विजयी वर्ग आमदनी पर अपना नियंत्रण साधे हुए है. इसीलिए वे चाहते हैं कि पूंजी के विकेंद्रीकरण के बिना इस भारत भूभाग का भला नहीं हो सकता है. उन्होंने अपने समय में शासक वर्ग, मध्यवर्ग और सर्वहारा वर्ग की जो परिभाषा हमारे सामने प्रस्तुत की है वह हमारे मनुष्य के हमेशा पठनीय रहेगा. डॉ. लोहिया जाति को संगठित धूर्तों का गिरोह मानते थे. उन्होंने अपने समय में सामूहिक सहभोज और अंतरजातीय विवाह आदि को काफी बढ़ावा दिया. डॉ. लोहिया ने वास्तव में एक ऐसे आर्थिक, सामाजिक पर्यावरण के निर्माण की बात की है जिसमें समाज के विशेषाधिकार प्राप्त एवं शोषित वर्ग का अंत संभव है. उनका मानना है कि इससे वर्गभेद की दीवार समाप्त हो सकती है, जातिवाद जर्जर हो सकता है और भूमिहीनों को भूमि प्राप्त हो सकती है जिससे गरीबों की हीनभावना कम होगी. आय पर नियंत्रण से संपत्ति का बड़ा भाग गरीबों और पिछड़े लोगों तक आएगा ऐसा उनका मानना था. वे आजीवन गरीबी, भुखमरी और असमानता के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते रहे. इसीलिए डॉ. लोहिया ने राज्य समाजवाद की अवधारणा पर बल दिया.  
भारतीय समाज की कुरीतियों के बारे में बात करते हुए डॉ. लोहिया हमेशा खीझ, गुस्से और दुःख से भर जाते थे. दर्शन, कला, चिंतन, उदारता, आस्था आदि में श्रेष्ठ होते हुए भी भारतीय समाज की दुर्दशा वे भारतीय समाज की कृत्रिमता को मानते थे. वे मानते थे कि भारतीय समाज में सब कुछ है पर कुछ विघटित ही नहीं सब असंगठित भी है. धर्म की उंचाई इतनी है जिसकी कोई थाह नहीं, कर्म की ढिलाई भी इतनी है कि जिसके बारे में कुछ कहा भी न जाए, वैचारिक उंचाई के बावजूद वह लक्ष्यभेद नहीं कर पाता. इसीलिए डॉ. लोहिया ने वर्णव्यवस्था पर करार चोट किया. वे ‘’अस्थिर वर्ण को वर्ग’’ कहते थे. वे मानते थे कि हर सभ्यता और समाज में वर्ग वर्ण में और वर्ण वर्ग में बदलते हैं. यही कारण था कि डॉ. लोहिया ने देश में सर्वोच्च पद पर बैठे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा वाराणसी में 200 ब्राह्मणों के पाँव ढोने की घटना की खुले शब्दों में निंदा की थी. और इसे वर्ण व्यवस्था की कुरीति को कायम करने वाला कृत्य बताया था.
       डॉ. लोहिया का स्त्रियों के लिए योगदान भी कम चिंतन पूर्ण नहीं था. उनकी सात क्रांतियों में से क्रांति नर-नारी में समता स्थापित करना था. डॉ. लोहिया का मानना था कि भारत में चातुर्वर्ण ही नहीं, वरन एक पांचवां वर्ण नारी का भी है जो हजारो वर्षों से शोषित और उत्पीड़ित होती रही है. ‘मार्क्स गांधी एण्ड सोसियलिज्म’ नामक ग्रन्थ में डॉ. लोहिया ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि ‘संसार में जितने भी प्रकार के अन्याय इस पृथ्वी को विषाक्त कर रहे हैं, उसमें सबसे बड़ा अन्याय नर और नारी के भेद का है. संसार की विशाल मानवता किसी न किसी रूप में नारी स्वतंत्रता में बाधक रही है. इसीलिए डॉ. लोहिया ने नारी भेद और जाति भेद को सबसे ज्यादा खतरनाक बताया. डॉ. लोहिया के शब्दों में –
       ‘समाजवादी आन्दोलन में यदि स्त्रियाँ भाग नहीं लेती है, या उनको भाग लेने का अवसर नहीं दिया जाता है, तो यह सारा आन्दोलन बिना वधू के विवाह-उत्सव जैसा लगेगा’
                           (गांधी, मार्क्स एण्ड सोशलिज्म, पेज संख्या 350)
डॉ. लोहिया में जन्म से ही दीन-दुखियों, दलितों, पीड़ितों, अपाहिजों आदि के प्रति करुणा संकुल सहानुभूति थी. ‘इतिहास-चक्र’ उनके अभिनव चिंतन का प्रमाण है. वे स्वतंत्रता, समानता और एकता की त्रिशक्ति के समन्वय के पक्षधर थे. पद-दलित वर्ग तथा निम्न जातियों के प्रति डॉ. लोहिया में एक जबरदस्त क्रांतिकारी पीड़ा थी. वे उनमें ‘अधिकार बोध’ जगाना चाहते थे. वे उनका स्वाभिमान उन्हें फिर लौटाना चाहते थे. उनका तर्क था कि उनके लिए फिलहाल कर्तव्य की बात गौण है. वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करें, उसी से उनका पिछड़ापन दूर होगा और वे इसी से सुसंस्कृत होंगे. वे अपने अधिकारों का प्रयोग करना जाने. न केवल वे उच्च पदों पर आसीन हो जायें, बल्कि पदाधिकार का बोध उनमें स्वाभिमान की चेतना को जगा सके, यह निहायत जरुरी है.


डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी

दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यलय, गया बिहार 

(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की पत्रिका साक्ष्य में प्रकाशित)

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