डॉ. आंबेडकर भारतीय इतिहास के उन कुछ विशिष्ट नायकों में शामिल हैं
जिनके विचार, दर्शन और कर्म का बहुजन समुदाय पर व्यापक असर पडा है. दलित/ आदिवासी
जो भारतीय जनसँख्या का लगभग एक चौथाई हैं आंबेडकर को महामानव की तरह से देखती है.
अपने नायक के सम्मान का कारण है कि डॉ. आंबेडकर ने उनके जीवन को आखिर बदल कर रख
दिया. ‘शिक्षित बनों, संगठित रहो, और संघर्ष करो’ जैसे बीज वाक्य ने दलितों
वंचितों के विकास काका रास्ता खोलकर रख दिया. मीडिया के द्वारा किये गए राष्ट्रीय
सर्वेषण में डॉ. आंबेडकर ने महात्मा गांधी के बाद दूसरा सबसे बड़ा स्थान पाया.
मशहूर अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ. अमरत्यसेन ने तो आंबेडकर को
अपने अर्थशास्त्र का पिता तक कहना शुरू कर दिया. वहीं २००४ में अमेरिका की
कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने डॉ. आंबेडकर को दुनिया का महानतम व्यक्तित्व घोषित किया.
अगर विमर्श के इस युग में डॉ. आंबेडकर की बात करें तो एक चौकाने वाला तथ्य हमारे
सामने आता है कि इन दिनों सबसे अधिक शोध पत्र/ आलेख/ शोधलेख आदि डॉ. आंबेडकर को
केन्द्रित करके लिखे जा रहे हैं.
भारतीय समाज की विडंबना को कौन नहीं जानता? शोषण, दमन, अत्याचार,
अनाचार से जूझकर जब एक दलित, आदिवासी, पिछड़े समुदाय से आने वाला व्यक्ति जीवन की
जीवन्तता में आता है तब भी परेशानियाँ उसका साथ नहीं छोडती हैं. जन्म से लेकर
मृत्यु तक एक कलंक उसके माथे पर चिपका रहता है. कई बार तो यह कलंक उसकी मृत्यु के
बाद तक श्मशान या कब्र तक उसका पीछा नहीं छोड़ता है. वह तमाम संसाधनों के बाद भी
अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर रहता है. क्या वह इस अभिशप्तता का वरण खुद करता है या
उसे यह सब विरासत में अनायास प्राप्त हो जाया करता है? सदियों से जाति संस्कृति, अंधविश्वास,
शोषण के हाथों पिसते हुए उसे हर दोराहे पर चुनौतियों से सामना करना पड़ता है. बेशक
उनके लिए कोई टिकाऊ आन्दोलन न हुए हों पर विचारधारा के रूप में शोषण और दमन की
चीड़फाड़ लगातार होती रही है. प्रतिरोध की आवाज के कारण लाखों लोगों को जिन्दा जला
दिया गया है, लाखों लोगों को पशुवत क्रूरता का सामना करना पड़ा है, लाखो लोगों को
अपना घर-परिवार छोड़कर निर्वासन में जिन्दगी जीने को मजबूर होना पड़ा है तब भी आवाज
कहीं मंद या क्षीण नहीं पड़ी. जैसे-जैसे शोषण और दमन चला, आवाजें और बुलंद हुई.
हिन्दू धार्मिक संस्थाओं द्वारा दलित बहुजन जातियों के ऊपर आध्यात्मिक, आर्थिक और
शैक्षिक वंचना का परिणाम यह हुआ कि दलित बहुजन जातियां गोलबंद हुई और अपने शोषण और
दमन के खिलाफ एक मुखर आवाज से वाकिफ हुई. अब स्थितियां काफी बदल चुकी हैं पर यह
बदलाव ढ़ाक के तीन पात जैसा ही है.
दलित-बहुजन चिन्तक और प्रसिद्ध समाज विज्ञानी प्रो. कांचा इलैया की अभी
हाल ही में ‘सेज’ अन्तराष्ट्रीय प्रकाशन से एक महत्वपूर्ण किताब छपकर आयी है- नाम
है ‘हिंदुत्व-मुक्त भारत’. कांचा पिछले कई वर्षों से सामाजिक कार्यकर्त्ता और
प्रोफेसर की हैसियत से दलितों-वंचितों के जीवन का अध्ययन करते रहे हैं और स्वयं
इन्हीं समुदायों से सम्बंधित हैं. अभी फिलहाल उन्हें जेल में डाल दिया गया है.
उनके ऊपर अघोषित कर्फ्यू लगा हुआ है. अगर हम कारणों की पहचान करें तो पायेंगे कि
उनका पीछा लगतार कुछ मानसिक विकलांगता से ग्रसित लोग कर रहे हैं जिनका देश की
आर्थिक संसाधनों पर 90 प्रतिशत से अधिक का कब्ज़ा है और सामाजिक रूप से जाति का
हथियार उनके हाथ में है. दलितों-बहुजनों के उभार से उनमें एक अजीब खलबली मच चुकी
है और वे लगातर शोषण और दमन को हत्या से सुलझाने के लिए प्रयासरत हैं. कांचा ने
आशंका व्यक्त की है कि इस कारण से संभव है उनकी हत्या कर दी जाय. कांचा इलैया कोई
अकेले व्यक्ति नहीं है अपितु कई दलित-बहुजन चिंतकों को इसी तरह से लगातर परेशान
किया जा रहा है.
‘आत्मघात की राह पर हिंदुत्व’ नामक अपनी भूमिका में कांचा लिखते हैं
कि भारतीय राष्ट-राज्य गृहयुद्ध की तरफ जा रहा है जो हिंदुत्व द्वारा पाले-पोसे
जाति आधारित संस्कृति के भीतर, एक भावधारा के रूप में सदियों से सीझता रहा है. अब
आकर हिन्दू सांस्कृतिक व्यवस्था अपने आत्मघाती अंतर्विरोधों को धीरे-धीरे उद्घाटित
कर रही है जिससे जाति आधारित समाज के हर स्तर पर तनाव पैदा हो रहे हैं. वे लिखते
हैं कि हिंदुत्व ने जहाँ उत्पादन और विज्ञान विरोधी नैतिकता को अपनाया वहीं बहुजन
समाज ने वैज्ञानिक, तकनीकि और उत्पादक ज्ञान तंत्र का मार्ग चुना जिसे दलित-बहुजन
लम्बे समय से आगे बढ़ाते और पालते पोसते रहे हैं. एक तरफ ऐतिहासिक रूप से वंचित
जातियों और समुदायों की अध्यात्मिक और राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं उभार पर हैं जो
उन्हें ज्यादा लोकतान्त्रिक धर्मों, जैसे कि ईसाइयत, बौद्ध और इस्लाम की तरफ ले जा
रही है. और अंत में वे लिखते हैं कि हिन्दू धर्म जो दुनिया के प्रमुख धर्मों में
से एक है अपनी जातिवादी कमियों के कारण लगातर अंत की राह पर है.
भूमिका
में ही कांचा इलैया लिखते हैं कि दुनिया के चार बड़े धर्मों में हिन्दू धर्म सबसे
छोटा है और सबसे गरीब भी, जिसके पास रूपान्तरकारी शक्ति का कोई आध्यात्मिक आधार
नहीं है. वे तमाम व्याख्याएं जो अपने आप को आधुनिक बनाती हैं और हिन्दू धर्म को
महान धर्म घोषित करती हैं, दरसल इसने अल्प विकसित मष्तिष्क का ही ढिंढोरा पीटती
है. आदि शंकराचार्य से लेकर सर्वपल्ली राधाकृष्णन तक हिंदुत्व के सभी व्याख्याकार
ब्राह्मणवादी रुढ़िवादी और जाति संस्कृति की नकारात्मकता के समर्थक रहे हैं. उनके
लिए नकारवाद ही धर्म है. उन्हें कभी यहं नहीं सुझा कि देश में जाति और छुआछूत के
अस्तित्व जिसकी रचना भी इनके धर्म द्वारा की गई थी, उसका दुनिया के सकारात्मक
धर्मों से आध्यात्मिक न्याय का कुछ लेना देना नहीं है. इस धर्म की अपेक्षा गरीबों
के लिए अन्य धर्म अधिक सहिष्णु दिखाई देते हैं. ईसाइयत, बौद्ध और इस्लाम इसके
ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने हैं.
भारत
के इतिहास में बुद्ध के बाद एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना घटित हुई जब बी.आर. आंबेडकर
ने सं 1956 ई. में नवयान बौद्धधर्म की स्थापना की. अफगानिस्तान, पाकिस्तान और
बांग्लादेश के इस्लामीकरण के बाद, केरे के ईसाईकरण और आंबेडकर के बौद्ध हो जाने के
बाद भी, जो बड़ी संख्या अभी हिन्दू धर्म के चंगुल में फँसी हुई थी वह शूद्रों और
अन्य पिछड़े तबकों की थी. वे पिछड़े हुए थे क्योंकि वे किसी और लोकतांत्रिक धर्म के
साथ नहीं गए. जब दुनिया भूमंडलीकरण की तरफ बढ़ रही थी तब भारत का दलित-बहुजन समाज
धार्मिक प्रतियोगिता के एक चौराहे पर खड़ा हुआ था. वह जाति के छोटे कुएं में मेढकों
की तरह था. डॉ. आंबेडकर की आधुनिकतावादी नवयान बौद्धधर्म की स्थापना के बाद वे
अस्पृश्यजन जिन्हें कांचा इलैया सबाल्टर्न वैज्ञानिक और उत्पादन के सैनिक कहते
हैं, आंबेडकर के रूप में बुद्ध के एक मुक्तिकारी अवतार के संपर्क में आये. जो
शूद्र पिछले तीन हजार वर्षों से हिंदुत्व की ब्राह्मणवादी आध्यात्मिक तानाशाही को
झेल रहे थे उन्हें अब थोड़ी राहत थी. आंबेडकर जिन्होंने मानव जीवन से छुआछूत के
कलंक को धोने का अथक प्रयास किया, धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से दुनिया के
मुक्तिकारी मसीहाओं की श्रेणी में शामिल होते जा रहे हैं. उन्होंने बिना कोई समझौता
किये भारत के पाखंडियों (ब्राह्मणवादियों) का मुकाबला अहिंसा के उसी हथियार से
किया जिसका प्रयोग ईसा ने किया था.
आंबेडकर
के नवयान बौद्धधर्म ने स्वयं बौद्ध धर्म के नए व्यवस्थाकार और हिन्दू जाति
व्यवस्था और स्वयं हिन्दू धर्म के विनाशक, दोनों की भूमिका निभाई. उन्होंने भारत
के दलितों को पहली बार तर्कशील होना सिखाया. उन्हें हिन्दू धर्म की कुटिलताओं से
परिचय कराया ताकि वे धीरे-धीरे हिन्दू धर्म की क्षुद्रताओं को पहचान सकें. डॉ.
आंबेडकर ने अंग्रेजी में लिखकर दलितों को यह सन्देश दिया कि मराठी या दूसरी भारतीय
भाषाओं में लिखकर से सम्पूर्ण दुनिया के साथ अपना संवाद नहीं कर पायेंगे. वे जानते
थे कि दलित भारत का उद्धार अंग्रेजी के द्वारा किया जा सकता है. धर्म विज्ञान का
वाहक भी हुआ करता है पर भारत के रुढ़िवादी समाज में हिन्दू धर्म के कारण कोई
वैज्ञानिक खोज नहीं कर पाए. हिन्दू आध्यात्मिकता ने लोगों को अंधविश्वासों से डरा
कर रखा हुआ है. इनके लगभग सभी धर्मग्रन्थ जैसे ऋग्वेद, रामायण, भगवद्गीता आदि में
किसी एक ऐसी किसी व्याख्या की गुंजाइश नहीं रखी गई है जो जाति व्यवस्था और
अंध-विश्वासों का सम्यक निराकरण कर सके. यह सच है कि विज्ञान विरोधी हिन्दू
व्यवस्था ही मुख्यतौर पर वैज्ञानिक विकास के रास्ते में जाति का अडंगा लगाने के
लिए जिम्मेदार है.
मुख्यधारा का हिन्दू दलितों के आगे बढ़ने से
किस कदर त्रस्त हो रखा है कि बाबा साहब आंबेडकर द्वारा बनाये गए दलित अत्याचार
निरोधक अधिनियम को निष्प्रभावी बनाने पर तुला हुआ है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई
उन दलीलों को कि अनुसूचित जातियों/ जनजातियों के लिए बनाये गए कानूनों का
दुरुप्रयोग हो रहा है इसके कारण उसपर बिना जांच के कार्यवाही न की जाय, समाज के
सवर्ण तबकों की अतिसक्रियता को दिखाता है. क्या भारत का सुप्रीमकोर्ट दहेजलोभियों
के लिए बनाये गए कानून के दुरुपयोग होने की स्थिति में ऐसे कानून को ख़ारिज करने की
बात करेगा. नहीं, शायद कभी नहीं. क्योंकि उस कानून से सवर्ण हितों को डायरेक्ट कोई
नुकशान नहीं हो रहा है. दलितों का आगे बढ़ना उन्हें किसी रूप में रास नहीं आ रहा
है. डॉ. आंबेडकर का मानना था कि राजनीतिक क्रांतियाँ हमेशा सामाजिक और धार्मिक
क्रांतियों के बाद हुई हैं. संभवतः इसी कारणउनका जोर सामाजिक सांस्कृतिक सुधार के
माध्यम से राजनीतिक क्रांति करना था जिसमें हिन्दू धर्म मुख्यतः बाधा बन रहा था. हिन्दू
धर्म की जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ डॉ. आंबेडकर महाड में एक व्यापक आन्दोलन चला
चुके थे. हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म था जो जानवरों को पानी पीने की हिमायत करता था
पर वहां कोई अछूत पानी पी ले तो सारा तालाब अशुद्ध हो जाता था. डॉ. आंबेडकर ने
मरते हुए इस हिन्दू धर्म की लाश को अंतिम तौर पर लात मारकर मानवतावादी बौद्धधर्म
को अपनाया. यह अपने समय की सबसे बड़ी
सम्पूर्ण क्रांति थी. मनुस्मृति दहन इसी हिन्दू धर्म के प्रतिकार का और बड़ा नमूना
था.
‘आंबेडकर
की घर वापसी’ नामक अपने आलेख में पंकज चौधरी (डॉ. आंबेडकर का इतिहास दर्शन, पृष्ठ
9) में लिखते हैं कि ‘ इतिहास गवाह है कि हिन्दू जाति व्यवस्था को चुनौती देने
वाली जितनी भी संस्थाएं बनी या उनके नायक उभरे हिन्दू जातिव्यवस्था के नियंताओं और
एजेंटों ने उसके अन्दर घुसकर उसकी जान ले ली या उनके वजूद को ही ख़त्म कर दिया. संघ
परिवार ने इसकी कोशिश शुरू कर दी है. आंबेडकर की तुलना वे इन दिनों डॉ, हेडगवार से
करने लगे हैं. हेडगेवार घोषित तौर पर मुस्लिम विरोधी थे जबकि आंबेडकर के ‘पाकिस्तान
और पार्टीशन आफ इण्डिया’ किताब लिखने का उद्देश्य राष्ट्र की अखंडता और एकता को
हरेक कीमत पर अक्षुण रखने का था. आंबेडकर को पढने पर यह अनान्यास ज्ञात होता है कि
वे भारत या देश को सर्वोपरि स्थान देते हैं. इसीलिए वे कभी दलित हितों से समझौता
नहीं करते हैं.
यह
सच है कि अगर डॉ. आंबेडकर इतने शिक्षित न होते तो उन्हें इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था
ने कब का हजम कर लिया होता. जैसे वे कबीर को नहीं पचा पाए उसी तरह वे डॉ. आंबेडकर
को भी नहीं पचा पाए. रही बात यह कि तथाकथित ब्राह्मणों ने ने कबीर को इस जन्म का
नहीं अपितु पिछले जन्म का ब्राह्मण सिद्ध करने की नाकाम कोशिश की लेकिन वे डॉ.
आंबेडकर को कभी ब्राह्मण नहीं घोषित कर पाए. हाँ, संघ अपने हिडन एजेंडे के तहत
जरुर डॉ. आंबेडकर की छवि का इस्तेमाल अपनी राजनितिक रोटियों कोसेंकने के लिए कर
रहा है. एक तरह वह आरक्षण को ख़त्म करने के एजेंडे पर है तो दूसरी तरह वह दलित
बस्तियों में अपने पाँव पसार रहा है और अबोध दलितों के द्वारा दंगे, आतंक आदि को
फैलाने का काम कर रहा है. पर वह नहीं जानता कि उसकी हर मूर्खता का तगड़ा जबाब हैं
डॉ. आंबेडकर. डॉ. आंबेडकर के रास्ते पर चलकर एक दिन भारत का दलित वंचित समाज
हिन्दू धर्म की दासता से स्वयं को मुक्त कर लेगा.
डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय, विवि, गया
मो. 9430005835
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